विशेष आलेख स्वतंत्रता के 77 सोपान की पहली कड़ी : "इतिहास सुधारने के पहले, ऐतिहासिक गलतियों को सुधारना होगा"
हम विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा ठोक रहे हैं और चंद्रमा के दरवाजे पर खड़े होकर दस्तक दे रहे हैं। हम विश्वगुरु के पद पर आसीन हैं। इतिहास का यह अमृतकाल है। सुनकर सचमुच अच्छा लगता है। लेकिन बस्तर में यहां पहुंच कर यह समझ में आने लगता है कि बहुचर्चित 'विकास' जी को इन आदिम बस्तरिया के इस टूटे फ़ूटे आंगन तक पहुंचने में अभी काफी वक्त है। विश्वगुरु की नजरे इनायत से भी ये मरहूम हैं, और 'अमृतकाल' नामक चिड़िया का तो यहां दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है।
हम विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा ठोक रहे हैं और चंद्रमा के दरवाजे पर खड़े होकर दस्तक दे रहे हैं। हम विश्वगुरु के पद पर आसीन हैं। इतिहास का यह अमृतकाल है। सुनकर सचमुच अच्छा लगता है। लेकिन बस्तर में यहां पहुंच कर यह समझ में आने लगता है कि बहुचर्चित 'विकास' जी को इन आदिम बस्तरिया के इस टूटे फ़ूटे आंगन तक पहुंचने में अभी काफी वक्त है। विश्वगुरु की नजरे इनायत से भी ये मरहूम हैं, और 'अमृतकाल' नामक चिड़िया का तो यहां दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है।
"राजधानियों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर आदिम जनजातीय समाज की जमीनी बस्तरिया हकीकत को बिना भली-भांति समझे बूझे किए त्रुटिपूर्ण सर्वेक्षण एवं उसके आधार पर जारी किए गए एक अपवित्र शासकीय ज्ञापन 'नोटिफिकेशन ने एक पूरे समुदाय की किस्मत बदल कर नरक बना दिया। आज इनके पास ना तो खेती की जमीन है, और ना ही जल जंगल जमीन का इनका शाश्वत नैसर्गिक अधिकार, ना सामाजिक प्रतिष्ठा बची है, और ना ही कोई आर्थिक आधार। "
देश हाल में ही 77-वां गौरवशाली स्वतंत्रता-दिवस मना कर हटा है।आज हम विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा ठोक रहे हैं, और चंद्रमा के दरवाजे पर खड़े होकर दस्तक दे रहे हैं। हम विश्वगुरु के पद पर स्वस्थापित आसीन हो ही चुके हैं। यह इतिहास का अमृतकाल चल रहा है, सुनकर सचमुच बहुत अच्छा लग रहा है। अच्छा लगना भी चाहिए। वैसे भी बिलावजह देशद्रोहियों में अपनी गणना भला कौन कराना चाहेगा।
यह स्थापित तथ्य है कि किसी सांकल की मजबूती का आकलन सबसे कमजोर कड़ी की मजबूती से किया जाता है। हमारे देश-समाज की सबसे कमजोर कड़ियों में से एक महत्वपूर्ण कड़ी की आर्थिक-सामाजिक मजबूती का आकलन करने के लिए इस 77-वीं "स्वतंत्रता-दिवस" की पूर्व संध्या पर इस बार मैं वहां पहुंचा ... जहां अब तक 'आजादी' डरते-झिझकते, दबे पांव खरामा खरामा ही पहुंचती रही है...