पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष: धरती पर संकट के लिए कौन जिम्मेदार -ज्ञानेन्द्र रावत

ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने की रफ्तार में तो बढ़ोतरी हुइ ही है। नतीजतन ग्लेशियरों का आकार और छोटा होता चला जायेगा। निष्कर्ष यह कि अब हालात पहले से और बदतर होते जा रहे हैं। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

Update: 2021-04-22 07:18 GMT

संयुक्त राष्ट्र् संघ, आईपीसीसी की रिपोर्ट और दुनिया में किए गए शोध-अध्ययनों से अब यह साबित हो गया है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख-संसाधनों की चाहत में बेतहाशा बढ़ोतरी के चलते हुए अंधाधुंध प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। संयुक्त राष्ट्र् संघ के महासचिव एंतोनियो गुतारेस भी दुनिया के देशों को यह चेतावनी दे चुके हैं कि अब खतरा बहुत बढ़ चुका है। इसको कम करने के लिए तुरंत कदम उठाये जाने की जरूरत है। अन्यथा मानव जीवन मुश्किल हो जायेगा। असलियत में जलवायु परिवर्तन और धरती के बढ़ते तापमान के लिए कोई और प्राकृतिक कारण नहीं बल्कि मानवीय गतिविधियां हीं जिम्मेवार हैं। दुख इस बात का है कि यह सब जानते-समझते हुए भी धरती के संसाधनों का क्षय और क्षरण अनवरत जारी है। उस पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है। असलियत में इस्तेमाल में आने वाली हर चीज के लिए, भले वह पानी, जमीन, जंगल या नदी, कोयला, बिजली या लोहा आदि कुछ भी हो, पृथ्वी का दोहन करने में हम कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। और तो और प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन से जैवविविधता पर संकट मंडराने लगा है। प्रदूषण की अधिकता के कारण देश की अधिकांश नदियां अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। उनके आस-पास स्वस्थ जीवन की कल्पना बेमानी है। कोयलाजनित बिजली से न केवल प्रदूषण यानी पारे का ही उत्र्सजन नहीं होता, बल्कि हरे-भरे समृद्ध वनों का भी विनाश होता है। फिर उर्जा के दूसरे स्रोत और सिंचाई के सबसे बड़े साधन बांघ समूचे नदी बेसिन को ही खत्म करने पर तुले हैं। रियल एस्टेट का बढ़ता कारोबार इसका जीता-जागता सबूत है कि वह किस बेदर्दी से अपने संसाधनों का बेतहाशा इस्तेमाल कर रहा है।

बीते ढाई सौ साल के दौरान हुई इंसानी कारगुजारियां इस बरबादी के लिए कुल मिलाकर 90 फीसदी जिम्मेवार रही हैं। वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह साफ हो चुका है। दरअसल पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने का अनुमान है। वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि सदी के अंत तक धरती के तापमान में 0.3 डिग्री से 4.8 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो सकती है। सच्चाई यह भी है कि इसकी अधिकतम सीमा उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा हो सकती है। देखा जाये तो इस तरह धीरे-धीरे पृथ्वी गर्म हो रही है। धरती के तापमान में हो रही यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर विनाशकारी बदलाव ला सकती है। मौसम और जलवायु में आ रहे बदलाव के संकेत विनाश के जीते जागते सबूत हैं। परिणाम स्वरूप समुद्र का जल स्तर 10 से 32 इंच तक बढ़ सकता है और दुनिया में सूखे और बाढ़ की घटनाओं की पुनरावृत्ति पहले के मुकाबले और तेज होगी। ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने की रफ्तार में तो बढ़ोतरी हुइ ही है। नतीजतन ग्लेशियरों का आकार और छोटा होता चला जायेगा। निष्कर्ष यह कि अब हालात पहले से और बदतर होते जा रहे हैं। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

