हिमालय को मंज़ूर नहीं ये नूराकुश्ती
ऐसा देश में पहली बार हो रहा है कि पर्यावरण प्रेमी प्रकृति से छेड़-छाड़ वाले क्रूर और हिंसक अभियानों का विरोध करने से इस वजह से डरने लगे कि कहीं उन्हें राष्ट्रद्रोही न ठहरा दिया जाय।
चमोली ज़िले के जिस रैणी गाँव में बीते इतवार की सुबह पर्यावरण की भीषण तबाही बरपा हुई, यह वही क्षेत्र है जहाँ 1970 के दशक में देश के पहले पर्यावरण संरक्षण अभियान-'चिपको आंदोलन' का आगाज़ हुआ था। हिमालय के लिए इससे बड़ा सदमा और क्या होगा कि जिस अंचल के जनमानस ने कभी अपने यहाँ पर्यावरण चेतना की अलख जगाई थी, उसी की 'जोत' ने 4 दशक बाद हिमखंड को जला कर भस्म कर डाला। इतवार की त्रासदी न गर्मी में तापमान बढ़ जाने का संकट था, न बारिश भरे घटाटोप बादलों का कहर। ग्लेशियर फूट पड़ने से ऋषि गंगा नदी में जो बाढ़ उपजी और जिसने धौलीगंगा और अलकनंदा नदियों तक बर्बादी के जैसे भयानक अंश छोड़े वह वह और कुछ नहीं, पर्यावरण के साथ इंसानी छेड़छाड़ का प्राकृतिक भुगतान है।
गाँव के निचले इलाके में बहती ऋषिगंगा नदी पर 13.12 मेगावॉट की 'ऋषिगंगा हाइड्रोपावर परियोजना' का निर्माण चल रहा था। यह एक निजी क्षेत्र की परियोजना थी। इस परियोजना को खतरनाक मानते हुए परियोजना के विरुद्ध स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा न्यायलय में एक 'जनहित याचिका' दायर की गयी थी जिसे ख़ारिज कर दिया गया। नदी के साथ पानी का सैलाब तेज़ी से नीचे उतरा और उसने इस परियोजना और रैणी गाँव को जोड़ने वाले पुल को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद अगला नम्बर धौलीगंगा पर बन रही 520 मेगावॉट की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना का था। गरजता सैलाब एनटीपीसी की इस विशाल परियोजना से टकराया और उसे भी तबाह करता आगे बढ़ गया। पेरिस समझौते के तहत सन 2050 तक वैश्विक तापमान को 2 डिग्री तक घटाए जाने की बात जिन तमाम देशों पर लागू होती है, उनमें भारत भी शामिल है। इसके लिए 'कार्बन फुटप्रिंट' को क्षीण किया जाना बेहद आवश्यक है। हालाँकि अपने देश में जब हम अमल में देखते हैं तो यह खानापूरी से ज़्यादा कुछ नहीं दिखता। दुखद पहलू यह है कि इसमें सबसे अधिक ज़िम्मेवार केंद्र और राज्य सरकारें हैं।
2013 में केदारनाथ और 2014 में कश्मीर में बाढ़ से भीषण हुई तबाही के बाद हुए अध्ययनों में यह चेतावनी खुल कर सामने आई थी अगर पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से अतार्किक छेड़छाड़ या उसके दोहन पर रोक नहीं लगाई गई तो नतीजे भयावह होंगे। 2013 के विनाश के बाद इसके अध्ययन के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी गठित की थी उसने अपने निष्कर्षों में खुल कर ऊंचाई वाले हिमालयी इलाक़ों में निर्माणाधीन प्रत्येक प्रकार की जल विद्युत परियोजनाओं को तत्काल प्रभाव से रोके जाने का प्रस्ताव दिया था। उसके इन प्रस्तावों को आधार मानकर सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसी परियोजनाओं में हाथ न डालने का सुझाव केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को दिया लेकिन इनकी हमेशा अनदेखी हुई। नतीजे सामने हैं। कुछ साल पहले पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग से जुड़े वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी दी थी कि पहाड़ों और नदियों से छेड़छाड़ का सिलसिला रोका नहीं गया तो आने वाले समय में समूचे उत्तर भारत में भीषण तबाही मचाने वाला भूकंप आ सकता है।
फिर क्या वजह है इन सभी चेतावनियों के बावजूद न तो केंद्र सरकार चेत रही है न सम्बंधित राज्य सरकारें। ज़ाहिर है विकास के नाम पर होने वाले इन निर्माण कार्यों में राजनेताओं, अधिकारियों और इंजीनियरों से लेकर ठेकेदारों तक-सभी की जम कर स्वार्थ साधना होती है। जब सरकारी चेतना का यह हाल है तो साधारण इंसान से जागरूकता की क्या उम्मीद की जाय।
कच्ची चट्टानें काट कर मध्य हिमालयी भूभाग में बनाये जा रहे विशाल बांध तो भस्मासुर की मुद्रा में रोपे जा ही रहे हैं, पूरी ताक़त से जारी चारों धाम को जोड़ने जोड़ने वाला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट भी भविष्य की विनाशलीला की कहानी रच रहा है। चार हिंदू तीर्थों- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में चौड़ी और हर मौसम में खुली रहने वाली आठ लेन की सड़क से जोड़ने वाला प्रोजेक्ट 'ऑल वेदर रोड परियोजना' है। 'नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल' की धमकियों से बेअसर इस परियोजना के काम की तेज़ी और मशीनों का भारी शोर हिमालय के कान फाड़ रहा है। इस परियोजना के तहत बड़ी ही बेशर्मी से जंगल और पहाड़ों को सफाचट करने का सिलसिला जारी है। कब यह प्रकृति की विभीषिका बनेगी, कोई नहीं जनता। पर्यावरणवादियों का कहना है कि इस प्रोजेक्ट का विरोध करने पर उन्हें 'धर्म विरोधी' और 'राष्ट्रद्रोही' होने के लांछनों को झेलना पड़ रहा है। ऐसा देश में पहली बार हो रहा है कि पर्यावरण प्रेमी प्रकृति से छेड़-छाड़ वाले क्रूर और हिंसक अभियानों का विरोध करने से इस वजह से डरने लगे कि कहीं उन्हें राष्ट्रद्रोही न ठहरा दिया जाय।
चमोली की तबाही सिर्फ़ पहाड़ पर रहने वाले उत्तराखंडियों की तबाही नहीं है। यह तबाही मैदानी क्षेत्र में बसे लोगों के बीच भी एक डरावना सन्देश परोसती है। यह तबाही बताती है कि यदि उन्हें अपनी तथा अपनी आने पीढ़ियों और उनके पर्यावास को बचाना है, यदि उन्हें क्षेत्रीय प्राणिजात और वनस्पतिजात (फ़्लोरा एंड फ़ोना) की रक्षा करनी है तो उन्हें सरकारी भरोसे से मुक्त होकर एक नए 'चिपको' का श्रीगणेश करना होगा। रोते और आंसू बहाते हिमालय की यही पुकार है। क़ुदरत के साथ और ज़्यादा नूराकुश्ती उसे मंज़ूर नहीं।
(*लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)