और यहां पहुंच कर मुझे यह समझ में आने लगा कि बहुचर्चित माननीय 'विकास' जी को मेरे इन आदिम बस्तरिया साथियों के इस टूटे फ़ूटे आंगन तक पहुंचने में अभी भी काफी वक्त है। विश्व गुरु की नजरे इनायत से ये बेचारे अभी भी मरहूम हैं। और अमृतकाल नामक चिड़िया का तो यहां दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है। यह जगह है, छत्तीसगढ़ के बस्तर के घनघोर जंगलों के बीच का एक छोटा सा गांव 'कोटगांव'। यह गांव संभवतः नारायणपुर जिले में पड़ता है, या हो सकता है कोंडागांव जिले में आता हो, पर जिला कौन सा है इससे इन बेचारों के हालातों पर भला क्या फर्क पड़ता है और मुझे भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था ,सो मैंने ज्यादा पूछा भी नहीं? मेरे ये साथी परिवार प्राचीनकाल के 'दंडकारण्य नामक अभिशप्त वन क्षेत्र, रियासत कालीन बस्तर स्टेट, और आजादी के बाद बने बस्तर जिले से 2011 में अलग होकर बने नक्सल प्रभावित जिला कोंडागांव तथा नारायणपुर जिले के उन मूल निवासियों में से हैं, जिनके पूर्वजों ने हजारों साल पहले बस्तर की लोहे की पहाड़ियों से लुआ पखना (लौह पत्थर) तोड़ कर,लाकर सरगी लकड़ी के कोयले की भट्ठी में गलाकर इस धरती पर सबसे पहले लोहा बनाया था, टाटा से भी पहले और अन्य उन सभी से पहले,जो इस बात का दावा करते हैं। इनका रहन सहन, बोली-भाषा ,देवी-देवता, तिथि-त्योहार ,शादी-विवाह जीवन-मरण संस्कार, गीत-संगीत ,नृत्य, बाजे, खानपान, कपड़ा-लत्ता, घर की बनावट सब कुछ अन्य सहजीवी आदिवासियों की भांति ही है, क्योंकि यह उन्हीं में से एक रहे हैं हमेशा से,,, सदियों सदियों से। यहां तक कि इनके कुल गोत्र, टोटम सभी अन्य सहजीवी आदिवासियों की भांति ही है। इनके बुजुर्गों ने विस्तार से बताया कि ये भी पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानीय जनजातीय समुदायों के देवी देवताओं,पेन पुजारी,तथा 'बूढ़ा-देव' को ही मानते आए हैं और उन्ही की पूजा आराधना भी करते हैं ( मौके पर की गई रिकार्डिंग मौजूद )। ये स्थानीय भाषा में वाडे, लौरा कहलाते हैं। यहां उपस्थित लगभग 50 परिवारों के टोटम कुल गोत्र नाम (सरनेम) नेताम, सोड़ी, सलाम मरकाम, बघेल,पटावी कहीं किसी भी स्तर पर कोई भेद नहीं दिखाई देता। हम साथ साथ इन जंगल पहाड़ों में पीढ़ी दर पीढ़ी रहते आए हैं, हमारे कहीं और से आने का कहीं कोई इतिहास नहीं है।
किंतु आजादी के उपरांत त्रुटिपूर्ण, हवा-हवाई, तथ्यहीन विधिक सर्वेक्षण की अक्षम्य गलती के कारण इन्हें आदिवासियों से विलग मान लिया गया और इस सरकारी गलती की अंतहीन कठोर सजा पिछले लगभग 70 सालों से यह समुदाय भुगत रहा है।
यह समझने वाली बात है कि कैसे राजधानियों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर आदिम जनजातीय समाज की जमीनी बस्तरिया हकीकत को बिना भली-भांति समझे-बूझे किए त्रुटिपूर्ण सर्वेक्षण एवं उसके आधार पर जारी किए गए एक अपवित्र शासकीय ज्ञापन 'नोटिफिकेशन ने एक पूरे समुदाय की किस्मत बदल कर नरक बना दिया,आज इनके पास ना तो खेती की जमीन है और ना ही जल जंगल जमीन का इनका शाश्वत नैसर्गिक अधिकार, ना सामाजिक प्रतिष्ठा बची है, और ना ही कोई आर्थिक आधार ।। "
