कंक्रीट मिक्सर में मजबूर 'कोरोना वॉरियर्स'

Update: 2020-05-04 09:07 GMT

Hari Shankar व्यास

इस पृथ्वी पर कौन सा कोना है, जहां इंसानों की जानवर माफिक वैसी मर्मांतक तस्वीरें दिखीं, जैसी भारत में हमने देखी हैं? सीमेंट-गिट्टी मिक्सर के इस्पाती सांचे में मजदूरों ने अपने आपको अंधेरी घुटन में बंद करके जीने का जो रास्ता अपनाया वह लाचारगी की पराकाष्ठा नहीं है? मैंने सड़क के रास्ते, ठीक दुपहरी औरतों, बच्चों, मर्दों को गठरी, बैग उठाए हाईवे के किनारे पैदल जाते देखा है। मैंने पढ़े-लिखे-पैसे वाले परिवारों के बच्चों को घर जाने की बसों का इंतजार करते देखा है। मैंने घर में दुबके लोगों को भय, अंधविश्वास व मूर्खताओं में जीते देखा है। चार-पांच करोड़ लोगों को (पैसे, रसूख, चिकित्सा सुविधा में सामर्थ्यवान) छोड़ भारत के 125 करोड़ लोगों के लिए सीमेंट-क्रंकीट मिक्सर वाला जीवन ही वायरस, भूख, बेबसी, और भय से जान बचाने का जुगाड़ है। भारत का गरीब, मजदूर, समाज का औसत नागरिक ऐसे ही जीवन जीने का आदी रहा है। ऐसे जीवन जीना ही उसके 'अच्छे दिन' हैं, ऐसे ही वक्त काटना भारत सरकार का यह दावा बनवाता है कि बुरा वक्त गुजर गया!

सीमेंट-गिट्टी मिक्सर में मजदूरों के बंद मिलने की खबर के साथ ही मोदी सरकार का यह कहा भी पढ़ा कि सबसे बुरा दौर गुजर चुका है! यह भी मालूम हुआ कि 'कोरोना वॉरियर्स' को सलामी देने के लिए भारत की सेना रविवार को तमाशा दिखाएगी! सरकार और सेना का सोचना और उसकी तमाशेबाजी का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वक्त इन बेहूदगियों का जवाब लिए होगा। इतना तय है कि समसामयिक इतिहास व आने वाली पीढ़ियों की याददाश्त में यह बाकायदा दर्ज हो चुका है कि 21वीं सदी में सीमेंट-गिट्टी मिक्सर के इस्पाती सांचे में बंद रह कर भारत के लोगों ने 'कोरोना वॉरियर्स' से भी भयावह भय, बेबसी, भूख में मार्मिक जीवन जीया। लाखों-करोड़ों गरीबों ने परिवार सहित सैकड़ों हजारों किलोमीटर पैदल चल कर घर की सांस ली। कई-कई दिन, कई-कई सप्ताह, महीनों बाड़ों में जानवरों की तरह बंद रहे। जिन्हें मौका मिला वे सामान उठा पैदल घर के लिए निकल पड़े। जिसे जैसा मौका मिला, जानवर की तरह रेंगते हुए, बचते हुए, ट्रंक के सामान में छुपकर, सब्जी-चारे के ढेर में दब कर, सीमेंट-गिट्टी मिक्सर के अंधेरे में सांस लेते हुए अपने बिल, अपने घर लौटे।

यह कहानी सालों याद रहेगी कि गरीबों को भूखे-सूखे ही क्वारंटीन कर दिया गया। बाड़ों में बंद करके एक-दो केले फेंक कर, पूड़ी-रोटी के पैकेट दे कर भारत देश ने, भारत की व्यवस्था ने गरीबी, भूख, बेबसी के अपने चिड़ियाघर को जिंदा रखा! हां, गरीबी, अशिक्षा, लाचारी, बेबसी और भय के 125 करोड़ 'कोरोना वॉरियर्स' के बुरे दिन खत्म होने या अच्छे दिन आने पर विचार इसलिए भी अभी बेमानी है क्योंकि सीमेंट-गिट्टी मिक्सर में, चालीस या सत्तर या सौ-डेढ़ सौ दिन भारत के लोगों का घूमना या कि पीसना जीवन ऊर्जा को सोख लेने वाला साबित होना है। भारत के ये गरीब, असहाय, भयभीत 'कोरोना वॉरियर्स'आईसीयू में चले गए हैं। वे दीपावली तक अपने-अपने आईसीयू में ही रहेंगे। भारत सरकार कितना ही दावा करे कि बुरा वक्त गुजर गया, भारत के 125 करोड़ 'कोरोना वॉरियर्स' अभी चक्रव्यूह के पहले घेरे में हैं। भय, भूखमरी, बेबसी की इनकी जकड़न आने वाले महीनों में और विकट होंगी।

