नरेंद्र मोदी सरकार को 2024 में 2029 में भी जीतना क्यों है जरूरी?
नरेंद्र मोदी साहब की सरकार को 2024 में जीतना जरूरी है।
नरेंद्र मोदी सरकार को 2024 में जीतना जरूरी है और 2029 में भी। दरअसल कम से कम 20 साल का कार्यकाल मिलना अनिवार्य है ताकि भारत आने वाली पीढियां, विचारधाराओं के नतीजो की तुलना कर सके। क्योकि कोई भी थ्योरी जब तक क्रियान्वयन की कसौटी पर कसकर, क्रिया प्रतिक्रिया और परिणाम तक पूर्णतया पहुंच न जाये, उसके अकांक्षीयों को एक मलाल बना रहता है।
पिछले 90 सालों से देश मे दो धाराएं चलती रही हैं। एक धारा महात्मा गांधी की चलाई हुई थी। सामाजिक तौर पर वह धारा शांति, प्रेम, भाईचारा और सहिष्णुता की धारा थी। यह विशेष तौर ओर अल्पसंख्यकों के लिए अतिरिक्त नरमी और सदाशयता पर जोर देती थी। प्रशासनिक रूप से यह पिछड़े और वंचितो के लिए अतिरिक्त सदाशयता, समाजवादी नीतियों और किसी को आतंकित न करने की नीति पर चलती थी। यह इतिहास के सुखद क्षणों को याद कर, आहत करने वाले क्षणों को भुलाने, और 15 अगस्त 1947 से आगे मिलकर कदम बढ़ाने की बात पर जोर देती थी।
दूसरी धारा इसकी प्रतिक्रियात्मक रही है। वह बहुसंख्यको का मिलिशिया तंत्र बनाकर उसकी सुप्रीमेसी कायम करने, प्राचीन गौरव के उपमानों को सामने रखकर वैसा ही एलिटिस्ट समाज बनाने, अल्पसंख्यकों सबक सिखाकर, दबाकर उनको उनके पुरखो के कर्मो की सजा देकर न्याय स्थापित करने पर जोर देती है।
लंबे समय तक सत्ता में पहली धारा रही है। उस धारा ने, सदियों से खंडित रहे इस देश मे लोकतंत्र, सम्विधान, व्यवस्था की पटरी बिछाने और सोसायटी के एकीकरण में चालीस साल लगा दिए। इसके बाद के तीस साल विकास और समृद्धि की ओर रहे, जिससे हिंदुस्तान दुनिया के शीर्ष देशो में शुमार होने लगा देखी। ईंट दर ईंट इस मीनार की तामीर में सत्तर साल लग गए।
दूसरी धारा इस मीनार की नींव खोदती रही। धीमे धीमे, अनवरत, अनथक.. धैर्य और परिश्रम के साथ। छोटे छोटे संगठन, सन्साधन विहीन स्कूल, समर्पित कार्यकर्ता, समाजसेवा के चोले में जो गॉवों में जाकर, आदिवासियों के बीच, फक्कड़ तिरस्कृत जीवन बिताते, बिल खोदने और विचारधारा पहुंचाने में लगे रहे। संस्कृति और इतिहास के सलेक्टिव वर्जन से एक परसेप्शन बनाते हुए। आधार तैयार करते हुए। और फिर मौका मिला।
सत्तर साल, तीन पीढ़ियों का वक्त होता है। पिछली दो पीढ़ियों ने साम्प्रदायिकता के घाव देखे, विभाजन देखा, नफरत के नतीजे देखे। आजादी खोकर शोषण से पैदा हुई अतीव गरीबी देखी। घावों को सहलाते हुए उसने निर्माण को तवज्जो दी।
तीसरी पीढ़ी ने वह नही देखा। वह अधीर है। उसे इतिहास सुधारने में ही समाधान दिखाए गए है। उसे ध्वंस में रुमानियत दिखाई देती है। उसने दूसरी धारा में बेहतर अवसर तलाशना शुरू किया। वह त्याग के लिए भी तैयार है। मरने कटने को तैयार है। उसे दूसरी धारा का फुल फ्लेजेड स्वाद लेकर देखना है। उसने इसे निष्कंटक राज दिया है।
आजाद भारत के इतिहास का कोई हिस्सा नही बताता कि अनहद नफरत और समाज का विभाजन एक स्वस्थ लोकतंत्र और सफल देश को किस कदर बर्बाद कर सकता है। हमे उस प्रयोग का फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस होना जरूरी है। जब तक शरीर बीमार न हो, अच्छे स्वास्थ्य की कीमत समझ नही आती। जब तक मौत सर पर न नाचे, जिंदगी की कीमत का अहसास नही होता।
तो अभी तो शुरुआत हुई है। 2014 हमने "सबका साथ- सबका विकास" के धोखे में चुना था। 2019-2024 पहला दौर है, जब हमने खुलकर कब्रिस्तान वर्सेज श्मशान को बेशर्मी से चुना है। तो श्मशान को पूरा मौका मिलना चाहिए। कब्रिस्तान को पूरा मौका मिलना चाहिए। पीढियां याद रखे, इतिहास का एक लम्बा पन्ना लिखा जा सके, इतना वक्त तो दूसरी धारा को मिलना चाहिए। यह बीच मे रुक गया तो प्रयोग पूरा नही होगा। कसक रह जायेगी। इस दौर को अपनी परिणति तक पहुचने का पूरा वक्त, इत्मीनान से मिलना चाहिए। तभी कहता हूँ ..
नरेंद्र मोदी साहब की सरकार को 2024 में जीतना जरूरी है।
लेखक मनीष कुमार के अपने निजी विचार