हर साल बाल यौन शोषण के तीन हजार मामले सुनवाई के लिए अदालत तक पहुंचने में रहते हैं विफल - कैलाश सत्‍यार्थी चिल्‍ड्रेन्‍स फाउंडेशन

थाने में ही बंद हो जाती फाइल

Update: 2021-03-08 14:28 GMT

नई दिल्ली। अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर कैलाश सत्‍यार्थी चिल्‍ड्रेन्‍स फाउंडेशन (केएससीएफ) ने एक चौंकाने वाला खुलासा किया है। फाउंडेशन द्वारा जारी एक अध्ययन रिपोर्ट बताती हैं कि हर साल बच्चों के यौन शोषण के तकरीबन तीन हजार मामले निष्पक्ष सुनवाई के लिए अदालत तक पहुंच ही नहीं पाते। हर दिन यौन शोषण के शिकार चार बच्‍चों को न्याय से इसलिए वंचित कर दिया जाता है कि क्योंकि पुलिस पर्याप्‍त सबूत और सुराग नहीं मिलने के कारण इन मामलों की जांच को अदालत में आरोपपत्र दायर करने से पहले ही बंद कर देती है। बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ प्रिवेन्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्सेस एक्ट (पॉक्सो) के तहत मामला दर्ज किया जाता है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की साल 2019 की रिपोर्ट बताती है कि बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों में उनके यौन शोषण के खिलाफ मामलों की हिस्सेदारी 32 फीसदी है। इसमें भी 99 फीसदी मामले लड़कियों के यौन शोषण के मामले होते हैं।

कैलाश सत्‍यार्थी चिल्‍ड्रेन्‍स फाउंडेशन ने अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर "पुलिस केस डिस्‍पोजल पैटर्न: एन इन्‍क्‍वायरी इनटू द केसेस फाइल्‍ड अंडर पॉक्‍सो एक्‍ट 2012'' और "स्टेट्स ऑफ पॉक्सों केस इन इंडिया" नामक दो अध्ययन रिपोर्ट तैयार किया है। यह अध्‍ययन रिपोर्ट साल 2017-2019 के बीच पॉक्‍सो मामलों के पुलिस निपटान के पैटर्न का विश्लेषण है। यह तथ्‍य नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर आधारित है जो हर साल क्राइम ऑफ इंडिया रिपोर्ट नाम से जारी जाती है। रिपोर्ट में पिछले कुछ सालों के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि आरोपपत्र दाखिल किए बिना जांच के बाद पुलिस द्वारा बंद किए गए मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है। पॉक्सो कानून के मुताबिक बच्चों के यौन शोषण से जुड़े मामले की जांच से लेकर अदालती प्रकिया एक साल में खत्म हो जानी चाहिए। यानी एक साल के भीतर ही पीड़ित को न्याय मिल जाना चाहिए। जबकि रिपोर्ट बताती है कि सजा की यह दर केवल 34 फीसदी है। इसकी वजह से अदालतों पर पॉक्सों के मामलों का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है।

बच्‍चों का यौन शोषण सबसे जघन्य अपराधों में से एक है। यह अपराध समाज के लिए एक धब्बा है, क्योंकि यह मासूमों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने में विफल रहा है। आंकड़ों से पता चलता है कि देश में पिछले कुछ वर्षों में यौन अपराधों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। जबकि सरकार ने एक विशेष कानून की जरूरत को महसूस करते हुए ही पॉक्‍सो कानून बनाया था। लेकिन जमीन पर इसका प्रभाव और परिणाम अत्‍यंत निराशाजनक रहा है। सरकार ने बच्चों के यौन शोषण के मामले में अतिशीघ्र सुनवाई कर त्वरित गति से न्याय दिलाने के लिए 2018 में फास्टट्रैक कोर्ट बनाने की घोषणा की थी। लेकिन अभी तक इसे अमलीजामा नहीं पहनाया गया। आकड़े बताते हैं कि साल 2017 में पॉक्‍सो के तहत 32,608 मामले दर्ज किए गए जो 2018 में बढ़कर 39,827 हो गए। यह वृद्धि करीब 22 फीसदी थी। जबकि 2019 में यह संख्या बढ़कर 47,335 हो गई। साल 2018 के मुकाबले इसकी तुलना की जाए तो साल 2019 में पिछले के मुकाबले बच्चों के यौन शोषण के मामलों में 19 फीसदी की बढोत्तरी देखने को मिली।

