आज विश्व पर्यावरण दिवस है। आज पर्यावरण का सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि पृथ्वी की चिंता आज किसी को नहीं है। और तो और हालात की भयावहता की ओर भी किसी का ध्यान नहीं है। जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है, उनसे तो इसकी उम्मीद करना ही बेमानी है। इसका सबसे बडा़ कारण यह है कि न तो पृथ्वी और न ही पर्यावरण उनका वोट बैंक है जबकि पृथ्वी और पर्यावरण हमारे अस्तित्व का आधार है। जीवन का केन्द्र है। वह आज जिस स्थिति में है, उसके लिए हम ही जिम्मेवार हैं। इसका अहम कारण मानव का बढ़ता उपभोग है और दुखदायी बात यह कि इसके बारे में कोई नहीं सोचता कि यह उपभोग की वस्तु नहीं है। पृथ्वी तो मानव जीवन के साथ साथ लाखों लाख वनस्पतियों, जीव जंतुओं की आश्रय स्थली है। इसके लिए किसी खास वर्ग विशेष को दोषी ठहराना उचित नहीं है, इसके लिए तो हम सभी जिम्मेवार हैं जो प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का अपनी सुविधा की खातिर बेदर्दी से बेतहाशा इस्तेमाल कर रहे हैं। पृथ्वी जीवाश्म ईंधन का विशाल भंडार है लेकिन उसका जिस तेजी से दोहन हो रहा है, उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। जबकि यह नवीकरणीय संसाधन नहीं हैं और यह कड़वा सच है कि इसके बनने में लाखों-करोडो़ं साल लग जाते हैं। जाहिर है इसने पर्यावरण के खतरों को चिंता का विषय बना दिया है।
दुनिया के ताजा अध्ययन-शोध इसके सबूत हैं कि और इस बात की संभावना अब पहले से और अधिक बढ़ गई है कि आने वाले पाँच वर्षों में दुनिया का तापमान बढ़कर एक नये स्तर तक पहुँच सकता है। ब्रिटेन के मौसम विभाग के अलावा अमरीका, चीन समेत दुनिया के दस देशों के शोधकर्ताओं के साझा अध्ययन में कहा गया है कि 2025 तक कोई एक वर्ष पूर्व-औद्योगिक काल से 1.5 डिग्री तक गर्म हो सकता है। इस अध्ययन के मुताबिक़ इसकी 40 प्रतिशत तक संभावना बलवती हो गयी है। जबकि पहले इसकी संभावना केवल बीस फीसदी ही थी। वह बात दीगर है कि
यह तापमान जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के तहत निर्धारित दो तापमान सीमाओं से कम है। गौरतलब है कि यह अध्ययन विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के ज़रिये सामने आया है। उसके अनुसार धरती का तापमान बढ़ने से बेमौसम बरसात, जंगलों की आग, भयंकर चक्रवात जो अमरीका में 2005 में तबाही मचाने वाले कैटरीना से भी भयानक होंगे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के आने की संभावना बढ़ गयी है। यदि हम
ब्रिटेन के वरिष्ठ मौसम विज्ञानी लियन हरमैनसन की मानें तो उनके अनुसार "जब हम 1850-1900 के समय के तापमान से तुलना करते हैं तो हमें अंतर साफ़ दिखाई देता है कि इस दौरान तापमान में बढो़तरी हुई है और हम 1.5 डिग्री के क़रीब पहुँच रहे हैं। यह इस बात का संकेत कहें या चेतावनी है कि अब कुछ कड़े निर्णय लेने का समय आ गया है ताकि समय हमारे हाथ से ना निकल जाये।" निष्कर्ष यह कि अब हमारे पास सिर्फ़ एक या दो दशक का ही समय है जब हम पूरी तरह 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को हमेशा के लिए पार कर जायेंगे। यहां यह जान लेना जरूरी है कि पेरिस समझौते के तहत वैश्विक औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि ना होने देने और 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार ना करने के प्रयास करने का लक्ष्य रखा गया था। और यह भी सच है कि यह लक्ष्य किसी एक वर्ष के लिए नहीं था बल्कि लंबे समय के लिए रखा गया था।
