हक़ बख्शीश: औरत और इस्लाम में निकाह की एक प्रथा
हालाँकि इसके लिए अब सात साल की सजा है पाकिस्तान में, मगर फिर भी यह इसलिए जारी है क्योंकि इसकी शिकायत नहीं की जाती है।
हक़ बख्शीश, कई लोगों के लिए यह पहली बार कानों में पड़ने वाला नाम होगा। मेरे लिए भी! कई लोगों को जानने की जिज्ञासा होगी, जैसे मुझे हुई तो खोजते खोजते एक ऐसी अमानवीय प्रथा की ओर गयी, जिसमें औरतों के लिए एक अंधी गली है, उसके आगे कुछ नहीं। पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में एक ऐसी प्रथा है, जिसमें औरतों का निकाह कुरआन से कर दिया जाता है, एवं ऐसा भी नहीं कि बाद में उसे निकाह करने का अधिकार हो, अर्थात वह मर्द से निकाह करने के अपने अधिकार को त्याग देती है और आजन्म कुंवारी रहती है। मगर ऐसा क्यों होता है और क्या इस्लाम के सभी वर्गों में होता है?
इसका जबाव भी मिलता है। nation.com.pk में वर्ष 2017 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार यह प्रथा मुख्यता सैयद परिवारों में ज्यादा पाई जाती है और इसका आधार मजहबी न होकर पूरी तरह से आर्थिक है। चूंकि सैयद खुद को ऊंची जाति और शुद्ध खून वाला मानते हैं, तो इसलिए जब उन्हें अपनी बेटियों के लिए अपनी सैयद जाति में कोई ऐसा लड़का नहीं मिलता है, जो उनके परिवार के लायक हो तो वह दूसरी जाति में जायदाद जाने से बचाने के लिए, अपने परिवार की बेटियों का निकाह कुरआन से कर देते हैं, जिससे वह जायदाद घर की घर में ही रहे।
इस्लाम की यह कुप्रथा केवल और केवल अमीरों में ही पाई जाती है, जैसा यह रिपोर्ट बताती है। यह कुप्रथा वैसे तो सिंध के इस्लाम के अनुयाइयों में पाई जाती है, परन्तु यह केवल यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि पंजाब सहित पूरे पाकिस्तान में कई क्षेत्रों में पाई जाती है। यद्यपि पाकिस्तान में कानूनी तौर पर यह प्रतिबंधित है क्योंकि यह मजहबी नहीं है परन्तु यह अभी भी प्रचलित है और परिवार इसकी रिपोर्ट करने से डरते हैं।
इस विषय को लेकर 'होली वुमन' के नाम से क्वैसरा शहराज का एक उपन्यास आया है। जो ग्रामीण सिंध की एक लड़की जरी बानो की कहानी है, जिसमें नायिका एक स्त्रीवादी है और उसके पास डिग्री भी है और जो एक प्रकाशन कंपनी खोलना चाहती है, और फिर कई लड़कों को ठुकराने के बाद एक लड़के से प्यार होता है, पर दुर्भाग्य से उसके भाई की मौत हो जाती है और उसके पिता की जमीन जायदाद का कोई कानूनी वारिस नहीं है तो वह उसे अपना कानूनी वारिस बनाकर उसका निकाह कुरआन के साथ करा देते हैं। हालांकि उपन्यास के अंत में नायक सिकंदर उसे इस बंधन से बाहर निकाल लेता है।
पर ऐसा असली ज़िन्दगी में होता होगा, ऐसा पता नहीं क्योंकि पाकिस्तान प्रेस इंटरनेशनल (पीपीआई) ने एक घटना का उल्लेख करते हुए उसी रिपोर्ट में जुबैदा अली के हवाले से कहा था कि जुबैदा ने एक घटना देखी जो सिंध में उसके पैतृक गाँव में हो रही थी। उसने देखा कि उसकी बहन (चचेरी) का निकाह कुरआन के साथ हो रहा था। वह बहुत ही अजीब था। जुबैदा के अनुसार उसकी बहन बहुत सुन्दर थी और उसकी उम्र लगभग 25 वर्ष की थी, और वह पूरी तरह दूल्हन की वेशभूषा में थी। वह सुर्ख लाल रंग के दुल्हन की पोशाक पहने हुए थी। उसके मेहंदी लगी हुई थी और वह गहरे रंग की चादर ओढ़े हुए थी। हर तरफ नाचगाना हो रहा था।
फरीबा उस निकाह के बाद "हाफिजा" हो गयी थी, अर्थात जिसे कुरआन पूरी तरह याद हो और अब उसे अपनी पूरी उम्र कपड़े सिलकर बितानी थी या फिर कुरआन को पढ़ते हुए।
हालाँकि इसके लिए अब सात साल की सजा है पाकिस्तान में, मगर फिर भी यह इसलिए जारी है क्योंकि इसकी शिकायत नहीं की जाती है।
यह कुप्रथा अपने आप में इसलिए चौंकाने वाली है कि इसके बारे में इस्लाम का कोई भी व्यक्ति बहस करते हुए नज़र नहीं आता। बार बार हिन्दुओं को देवदासियों के नाम पर बदनाम करने वाला बौद्धिक वर्ग भी इस्लाम में औरतों पर होने वाले इस अत्याचार पर कुछ नहीं बोलता यहाँ तक कि 'द डांसिंग गर्ल्स ऑफ लाहौर' में लाहौर की तवायफों की ज़िन्दगी के बारे में लिखने वाले लुईस ब्राउन हिन्दुओं की देवदासी प्रथा को वैश्यावृत्ति से जोड़ देते हैं और औरतों के सबसे बड़े बाज़ारों में से एक लाहौर की तवायफों को जैसे जायज ठहरा देते हैं।
यह नितांत अजीब कहानी है कि इस्लाम का एक तबका अपने समुदाय की औरतों पर होने वाले लगभग हर अत्याचार पर मौन रहता है फिर चाहे वह एक बार में तीन तलाक हो, हलाला हो, चार निकाह की बात हो, मुत्ता निकाह हो, लड़कियों का खतना हो, जहेज हो या फिर अब यह हक़ बख्शीश! इस्लाम का मर्दवादी तबका एकदम चुप रहता है, वह मुंह नहीं खोलता है, प्रश्न यह है कि वह अपने ही समुदाय की औरतों के लिए इतना निर्दयी कैसे हो सकता है कि वह अपनी जमीन को बंजर होने से बचाने के लिए अपनी बेटी की जिन्दगी को ही बंजर कर दे?
साभार हिंदूपोस्ट