सरकारी कार्यालयों और योजनाओं में जब इन्हें आदिवासियों से अलग पिछड़े वर्ग में वर्गीकृत कर अलग कर दिया गया, तो परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे आदिवासी समाज ने भी सरकारी आदेशों के अनुरूप इन्हें अपनों से अलग इकाई मानने लगा। इस पक्षपातपूर्ण वर्गीकरण से कभी गांव के किसानों के कृषि औजार, घरेलू औजार, शिकार-पारद के तथा स्थानीय देवी देवताओं के अस्त्र-शस्त्र,निशान बनाने वाले गांव व के महत्वपूर्ण अंग समझे जाने वाले इस समुदाय की स्थानीय सामाजिक स्थिति में पिछले 70 वर्षों में बहुत ज्यादा गिरावट आई है। बड़े आश्चर्य का विषय है कि आग में तपाकर लोहे का कार्य करने वाले अघरिया लोहार समुदाय को इसी छत्तीसगढ़ के सरगुजा में आदिवासी माना जाता है तथा छत्तीसगढ़ के पितृ राज्य मध्यप्रदेश में भी इन्हें आदिवासी माना जाता है, किंतु देश के सबसे पिछड़े और आदिम जनजातीय क्षेत्र बस्तर के मूल आदिम निवासी लौह कला के जनक इस छोटे से समुदाय को पिछड़ा वर्ग में दर्ज कर आदिम निवासी के सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। इस अतार्किक,अनैतिक, अवैधानिक कृत्य के पीछे पीछे वोट आधारित राजनीतिक षड्यंत्र एवं दुरभसंधि से इनकार नहीं किया जा सकता। कारण चाहे कुछ भी हो किंतु वर्तमान में अपने पुरखों की जल जंगल जमीन के नैसर्गिक अधिक अधिकारों से वंचित होकर एवं सरकारी अनुदानों एवं आरक्षण से मरहूम होकर आज ये दर-दर को भटकने को बाध्य हो गए हैं। सर्वव्यापी वैश्विक बाजारवाद के चलते कल-कारखानों की बनाई गई कुल्हाड़ी, फावड़े ,गैंती , छुरी व सभी जरूरी कृषि औजार अब इनके द्वारा कठोर श्रम करके,भट्टी में अपने आप को तपाकर इनके हाथों से बनाए गए बनाए गए कृषि-औजारों की तुलना में काफी सस्ते पड़ते हैं। ऊपर से अभिलेख कोयला और लोहा दोनों बाजार से खरीदना पड़ता है। इन सभी कारणों से इनका लोहे का कार्य भी पिछले कई दशकों से लगातार कम होते होते अब लगभग समाप्त प्रायः हो चला है। इससे गांवों की आर्थिक संरचना में भी अंतिम पायदान पर धकेल दिए गए इनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति में गिरावट का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है। स्थानीय छात्रावासों में भी इन के बच्चों के लिए जगह नहीं होती।
इनके कुछेक परिवार लौह शिल्प कला की ओर उन्मुख हुए हैं और किसी तरह परंपरागत जीवन यापन करने की कोशिश कर रहे हैं। कई परिवार गांव से निकलकर शहरों में पेंट शर्ट धारी हो गए हैं, और छोटे-मोटे काम करके मेहनत मजदूरी करके किसी तरह अपनी जीवन की गाड़ी को घसीट रहे हैं। इस समुदाय के जो बचे खुचे परिवार आज भी गांवों में रह रहे हैं वो दरअसल स्थानीय जनजातीय समाज की सदाशयता, उनकी मदद और सदियों साथ रहने से उत्पन्न सहजीविता,सामंजस्य व सहृदयता के कारण ही बचे हुए हैं। इतिहास सुधारने के इस नए दौर में इस समुदाय के प्रति की गई इस गंभीर कानूनी त्रुटि को भी अब जल्द से जल्द सुधार लिया जाना चाहिए।
दरअसल इस समुदाय की समस्याओं का अंत ही नहीं है।अशिक्षा, निराशा और शराब खोरी अन्य वंचित समुदायों की तरह इस समुदाय की भी एक बड़ी समस्या बन गई है। ये आज भी बेहद सीधे और भोले भाले हैं। मैंने इनके साथ काफी वक्त बिताया है। इनके परिवारों, रिश्तेदारियों व इनके पूर्वजों का इतिहास तथा और भी ढेर सारी बातें की।