पीडि़तों के न्‍याय को सुनिश्चित करने में आरोपपत्र दाखिल करना एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि यह निष्पक्ष सुनवाई और न्याय का मार्ग प्रशस्त करता है। नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यरो के आंकड़ों में यह देखा गया है कि पॉक्‍सो के तहत दर्ज कुल मामलों में से 6 फीसदी मामले सबूत का अभाव बताकर थाने की फाइलों में ही बंद कर दिए जाते हैं। जो मामले बिना आरोपपत्र दाखिल किए ही पुलिस द्वारा बंद किए गए थे, उनमें 40 फीसदी मामले सही थे। लेकिन, जांच में उसके पक्ष में पर्याप्‍त साक्ष्‍य या सुराग नहीं मिल पाए थे। चूंकि मामलों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है, जिन्हें चार्जशीट दाखिल किए बिना बंद कर दिया गया। इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जांच ठीक से नहीं की गई थी। यह एक ऐसा संवेदनशील मसला है, जिसे पीड़ितों को न्याय दिलाने और बच्चों के प्रति यौन अपराधों की संख्या पर रोक लगाने के लिए तुरंत कार्रवाई करने की जरूरत है।

इसके अलावा केएससीएफ ने (2017 से 2019) पॉक्‍सो मामले में एक अन्य विश्लेषण का भी खुलासा किया है। जिसमें कहा गया है कि बाल यौन दुर्व्‍यवहार के पीड़ितों के न्‍याय को सुनिश्चित करने के लिए अदालतों को अपने न्याय वितरण तंत्र को तत्‍काल तेज करने की आवश्यकता है। पिछले मामले (बैकलॉग) भी अगले वर्ष में जांच के लिए मामलों की संख्या में वृद्धि कर रहे हैं। यह ऐसे गंभीर मामलों से निपटने के लिए पुलिस की प्रभावी भूमिका पर भी सवाल उठता है। इस प्रकार 2017 के बाद से जांच के लंबित मामलों में 2019 तक 44 फीसदी की वृद्धि हुई है। यह सालाना औसतन 15 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि के साथ यह जारी है। यदि लंबित मामलों में यह वृद्धि जारी रहती है तो लंबित मामलों की संख्या सात वर्षों में दोगुनी हो जाएगी।

स्टेट्स ऑफ पॉकसों केस इन इंडिया रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्‍तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली ऐसे राज्‍य हैं, जहां बच्चों के यौन शोषण यानी पॉक्सो के कुल मामलों में भागीदारी 51 फीसदी है। जबकि इन राज्यों में पॉक्सो मामले में सजा की दर 30 फीसदी से 64 फीसदी के बीच है, जो काफी कम है। एक हकीकत यह भी है कि जिन मामलों में पीड़ित वंचित और हाशिए के समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, उन मामलों में पीड़ित एफआईआर में वर्णित तथ्यों से किसी प्रभाव में आकर या किसी मजबूरी में समय आने पर अपने बयान को बदल देते हैं या सच से खुद मुकर जाते हैं।

रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कैलाश सत्‍यार्थी चिल्‍ड्रेन्‍स फाउंडेशन की निदेशक ज्योति माथुर ने कहा, "पीडि़तों के न्‍याय को सुनिश्चित करने और प्रभावी ढंग से चुनौतियों का समाधान करने के लिए पॉक्‍सो के तहत पंजीकृत सभी मामलों को अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक या पुलिस उपायुक्त स्तर के वरिष्ठ अधिकारी द्वारा बारीकी से देखा जाना चाहिए। दूसरी ओर बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित मामलों के बढ़ते हुए खतरों को देखते हुए इसकी जांच के लिए जिला स्तर पर एक समर्पित यूनिट की की भी आवश्यकता है। साथ ही पीड़ितों को शीघ्र न्याय दिलाने के लिए फास्टट्रैक और स्पेशल कोर्ट की जरूरत है। इसके अलावा यौन अपराध के शिकार बच्‍चों और महिलाओं को ऐसे प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिकों को भी मुहैया कराने की आवश्‍यकता है, जो उन्‍हें ऐसे आघातों से पार पाने में सहायता कर सकें। फाउंडेशन देश से बाल यौन शोषण के किसी भी खतरे को दूर करने के लिए सभी संबंधित हितधारकों को अपना पूर्ण समर्थन और सहयोग देगा।''

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