क्या राष्ट्र पतन के संकट की ओर वाकई अग्रसर है भारत?
नोबल पुरुस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य ने सलाह देते हुए कहा कि देश के हिंदू मुसलिम को मिलकर साथ काम करने की आवश्यकता है
कल तीस जून को कोलकाता में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए नोबल पुरुस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा कि "हमारा देश राष्ट्र पतन के संकट से गुजर रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि पैगंबर के खिलाफ दिये गये बदतमीजी वाले बयान ने देश के लिए गंभीर संकट पैदा कर दिया है। उन्होंने सलाह देते हुए कहा कि देश के हिंदू मुसलिम को मिलकर साथ काम करने की आवश्यकता है और बहुसंख्यक समाज हर चीज का अंत नहीं है। साथ ही उन्होंने कहा कि भारत केवल हिंदू संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि मुसलिम संस्कृति भी भारत का हिस्सा है।" देश के इतने बड़े अर्थशास्त्री की चिंता बेमानी नहीं हो सकती। देश पर हावी होता बहुसंख्यकवाद नुकसानदेह होता जा रहा है। इस बहुसंख्यकवाद के हावी होने से देश के दूसरे बड़े समुदाय मुसलिम समुदाय में नकारात्मकता बढ़ रही है जो देश के आर्थिक विकास की दौड़ में बड़ी बाधा बन सकती है।
आजकल बतौर फैशन मुसलमानों को नसीहतें देने का दौर चल रहा है। उदयपुर की घटना ने इसे एकाएक तेज कर दिया है क्योंकि इस घटना में मरने वाला हिंदू समुदाय से और मारने वाले मुसलमान हैं। किसी बेगुनाह के कत्ल को जायज नहीं ठहराया जा सकता और हर मॉब लिंचिग को मानवता विरोधी अपराध की संज्ञा दी जानी चाहिये। उदयपुर में मारे गये कन्हैया की मौत से बहुसंख्यक समुदाय बहुत रोष में है हालांकि मॉब लिंचिग इससे पहले भी कई बार हुई हैं।
कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश में हुई भंवरलाल जैन की मुसलमान समझकर की गयी हत्या में आरोपी बहुसंख्यक समाज से थे लेकिन उस घटना के बाद ऐसा रोष नजर नहीं आ रहा था। मैं उन घटनाओं का जिक्र नहीं करता जिसमें मुसलमान मारे गए हैं क्योंकि हो सकता है कि बहुसंख्यक समाज की दृष्टि में मुसलमान क्रूर, कट्टर, और हर बुराई के लिए जिम्मेदार हों लेकिन भंवरलाल जैन तो जैन समुदाय से थे जो देश का कम जनसंख्या वाला समुदाय है तथा उसका रहन सहन हिंदू समुदाय से मेल खाता है, कारोबारी समुदाय होता है तो फिर भंवरलाल जैन की हत्या पर बहुसंख्यक वर्ग को ज्यादा गुस्सा क्यों नहीं आया। इसका मतलब यह निकलता है कि बहुसंख्यक हिंदू वर्ग की दृष्टि में केवल हिंदू वर्ग की जान की ही कीमत होती है बाकी किसी समुदाय के आदमी की जान की कोई कीमत नहीं। ये भेदभाव केवल आम लोगों तक सीमित नहीं है बल्कि व्यवस्था तक भी इसी सोच के साथ कार्य करती है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नुपुर शर्मा को डांट लगाते हुए यह कहना कि आपका निचली सभी कोर्ट छोड़ कर सीधा सुप्रीम कोर्ट आ जाना आपका घमंड है। अब सवाल यह है कि नुपुर शर्मा खुद वकील हैं और उनकी याचिका भी किसी वकील के जरिए ही कोर्ट में गयी होगी तो क्या इन्हें यह नहीं मालूम था कि नियम क्या हैं। उन्हें सब मालूम था। फिर भी वह गईं। इसका जवाब खुद सुप्रीम कोर्ट ही दे सकता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के पिछले रवैये से नुपुर शर्मा का यह लगा होगा कि मुझे कोर्ट में फेवर मिलेगा और मेरी सराहना की जाएगी क्योंकि मैं बहुसंख्यक वर्ग से हूं, सरकार की चहेती हूं।
व्यवस्था में बढ़ता हुआ बहुसंख्यकवाद और समाज के दोहरे मापदंडों से देश के अल्पसंख्यक वर्ग बहुत चिंतित होने लगे हैं। किसी भी देश का नेतृत्व देश का बहुसंख्यक समाज ही खींचता है और दूसरे अन्य वर्ग अपने अपने हितों को ध्यान में रखते हुए उसके पीछे चलते हैं तथा देश का संविधान व व्यवस्था अन्य कमजोर वर्गों व समाजों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ती है। भारत जैसे दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में ऐसी घटनाओं का घटना घोर चिंता का विषय है। ऐसी भेदभाव वाली मानसिकता देश को कमजोर करती है तथा दुनिया में देश का सम्मान खराब होता है।
व्यवस्था के अलावा मीडिया पर भी अंकुश लगाने की आवश्यकता है। कल राहुल गांधी के पुराने बयान को एक चैनल ने जिस बेहुदा तरीके से उदयपुर में हुई वीभत्स घटना से जोड़ कर चलाया और आज कांग्रेसी कार्यकर्ता उस चैनल के नोएडा स्थित ऑफिस को घेरे हुए हैं और अब वह चैनल लगातार माफियां मांग रहा है उससे मीडिया के लिए बेहद शर्मिंदगी की बात है। इसलिए देश की सामाजिक एकता को पहुंचने वाले नुकसान में मीडिया का भी बड़ा दखल जिसके लिए मीडिया को भी सुधरने की आवश्यकता है।
वर्तमान वैश्विक परिदृश्य मे जब पूरा विश्व आर्थिक मंदी की चपेट की ओर बढ़ रहा है तब क्या कोई देश ऐसी नीतियों से तरक्की कर सकता है। तमाम राजनीतिक दलों खासतौर से सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी को यह विचार करना चाहिए कि क्या इन घटनाओं से हम आर्थिक क्षेत्र में आगे बढ़ सकते हैं। ग्लोबलाइजेशन के बाद दुनिया जब गांव बन चुकी हो तब किसी भी देश में घटी कोई भी घटना पूरी दुनिया के लिए चर्चा का विषय बन जाती है। अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कि चिंता भी इसी ओर इशारा कर रही है।
जहां हर देश अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर परेशान हो तथा बदलते दौर में अपना कोई स्थान नियत करना चाहता हो तब इतनी बड़ी जनसंख्यया का वजन ढोने वाला देश भारत इन सांप्रदायिक बहसों मे उलझा रहे तो चिंता होनी स्वाभाविक है। हमें तो देश में शांति स्थापित कर संसाधनों का प्रचूर इस्तेमाल कर महंगाई और बेरोजगारी से लड़ना चाहिए। देश में अभी बहुत ताकत है और अधिकांश आबादी युवा है। हमें इस युवा ऊर्जा का इस्तेमाल सही रास्तों और विकास में करना चाहिए न कि समाजों के आपसी संघर्ष में। आने वाला समय देश दुनिया के लिए संघर्ष का समय है और ये बात अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री समझ रहे हैं काश हमारे नीतिनिर्धारक भी समझ जाएं।