जब नीति आयोग की बैठक में किसान नेता उगाराहा को लेकर मंत्री से भिड़े थे डॉ राजाराम त्रिपाठी

Update: 2021-03-14 10:57 GMT

नीति आयोग की इस बैठक पर छत्तीसगढ़ के बस्तर से डां राजाराम त्रिपाठी, जो कि "अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)" के राष्ट्रीय संयोजक भी हैं, को भी आमंत्रित किया गया था। बैठक में उपस्थित किसान प्रतिनिधियों के साथ कृषि मंत्री जी के इस अपमानजनक रवैये का राजाराम त्रिपाठी ने विरोध करते हुए भरी मीटिंग में माननीय कृषि मंत्री को अपना रवैया तत्काल सुधारने हेतु चेतावनी देते हुए कहा कि आप केवल सरकारी राग सुनाने के बजाय पहले दूर दराज से आए किसानों व किसान प्रतिनिधियों की बात को ध्यान से सुनें।

इसी बैठक में आगे डां त्रिपाठी ने नई कृषि नीति के प्रस्तावित प्रावधानों से अपनी असहमति दर्ज कराते हुए इन नए प्रावधानों का प्रबल विरोध किया। आखिरकार डॉ त्रिपाठी मीटिंग समाप्ति के पूर्व ही नीतिआयोग,कार्पोरेट्स व सरकार की चल रही जुगलबंदी से नाराज होकर बैठक का बहिष्कार करते हुए ,बैठक से उठकर चले गए। चूंकि नीति आयोग की बैठकें भली-भांति रिकॉर्ड की जाती हैं, अतएव इस पूरे वाकए को आज भी जांचा परखा जा सकता है।

इस मीटिंग से बाहर निकलते ही डॉक्टर त्रिपाठी ने इस मीटिंग के घटनाक्रम पर अपनी निराशा को व्यक्त करते हुए,, फेसबुक पर नीति आयोग के सामने अपनी फोटो तथा नीति आयोग पर टिप्पणी पर भी दर्ज की थी ,जिसे सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है। इसी घटना का खुलासा आज एक पत्रकार ने किया जिसका विरोध डॉ राजाराम त्रिपाठी सरेआम मंत्री के सामने किया था..

इस पूरे मामले पर देश के जाने माने पत्रकार अभय दुबे के एक लेख लिखा है. जिसमे उन्होंने लिखा कि हाल ही में पंजाब के बुजुर्ग किसान नेता जोगेंद्र सिंह उगराहा द्वारा मिली-जुली पंजाबी-हिंदी में दिया गया एक भाषण सुनने को मिला. यह हर पत्रकार को सुनना चाहिए. दरअसल जगरांव की भीड़-भरी किसान महापंचायत में दिया गया यह भाषण उस भीतरी कहानी को बयान करता है जो केंद्र सरकार द्वारा संसद में पारित कराए गए तीनों विवादास्पद कानूनों से जुड़ी हुई है. किसी भी सरकारी प्रवक्ता या किसी भी भाजपा प्रवक्ता ने आज तक राजोवाल द्वारा इस भाषण में कही गई बातों का खंडन नहीं किया है. इससे समझा जा सकता है कि या तो सरकार राजोवाल की बातों का महत्व नहीं समझ रही है, या फिर उगराहा द्वारा पेश किए गए तथ्यों को सच मानती है और इसीलिए उनका खंडन करने का साहस नहीं जुटा पा रही है.

उगराहा ने अपनी बात अक्तूबर, 2017 यानी तीन किसान कानूनों को अध्यादेश की शक्ल में पेश करने से तकरीबन ढाई साल पहले से शुरू की. उन्होंने बताया कि इस महीने केंद्र सरकार ने एनआईटीआई आयोग में एक बड़ी बैठक आयोजित की जिसमें भाग लेने का न्योता उन्हें भी मिला. उनके साथ राजस्थान और महाराष्ट्र के किसान नेता भी थे. इस बैठक में सरकारी अफसरों, सरकारी अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ निजी कंपनियों के सीईओ स्तर के प्रतिनिधि भी भाग ले रहे थे. चर्चा का विषय था खेती का संकट. बातचीत शुरू हुई तो एक सरकारी अर्थशास्त्री ने खड़े हो कर कहा कि अगर कृषि-क्षेत्र के संकट से पार पाना है तो निजी क्षेत्र को उसमें पूंजी निवेश करना होगा. इसके बाद एक निजी कंपनी के सीईओ ने खड़े हो कर कहा कि वे निवेश करने के लिए तैयार हैं, लेकिन उनकी कुछ शर्ते हैं. उनकी शर्ते मुख्य रूप से तीन थीं. पहली, सरकार पांच-पांच, सात-सात हजार एकड़ के विशाल रकबे वाली जमीनें बना कर उन्हें दे. दूसरी, उस जमीन पर खेती करने का ठेका पचास साल तक (यानी तीन पुश्तों तक) तय कर दिया जाए. तीसरी, किसान इस बंदोबस्त में कोई दखल न दें और उस जमीन पर मजदूर की तरह काम करें. बैठक चलती रही-चलती रही. जो भी वक्ता उठता था, इसी से मिलती-जुलती बात करता था. लेकिन न राजोवाल को बोलने का मौका मिला, न रामपाल जाट को. उनसे कहा गया कि धीरज रखिये, उनकी बात भी सुनी जाएगी. इस तरह मीटिंग खत्म होने में आधा घंटा रह गया.