लंदन के इंपीरियल कॉलेज में ग्रांथम इंस्टिट्यूट के शोध निदेशक डॉक्टर जोएरी रोगेल्ज के अनुसार एक ही साल में 1.5 डिग्री सेल्सियस के बदलाव से ना सिर्फ़ पेरिस समझौते का उल्लंघन होता है, बल्कि यह हम सबके लिए एक बहुत बुरी ख़बर भी है।
यह हमें एक बार फिर से चेतावनी है कि पर्यावरण और जलवायु की सुरक्षा के लिए अभी तक किये गए हमारे प्रयास नाकाफ़ी हैं। हमें अपने कार्बन उत्सर्जन को जल्द से जल्द शून्य तक लाना पड़ेगा ताकि जलवायु परिवर्तन की बेढंगी चाल को रोका जा सके।
असलियत में हालात गवाही दे रहे हैं कि ग्रीन-हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए किये गए प्रयासों के बावजूद हमारे ग्रह का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन के महासचिव प्रोफ़ेसर पेटेरी तालस की मानें तो इस नये शोध के परिणाम सिर्फ़ नंबर नहीं हैं बल्कि उससे भी कहीं अधिक खतरे के संकेत हैं। ये दुनिया के लिए एक और चेतावनी है कि हमें ग्रीन-हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के अपने प्रयासों को तेज़ी से और बढ़ाना होगा और कार्बन उत्सर्जन को सामान्य स्तर तक लाना पडे़गा। यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग के जलवायु वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर एड हाकिंस ने कहा है कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, एक साल में 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा गर्म महीनों की संख्या बढ़ेगी और कुछ समय बाद हर साल यह तापमान बढ़ा हुआ ही रहेगा। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि 1.5 डिग्री सेल्सियस कोई 'जादुई नंबर' नहीं है जिससे हमें दूर रहना है। अगर इसकी तुलना साधारण जीवन से की जाये तो जलवायु परिवर्तन किसी खाई की तरह नहीं है जो एक किनारे पहुँचकर हम नीचे गिर जायेंगे, बल्कि हम एक ढलान पर हैं और जैसे-जैसे नीचे पहुँच रहे हैं, वैसे-वैसे चीज़ें हमारे लिए और ख़राब होती चली जायेंगीं। हमें बढ़ते हुए तापमान को रोकना ही होगा। हमें इस बात को पहचानने की ज़रूरत है कि जलवायु परिवर्तन का असर पूरी दुनिया में देखा जा सकता है और यह आने वाले समय में ख़राब ही होगा।
अब हालात इतने खराब हो गये हैं कि वैश्विक तापमान में दिनोंदिन हो रही बढो़तरी आने वाले दिनों में मुश्किलें और बढा़येगी। धरती पर रहने वाला हर इंसान जानता है कि यह बढो़तरी क्यों है। यह भी कि यदि धरती का तापमान वर्तमान से दो गुना और बढ़ गया तो धरती का एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो जायेगा। बीस लाख प्रजातियां हमेशा के लिए खत्म हो जायेंगी। दुनिया का बीस तीस फीसदी हिस्सा सूखे का शिकार होगा। नतीजतन एक सौ पचास करोड़ लोग प्रभावित होंगे। बाढ़ और चक्रवाती तूफानों से भारी तबाही होगी। खाद्य पदार्थों के पोषक तत्व कम हो जायेंगे। ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी, नतीजतन समुद्र का जलस्तर बढे़गा और दुनिया के कई देश डूब जायेंगे। जंगलों में आग लगने की घटनाओं में बढो़तरी का सबसे ज्यादा असर भारत समेत दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण योरोप, मध्य अमरीका और दक्षिण आस्ट्रेलिया पर पडे़गा। खतरनाक संकेत यह है कि दुनिया की अच्छी गुणवत्ता वाली खेतिहर जमीन लगातार बंजर हो रही है। यह दर मिट्टी के निर्माण से सौ गुणा अधिक है। यदि इसे नहीं रोका गया तो आने वाले समय में दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के अलावा दूसरे संसाधनों पर निर्भरता बढे़गी। आने वाले उनतीस सालों में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका को इस चुनौती का गंभीरता से सामना करना होगा। उस हालत में सन दो हजार पचास में वर्तमान की तुलना में जिस रफ्तार से आबादी बढ़ रही है, डेढ़ गुणा अधिक अनाज की जरूरत पडे़गी। इन इलाकों में सदी के अंततक तापमान पचास डिग्री के पार पहुंच जायेगा। परिणामतः यहां सदी के अंततक बेहद गर्मी पड़नी शुरू हो जायेगी। इसका असर खाद्यान्न, प्राकृतिक संसाधन और पेयजल पर पडे़गा। नतीजतन आदमी का जीना मुहाल हो जायेगा और आबादी ठंडे प्रदेशों की ओर कूंच करने को विवश होगी।
दरअसल मौसम में यह बदलाव अविश्वसनीय रूप से भयानक और दुर्लभ है। इससे निपटने का न तो सरकारों का सोच ही है और न ही यह उनकी प्राथमिकता में ही है। अब सवाल उठता है कि इसके लिए कौन जिम्मेवार है। इसका सीधा सा जबाव है प्रकृति और पर्यावरण से की गयी बेतहाशा छेड़छाड़। जाहिर है इसकी भरपायी असंभव है। कारण हमने उसका दोहन तो भरपूर किया लेकिन देने में पूरी तरह कोताही बरती। इसका निराकरण इस समस्या का जनक ही कर सकता है। वह अपनी जीवन शैली बदले और पर्यावरण केन्द्रित विकास का ऐसा दौर शुरू करे जो स्थायी भविष्य का आधार बने। इससे निश्चित ही धरती पर हो रहे बदलावों में कमी आयेगी। उसी दशा में धरती, मानव जीवन और पर्यावरण को विनाश से बचाया जा सकता है। यही आशा का ऐसा बिंदु है जो उज्ज्वल भविष्य की गारंटी दे सकता है। ऐसा किये बिना इस समस्या का निदान असंभव है। इस सम्बंध में केन्या की पर्यावरणविद और नोबल पुरस्कार से सम्मानित बंगारी मथाई ने एक समय कहा था कि सभ्य होना है तो जंगलों के साथी बनो, प्रकृति से जुडो़, उससे प्रेम करो। असल में बंगारी मथाई ने अपने कहे को जिया भी। उन्होंने लाखों पेड़ लगाये। अपने आसपास के जंगल को बरकरार रखने की भरपूर कोशिश की। असलियत में आज हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। साथ ही अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। इसको पहचानने का काम किया हिरोशिमा के मेयर और परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए मैग्सैसे से सम्मानित तादाकोशी अकाबा ने। उन्होंने कहा कि जिन शहरों में जितने पेड़ होंगे उतने ही वहां के लोग आत्मीय होंगे। इसमें दो राय नहीं कि पर्यावरण बचाने की मुहिम आज भी अनसुलझी पहेली है। दुनिया के शोध- अध्ययन इसके सबूत हैं कि हालात बहुत भयावह हैं। कोरोना काल ने यह साबित भी किया है। ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को नजरंदाज करना बहुत बडी़ भूल होगी। इसलिए अब भी चेतो। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।
गौरतलब है कि यह रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन पर नवम्बर में ग्लासगो में होने वाले सीओपी-26 सम्मेलन के पहले आई है जिसमें दुनिया के देश जलवायु परिवर्तन के खतरों से जूझने पर चर्चा करेंगे। हालात गवाह हैं कि इस दिशा में अभी तक के किये गये प्रयास नाकाम ही साबित हुए हैं। फिर भी कुछ अच्छा होगा, इसकी उम्मीद तो की ही जा सकती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं।