रेवड़ी के अर्थशास्त्र की राजनीति यानी एंटायर पॉलिटिकल साइंस

दिल्ली सरकार की मुफ्त बिजली के मुकाबले फोटो और प्रचार वाले झोले में राशन बांटा जा रहा है तथा नमक की कीमत लेने देने की खबर और उसका विज्ञापन अथवा प्रचार सब हो चुका है।

Update: 2022-08-04 05:04 GMT

संजय कुमार सिंह 

इंडियन एक्सप्रेस में आज पहले पन्ने पर एक शीर्षक के जरिए पूछा गया है, रेवड़ी की बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? अखबार के संवाददाता पी वैद्यनाथन अय्यर ने चुनाव आयोग से लेकर नीति (वैसे यह अंग्रेजी का एनआईटीआई यानी निति है, हिन्दी में नकली नीति) आयोग, वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक तथा सीएजी से पूछा, हाथ क्यों बंधे हुए हैं। अखबार ने लिखा है कि मुख्य रूप से इसके तीन कारण हैं। पहला तो यही कि केंद्र और राज्य दोनों रेवड़ी बांटने में उदार रहे हैं। आप जानते हैं कि रेवड़ी का मामला हाल में प्रधानमंत्री ने ही उठाया है। दूसरी ओर, दिल्ली सरकार की मुफ्त बिजली के मुकाबले फोटो और प्रचार वाले झोले में राशन बांटा जा रहा है तथा नमक की कीमत लेने देने की खबर और उसका विज्ञापन अथवा प्रचार सब हो चुका है।

अखबार ने लिखा है हाथ बंधे होने का दूसरा कारण है, मौजूदा कानून और जनादेश किसी को भी इस मामले में दखलअंदाजी करने की अनुमति नहीं देते हैं और जब रेवड़ी बांट कर वोट लेने की होड़ लगी है तो केंद्र सरकार जानती है कि कोई भी एकतरफा प्रतिबंध राज्यों के नेताओं को यह कहने का मौका देगा कि वे जनता के लिए अच्छा काम नहीं कर सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि इसीलिए इसे मुद्दा बनाया गया है। एक तरफ फ्री का खाना बांटने का प्रचार और दूसरी ओर रेवड़ी की चिन्ता दोनों एक ही पार्टी या सरकार कर रही है। पार्टी से मेरा मतलब दल नहीं पक्ष है। इस तरह, माहौल ऐसा बना है या बनाया जा रहा है कि केंद्र सरकार जो मुफ्त में दे वह जरूरी और डबल इंजन वाले रा्ज्यों में डबल प्रचार। विपक्षी राज्य कुछ मुफ्त दे तो प्रचार किया जाए कि वोट के लिए है। सरकारी पैसे मुफ्त बांटने में उड़ाए जा रहे हैं आदि।

इंडियन एक्सप्रेस की इस लंबी सी खबर में और बातों के अलावा यह भी बताया गया है कि सरकार द्वारा मुफ्त बांटी जा रही रेवड़ियों में सबसे बड़ा है, समाज के बड़े वर्ग को मुफ्त बिजली। 31 मई 2022 की स्थिति के अनुसार विद्युत उत्पादन कंपनियों का जो पैसा राज्यों की वितरण कंपनियों के पास बकाया था वह 1.01 लाख करोड़ रुपए है और राज्य सरकारों को विद्युत वितरण कंपनियों को 62931 करोड़ रुपए देने हैं। वितरण कंपनियों को राज्यों से सबसिडी के रूप में 76337 करोड़ रुपए देने हैं। यहां उल्लेखनीय है कि पहले बिजली राज्यों में विद्युत आपूर्ति का बुरा हाल होता था, चोरी भी खूब होती थी और भ्रष्टाचार के मामले छोड़ दिए जाएं तो ज्यादातर गरीब कंटिया डालकर मुफ्त की बिजली जलाते थे।