अपनी बात कहने का समय न मिलता देख राजोवाल ने अपनी खास शैली में घोर आपत्ति दर्ज कराई. फिर बैठक को दो घंटे और चलाया गया जिसमें किसान नेताओं को भी बोलने का मौका मिला. उगराहा ने कहा कि पंजाब और हरियाणा के जाटों की सभ्यता-संस्कृति एक जैसी ही है. वे मुख्यत: जमींदार या भूमिधर किसान हैं. भले ही कोई अपनी जमीन बेच दे, फिर भी वह अपना परिचय जमींदार के बेटे के तौर पर ही देता है. शादी के रिश्ते की बात में पहला सवाल यही पूछा जाता है कि आपके पास कितनी जमीन है. ऐसे जाट समाज को खेती का यह कॉर्पोरेट बंदोबस्त रास नहीं आएगा. राजोवाल ने स्पष्ट रूप से कहा कि सरकार ने कोई भी गलत कदम उठाया तो कोई किसान नहीं मानेगा, भले ही उसके पास कम जमीन हो या ज्यादा. वह हरियाणा और पंजाब के किसानों को कंट्रोल नहीं कर पाएगी. राजोवाल का मानना है कि उनकी इस बात का सरकार और मीटिंग के अन्य भागीदारों पर असर पड़ा.

उगराहा के मुताबिक इस बैठक के बाद सरकार चुपचाप पेशबंदी करती रही. उन्हें भी शक हो गया था, इसलिए वे भी चुपचाप कागज-पत्तर जमा करते रहे. इस बीच उन्हें प्रधानमंत्री दफ्तर द्वारा राज्य सरकारों को भेजा गया एक पत्र भी मिला जिसमें गेहूं की खरीद न करने की बात कही गई थी. इस पत्र को पढ़ने के बाद राजोवाल का शक गहरा गया. उन्होंने और दस्तावेज जमा किए, और 17 फरवरी को सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को जमा करके इस समस्या पर एक सेमिनार जैसा किया. इसमें उन्होंने सारे दस्तावेजों की प्रतियां राजनीतिक नेताओं को दीं. इस सेमिनार में कांग्रेस के सुनील जाखड़ ने मेज पर हाथ मार कर कहा- एमएसपी (न्यूनतम खरीद मूल्य) गई, एमएसपी गई, एमएसपी गई.

उगराहा का कहना है कि सरकार इस आंदोलन को पंजाब-हरियाणा के किसानों तक सीमित मानती है. दरअसल, वह इन प्रांतों के बेहतरीन मंडी सिस्टम को तोड़ देना चाहती है. इसके खत्म होने के बाद कृषि को कॉर्पोरेट सेक्टर में देने के विरोध की संभावना ही पूरी तरह से खत्म हो जाएगी. उन्होंने किसान नेताओं और सरकार के बीच हुई 11 दौर की बातचीत के कुछ दिलचस्प पहलू भी जगरांव की महापंचायत में बयान किए. उन्होंने बताया कि सरकार ने तीनों कानूनों पर 'क्लॉज-दर-क्लॉज' चर्चा करने के लिए कहा. किसान नेता तैयार हो गए, और उन्होंने 'क्लॉज-दर-क्लॉज' कानूनों की कमियां बतानी शुरू कीं. सरकारी पक्ष हर कमी को नोट करता था, और कहता कि इसे संशोधन करके ठीक कर देंगे. जब कमियां बहुत ज्यादा हो गईं तो किसान नेताओं ने कहा कि इतने संशोधन करके क्या होगा, क्यों नहीं कानून ही रद्द कर देते. इस पर सरकार तैयार नहीं हुई. उसका कहना था कि संशोधन जितने चाहे करवा लो, लेकिन कानून वापसी की बात न करो 

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