MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर सरकार और किसानों के बीच रार 18वें दिन जारी है। वैसे किसान तो एमएसपी के लिए विनती कर रहे हैं लेकिन सरकार और उसके सिपहसलाहकार रार शब्द की संज्ञा से इसे विभूषित कर रहे हैं। खैर, आजादी के 75 साल के बाद भी क्यों किसान एमआरपी की लड़ाई ही लड़ रहे हैं? क्यों नहीं उनको कंपिनयों के तरह अपने उत्पाद पर एमआपी तय करने का अधिकार है? इस पर नीति-निर्माता और हमारे हुक्मरान यह कह सकते हैं कि एमआरपी मांग और सप्लाई के साथ पैकेज्ड सामानों पर तय होती है। ऐसे में किसानों द्वारा उपजाई गई शब्जियों, फल या चावल-गेहूं पर तय करना संभव नहीं है।
क्या किसानों के उत्पाद की पैकेजिंग नहीं हो सकती या भंडारण संभव नहीं है? क्यों यह अधिकार कंपनियों को दी गई है। साफ है किसान कमजोर बने रहे हैं इसी में कॉरपोरेट से लेकर सरकार की भलाई है। कोई भी सरकार देश के अन्नदाता को आर्थिक रूप से मजबूत देखना नहीं चाहती। वैसे भी जब किसी एक व्यक्ति का चेहरा गढ़ने में पूरी सरकारी मसीनरी लगी हो तो बंटाधार होना तय है। किसे पड़ी है किसानों की। हां, नारा जरूर बुलंद होना चाहएि जय जवान जय किसान।
और हां, जब सरकार ऑटो से लेकर स्मार्टफोन निर्माता को PLI स्कीम (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव स्कीम) के तहत प्रोत्साहन दे रही तो उन किसानों को क्यों नहीं जिन्होंने कोरोना संकट के बीच 130 करोड़ लोगों का पेट भरने का काम किया। पीएलआई के तहत विभन्न सेक्टर में काम करने वाली कंपनियों को उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकारी सहयाता मुहैया कराई जाएगी। देश की 50 फीसदी से अधिक आबादी खेती-किसानी पर आश्रित है तो फिर किसानों को क्यों नहीं विशेष दर्जा या प्रोत्साहन मिले।
बहरहाल, लौटते है एमएसपी पर। एमएसपी को लेकर यह भी भ्रम है कि इससे किसानों का भला नहीं हो सकता तो भैया क्या कंपनियां कर देंगी भला। क्या ऐसा आज तक एक भी उदारहण है कि कंपनियों ने किसी का भला किया हो। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि एमएसपी का लाभी मुट्ठी भर किसानों को मिलता तो यह हकीकत है लेकिन वो यह नहीं बताते कि क्यों इसका लाभ देशभर के किसानों को नहीं मिल रहा है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है।
हमारे हुक्मरानों द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन कुछ मट्ठी भर किसानों द्वारा प्रायोजित है तो भाई देश में किसान कितने बचे हैं। बिहार जैसे राज्य में तो आधे से अधिक किसान पंजाब, हरियणा और देश के दूसरे राज्यों के मजदूर बन गए हैं। सराकरी नीतियों से जोत कट्ठे में सीमट गई है। ऐसे में सरकार की नीतियों के खिलाफ अगर मुट्ठी भर किसान खुलकर आवाज उठा रहे हैं तो उसे देशभर के किसानों की आवज समझने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए।
सरकार के नुमाइंदो द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि किसान सरकार के बातों पर भरोसा नहीं कर रहे हैं तो मेरा सवाल है करें कैसे। सरकार ने किसानों के विश्वास जीतने के लिए क्या किया है? बजट बनाने से पहले उद्योग जगत से मशविरा की जाती है तो किसान से क्यों नहीं किया गया। फेहरिस्त लंबी है…कुछ सवाल के जवाब पर चर्चा फिर कभी।
लेखक अलोक कुमार पत्रकार