गौरतलब है कि बीते 60 सालों के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्र्सजन के कारण तापमान में 0.5 से 1.3 डिग्री की बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान तीन दशक सबसे ज्यादा गर्म रहे और पिछले 1400 साल में उत्तरी गोलार्द्ध सबसे ज्यादा गर्म रहा है। यह अच्छा संकेत नहीं है। बीते दो ढाई दशकों के दौरान अंटार्कटिक और उत्तरी गोलार्द्ध के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है। अंटार्कटिका में हिमखंड का वो हिस्सा जो पानी के अंदर है, तेजी से पिघल रहा है। कुछ हिस्सें में 90 फीसदी तक जलमग्न बर्फ पिघल रही है। कैलीफोर्निया, ब्रिस्टल और यूटैक्ट यूनीवर्सिटी के शोघों से यह जाहिर हो चुका है। समुद्र के जलस्तर में 0.19 मीटर की औसत बढ़ोतरी हो रही है जो अब तक की सबसे अधिक बढ़ोतरी है। 08 लाख साल में हवा में कार्बन डाई आक्साइड और नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड की मात्रा में भी सर्वाधिक बढ़ोतरी दर्ज हुई है जिसकी अहम् वजह खनिज तेल का इस्तेमाल और जमीन का दूसरे कामों में इस्तेमाल होना है। उपग्रह और जलवायु माॅडलों के आंकड़ों के जरिये शोधकर्ताओं ने यह साबित किया है कि पूरे अंटार्कटिक और खासकर इसके कुछ हिस्सों पर हिमखण्डों के पिघलने का बर्फ के बनने जितना ही प्रभाव पड़ रहा है। हिमशैलों के बनने और पिघलने से हर साल 2.800 घनकिलोमीटर बर्फ अंटार्कटिक की बर्फीली चादर से दूर जा रही है। इसमें से ज्यादातर हिमपात के कारण प्रतिस्थापित हो रही है। नतीजतन किसी भी तरह के असंतुलन से वैश्विक स्तर पर समुद्री सतह पर बदलाव जरूर होगा जिसे नकारा नहीं जा सकता।

यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है कि तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जहांतक आर्कटिक का सवाल है, आर्कटिक सागर के उपर गर्म हवाओं की वजह से वाष्पीकरण तेज हो गया है और वायुमंडल में नमी भी बढ़ गई है। इसका प्रभाव धरती के अलग-अलग हिस्सों में तेज बारिश और चक्रवाती तूफान के रूप में देखने को मिल रहा है। इनकी संख्या दिनोंदिन तेजी से बढ़ती ही जा रही है। फिलीपींस में आए हेयान जैसे महा तूफान इसी का नतीजा हैं। तापमान में आये बदलाव का ही नतीजा है कि दुनिया में चक्रवाती तूफानों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। यूनीवर्सिटी कालेज ऑफ लंदन और ब्रिटिश ओशनग्राफी सेन्टर के वैज्ञानिकों ने कहा है कि आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहां की वनस्पति में भी जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। वहां हमेशा से पनपने वाली छोटी झाड़ियों का कद पिछले कुछ दशकों से पेड़ के आकार का हो गया है। टुंड्रा के फिनलैंड और पश्चिमी साइबेरिया के बीच करीब दस से पन्द्रह फीसदी भूमि पर 6.6 फीट से भी उंची पेड़ के आकार की नई झाड़ियां उग आई हैं। टुंड्रा के इस इलाके में तापमान में बदलाव की यह तो बानगी भर है। बाकी इलाकों का अनुमान लगाना मुश्किल है।

असलियत तो यह है कि ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति को तो नुकसान पहुंचा ही रही है, वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है। फ्लोरिडा और नेब्रास्का यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने शोध के आधार पर इसको साबित किया है। यही नहीं उत्तर भारत में गैंहूॅं उपजाने वाले प्रमुख इलाकों में किए गए स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड बी लोबेल और एडम सिब्ली व अंर्तराष्ट्रीय मक्का व गैहूँ उन्नयन केन्द्र के जे इवान ओर्टिज मोनेस्टेरियो के मुताबिक तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गैंहूॅं की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। तात्पर्य यह कि बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है। तापमान में बढ़ोतरी का दुष्परिणाम समुद्र के पानी के लगातार तेजाबी होते जाने के रूप में सामने आया है। विश्व में समुद्रों के भविष्य को लेकर हुए नए शोध के मुताबिक अगर समुद्रों का पानी लगातार एसिडिक या अम्लीय होता रहा तो पानी में रहने वाली तकरीब 30 फीसदी प्रजातियां सदी के अंत तक लुप्त हो सकती हैं। दरअसल ईंधन के जलने से वातावरण में जितनी भी कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती है, उसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र सोख लेते हैं। यही वजह है कि समुद्र का पानी एसिडिक होता जा रहा है। नतीजन काॅरल या मूंगा की परतें इससे छिलती जा रही हैं और अन्य प्रजातियों को भी नुकसान हो रहा है। यदि वातावरण में ऐसे ही कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्र्सजन होता रहा तो हालात और बिगड़ जायेंगे, उन हालात में समुद्रों का क्या हाल होगा, इस ओर कोई नहीं सोच रहा। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि समुद्री पानी में जिस तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं, वह इतिहास में अप्रत्याशित है। इस नुकसान की भरपायी में हजारों-लाखों साल लग जायेंगे। ऐसे हालात में दिनोंदिन धरती पर खतरा बढ़ता ही जायेगा, इसमें दो राय नहीं।

वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद,

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