दिल्ली में जब अरविन्द केजरीवाल की सरकार भाजपा या विपक्ष की बी टीम के रूप में अन्ना हजारे के बनाए माहौल में आंदोलन कर रही थी तो गरीबों के लिए बिजली अचानक महंगी हो गई थी क्योंकि निजी कंपनियों ने काम शुरू कर दिया था और चोरी रुक गई थी। केजरीवाल ने मौके का फायदा उठाया और चोरी की बिजली जलाने वाले वर्ग के ज्यादातर लोगों के सात गरीबों और छोटे उपभोक्ताओं के लिए बिजली मुफ्त कर दी। दूसरे शब्दों में इसका पैसा दिल्ली सरकार देती है। इसमें कुछ छिपा नहीं है पर राजनीति अच्छी है। और बुजुर्ग रेल यात्रियों को मिलने वाली छूट बंद करने वाली सरकार के लिए मुफ्त की बिजली महंगी पड़ रही है क्योंकि इसके लाभ बहुत हैं, पूरे परिवार को हैं। परेशानी का कारण यही है और समस्या यह है कि मुफ्त राशन का वो प्रभाव नहीं है (या महसूस किया जा रहा है) जो मुफ्त बिजली का है।

अखबार ने लिखा भी है कि कुछ राज्य प्रधानमंत्री के नजरिये को राजनीतिक मानते हैं न कि आर्थिक। अखबार ने तमिलनाडु के वित्त मंत्री के हवाले से लिखा है कि सबसे पहले नरेन्द्र मोदी ने ही कामकाजी महिलाओं को 25,000 रुपए स्कूटर की आधी कीमत के रूप में देने की शुरुआत की थी। क्या यह रेवड़ी नहीं है। क्या यह पाखंड नहीं लगता है। वैसे तमिलनाडु सरकार की इस एमके स्टालिन के नेतृत्व वाली सरकार ने अगस्त 2021 में खत्म कर दिया था। वैसे केंद्र की चिन्ता राज्यों की आर्थिक स्थिति को लेकर है और अखबार ने लिखा है कि यह निराधार नहीं है। पर सवाल उठता है कि पिछड़ा बिहार तो पिछड़ा ही है गुजरात या केरल से आगे कहां निकल पाया है। और वहां पैसे की चिन्ता होती तो शराबबंदी की जाती? हालांकि यह अलग मुद्दा है। लेकिन तथ्य यही है कि राज्य सरकारें कर्ज ले रही है तो केंद्र सरकार सब कुछ बेचे जा रही है।

यह अलग बात है कि केंद्र सरकार कैसे पैसे बर्बाद कर रही है, कहां छूट दे रही है और कहां टैक्स ले रही है, क्या, क्यों, किसे, किसलिए, कैसे बेच रही है इस सब पर चिन्ता किए बिना राज्यों की चिन्ता करना भी सरकार और प्रधानमंत्री का ही काम है। बेशक प्राथमिकताएं भी उनकी ही होनी है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर कमेटी बनाने की आवश्यकता बताई है और उपाय सुझाने के लिए कहे हैं। मुझे लगता है केंद्र सरकार जो चाहती है वही होगा और उसमें ना कोई बाधा पड़नी है ना बदलाव आना है। मेरा मानना है कि सरकार की 'तपस्या' किसानों के मामले में अगर एक साल चल सकती है, डाटा प्रोटेक्शन बिल के मामले में पांच साल, नोटबंदी और जीएसटी जैसी मनमानी के साथ और ईडी और सीबीआई का खुला दुरुपयोग हो सकता है तो उसे मन की बात करने से कोई नहीं रोक सकता है। ईवीएम पर यू टर्न के बाद तो लगता है कि जनता भी रोक सकेगी या नहीं उसपर विचार ज्यादा जरूरी है। लेकिन जो मुद्दे छूटे हुए हैं उनके आलोक में भविष्य के इस मुद्दे पर भी क्या कुछ हो सकता है।

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