माजिद अली खान
अफगानिस्तान में तालिबान लगभग जीत गए हैं और प्राप्त समाचारों के मुताबिक काबुल पर उन्होंने नियंत्रण भी कर लिया है. राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़कर फरार हो गए हैं और खबर मिली है कि वह ओमान में पनाह ले चुके हैं. तालिबान ने युद्धबंदी की घोषणा कर दी है और तमाम देशों से और वैश्विक शक्तियों को बातचीत करने का न्यौता भी दे दिया है. अफगानिस्तान में यह पहली बार ऐसा नहीं हुआ है कि कोई सरकार बदली गई हो या किसी को अपदस्थ किया गया हो या वहां युद्ध ना लड़ा गया हो. अफगानिस्तान में युद्धों का एक लंबा इतिहास रहा है और वहां एक समूह दूसरे समूह को लड़कर शासन से हटाता रहा है. अब जबकि तालिबान ने अफगानिस्तान पर कंट्रोल कर लिया है और दुनिया की सुपर पावर अमेरिका, रूस, चीन आदि ने भी तालिबान को नहीं रोका तो अब यह उम्मीद बिल्कुल नहीं लगाई जा सकती यह उन्हें अब कोई रोक सकता है.
अफगानिस्तान में क्या हो रहा है, क्या होगा, क्यों होगा यह उस देश का अंदरूनी मामला है लेकिन अफगानिस्तान के चल रहे घटनाक्रम से भारत की मीडिया, सोशल मीडिया पर खूब चर्चाएं चल रही हैं. मीडिया और सोशल मीडिया तालिबान के बहाने भारत में ऐसे कंटेंट परोस रहे हैं जिससे यह लगता हो के तालिबान ने काबुल नहीं दिल्ली पर नियंत्रण किया हो. पिछले तीन दिनों से यदि हम न्यूज़ चैनलों सोशल मीडिया पर चल रही बहस को देखें तो उसमें बहस का मुद्दा यह नहीं है की एक पड़ौसी देश में क्या चल रहा है बल्कि बहस का मुद्दा यह है कि तालिबान का धर्म क्या है और उसको समर्थन करने वाले भारतीयों का धर्म क्या है. यानी किसी विदेश में सत्ता परिवर्तन हो रहा है और एक लंबी लड़ाई का अंत हो रहा है इस पर चर्चा की जा सकती है, लेकिन धार्मिक बहस करने की कोई तो वजह है और इस वजह को इस तरह भी समझा जा सकता है कि हमारे देश में अगले साल अतिमहत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने वाले हैं. और हमारे देश की केंद्र सरकार संभालने वाली सत्तारूढ़ पार्टी ध्रुवीकरण करने का कोई मौका हाथ से जाने देना नहीं चाहती. इसलिए सोशल मीडिया का विश्लेषण किया जाए तो कंटेंट्स में धार्मिक टिप्पणियां, भारत के नागरिकों को डराना, तालिबान को एक हौवा बना कर खड़ा करना और देश में हिंदुत्व के नाम पर हो रही हिंसा को वाजिब ठहराना प्रमुख विषय है.
इससे यह एहसास होता है कि एक पड़ौसी देश के मामलों से हमारे देश के एक आम नागरिक का क्या सरोकार हो सकता है. पड़ौसी देशों में सत्ता संबंधी जो भी घटनाक्रम होते हैं उन पर देश की सरकार ही वक्तव्य जारी करती है और अपनी मीटिंग बुलाकर अपनी नीतियों की घोषणा करती है लेकिन अफगानिस्तान में इस सत्ता परिवर्तन को लेकर आम भारतीय बिल्कुल ऐसे ही चर्चा कर रहा है जैसे वह अपने किसी राज्य की सरकार के बारे में चर्चा करता है. इन सब के पीछे कौन से कारण छिपे हुए हैं और कौन लोग इन कंटेंट्स फैला रहे हैं इसका जांच भी होनी चाहिए. कुछ लोगों ने दबे मुंह यह कहना शुरू कर दिया है कि मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए यह संदेश आम किया जाएगा कि पड़ौस में चूंकि कट्टरपंथी तालिबान हकूमत में आ गए हैं इसलिए देश खतरे में है और खतरे से बचाने के लिए भाजपा का सत्ता में रहना अनिवार्य है. मतलब जो ध्रुवीकरण देश के भीतर हिंदू मुस्लिम की चर्चा कराकर किया जाता था और उससे पहले पाकिस्तान व आईएसआई का नाम लेकर वोट बटोरे जाते थे अब तालिबान को एक विलेन के रूप में पेश कर भारत की केंद्रीय वह राज्य सरकारों पर कब्जा करने की कोशिशें शुरू कर दी जाएंगी. पता नहीं कब तक डरा डरा कर वोटरों से वोट हासिल किए जाते रहेंगे.
लोकतंत्र में वोट हासिल करने के लिए एक हौव्वा खड़ा करना जरूरी होता है. तालिबान के रूप में भी एक ऐसा ही होगा. देश में एक हौव्वा खड़ा करने की कोशिश की जा रही है जिसके लिए सोशल मीडिया पर तैयारी देखी जा सकती है. हालांकि तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन भारत के समर्थन में बयान दे चुके हैं. तालिबान के प्रवक्ता का कहना है कि हम भारत द्वारा अफगानिस्तान में किए गए हर काम की सराहना करते हैं, यह देश के विकास, पुनर्निर्माण और लोगों के लिए आर्थिक समृद्धि के लिए है. भारत पहले भी अफ़गानों की मदद करता रहा है. लेकिन तालिबान के प्रवक्ता इस बयान को सोशल मीडिया पर अहमियत नहीं दी गई बल्कि इसके विपरीत ऐसे बयान ज्यादा डाले जा रहे हैं जो जाहिर करते हों की तालिबान के अफगानिस्तान में सत्ता संभालने के बाद भारतीयों के लिए कोई बड़ा नुकसान होने वाला हो. इन बातों से यह बात साफ हो जाती है की तालिबान के जरिए भारत की राजनीति में गर्माहट पैदा करने की कोशिश की जाएगी.