इनके भोलेपन का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ढलती शाम में जब मैं इन से विदा होने लगा तो इन परिवारों की दयनीय दशा को देखकर मेरा मन काफी खराब हो चला था। जब मैंने वापस जाने की इजाजत मांगी तो फोटो में मेरे साथ दिख रहे ये दोनों बुजुर्ग जिनका नाम बुद्धू नेताम तथा बुद्धसन नेताम है, लपक कर मेरे पास आए और बड़े भाई ने बड़े अधिकार पूर्वक मुझसे कहा कि अब तक आप हमारे काफी फोटो खींच चुके हो और हमसे ढेर सारी बातें भी है, तो आप यहां से रवानगी डालने से पहले हमें शराब पीने के लिए कुछ पैसे देते जाइए । मैं हक्का-बक्का रह गया। मैं कुछ जवाब देता इससे पहले छोटे भाई ने एक बार मेरी गाड़ी की ओर भरपूर नजर से देखा और फिर सीधे मेरी आंखों में झांकते हुए कहा , और हां जब दे ही रहे हो तो पैसे कुछ ज्यादा ही दीजिएगा क्योंकि कल झंडेवाला त्यौहार है,, और आखिर कल हमें भी तो झंडा त्योहार मनाना है। और बिना शराब के त्यौहार कैसा? मैं कुछ पल तक उन दोनों भाइयों को देखता रहा, शरीर पर लंगोटी के अलावा कोई कपड़ा नहीं, मिट्टी खपरैल का टूटा फूटा घर, घर के एक किनारे लटका हुआ बिजली का लट्टू, जाने क्यों मुझे मुंशी प्रेमचंद के घीसू-माधव की याद आ गई। सचमुच इनका इतना भोलापन भी ठीक नहीं है। सदा की तरह आज भी मेरे जेब में नगदी नदारद थी मैंने साथी तीजू भाई से कुछ पैसे लेकर उन्हें दिए उनकी आंखों में खुशी की चमक देखकर मुझे सचमुच अच्छा लगा।
यह तो तय रहा कि कल यह दोनों भाई निश्चित रूप से देश का 77 वां स्वतंत्रता दिवस यानी कि झंडा तिहार (हल्बी), अथवा झंडा-पंडुम (गोंडी) अपने तरीके से मनाएंगे। आपको शायद इस बात पर यकीन ना हो, पर कड़वी हकीकत यही है कि हमारे ज्यादातर गांवों में अधिकांश लोगों को 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस और 26 जनवरी गणतंत्र-दिवस के त्योहारों का अर्थ व अंतर कुछ भी पता नहीं है। हमारे यहां के लोगों के लिए तो दोनों ही पर्व बस झंडा-तिहार (हल्बी), या झंडा-पंडुम (गोंडी) ही हैं।
आपने हमने तो स्वतंत्रता-दिवस धूमधाम से मना लिया, लेकिन हमारे इन आदिम पुरखों के इस बचे खुचे समुदाय के लिए तो असल स्वतंत्रता और अमृतकाल तो तभी आएगा जब इन्हें इनका छीना गया वाजिब हक तथा सम्मान वापस इन्हें मिल पाएगा। इसके लिए इनके ऊपर एक विस्तृत जमीनी रिपोर्ट, मय प्रमाण एवं साक्ष्यों के साथ तैयार कर रहा हूं ,ताकि इनके साथ जरूरी न्याय हो पाए। क्योंकि मुझे पूरा यकीन है कि इनके साथ न्याय होगा। क्योंकि मैं आज भी आशावादी हूं । क्योंकि बचपन में मेरे प्राथमिक स्कूल 'ककनार' की मिट्टी की दीवाल पर लिखी गई कहावत 'अंततः सच्चाई की जीत होती है' मुझे आज भी न केवल याद है, बल्कि इसपर आज भी पक्का यकीन है।
लेखक डॉ राजाराम त्रिपाठी जनजातीय शोध एवं कल्याण संस्थान, छत्तीसगढ़ एवं स्पेशल कवरेज न्यूज के सलाहकार संपादक है