ये ख्याली पुलाव बुरी तरह फेल होने हैं कि भारत दो-चार महीनों में चलने लगेगा। भारत को सामान्य हालात लौटने के लिए मोदी सरकार ग्रीन, ऑरेंज, रेड जोन जैसी या शराब की दुकानें खोल कर पैसा कमाने जैसी आर्थिक गतिविधियों को चालू करने की चाहे जो सूचियां बना ले इन पैंतरेबाजियों से कुछ नहीं होना क्योंकि भारत में वायरस का भय हिंदुओं की मूल छुआछूत प्रवृत्ति को जिंदा कर दे रहा है। आखिर वैज्ञानिकता-सत्यता-टेस्टिंग जब है नहीं और सब कुछ छुपाना है, हेडलाइन बनाना है तो पुरानी आदतें, अंधविश्वास और भय का लोगों का व्यवहार स्वंयस्फूर्त बनेगा-बढ़ेगा। समझें हकीकत कि भारत के महानगरों की सोसायटी, कॉलोनियां हों तो आऱडब्ल्यूए या गांव-कस्बों में पंच-सरपंच के निगरानी वाला समाज सब तरफ 'कोरोना वायरस' भूत-अछूत की तरह हो गया है।

इससे जहां डॉक्टरों-चिकित्साकर्मियों तक से दूरी और भेदभाव का व्यवहार बना है तो बाहर से पहुंच रहे निवासी को वायरस संक्रमित समझा जा रहा है। भारत में 'बिमारी' पर नहीं 'बीमार' को ले कर हाहाकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस अंदाज में अचानक लॉकडाउन की भाषणबाजी में लक्ष्मण रेखा बनवाई और फिर सरकारों ने मूर्खता में बाहर से आने वाले गरीब-मजदूर-छात्र आदि सभी को ले कर जैसा भय बनवाया, क्वारंटीन के बाड़ों में उनका जैसा अनुभव कराया वह लोगों के मनोविज्ञान में छूत का भाव बनवा चुका है। बिमारी को छुपाने से ले कर घर में पड़े रहने का व्यवहार बनवा दे रहा है। वैक्सीन आने के बाद भी इन सबसे पार पाना कब संभव हो सकेगा, इस पर अनुमान लगाना व्यर्थ है।

इस बात को इस तथ्य से भी समझें कि कर्नाटक, तेलंगाना जैसे प्रदेशों के कई मुख्यमंत्री प्रवासी मजूदरों को समझाने-मनाने, रोकने, खाना देने के तमाम उपाय कर चुके हैं फिर भी लोग घरों की और पैदल ही निकल पड़े, या निकलना चाहते हैं तो वजह भय है। लोगों का सरकारों के उपायों-सामर्थ्य पर अविश्वास है। यह अविश्वास चालीस दिनों के अनुभव से और पुष्ट हुआ है। फिर जरा सोचें कि सीमेंट-गिट्टी मिक्सर में पाए गए मजूदरों के साथ क्या हुआ? उन्हें अनजान प्रदेश के अनजान इलाके के क्वारंटीन बाड़े में डाल दिया गया। कोई रहम, दया, संवेदना नहीं। तभी कोरोना का यह वायरस भारत के अधिकांश गरीब, मजदूर, बेबस, लाचार, भयभीत लोगों को एक सा अनुभव करा रहा है। सबको अपनी जान खुद बचानी पड़ रही है। फिर भले पैदल ही घर को रवाना हो कर बचाए या सीमेंट-गिट्टी मिक्सर में बंद हो कर!


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