अरुण दीक्षित
दिग्विजय सिंह एक बार फिर सुर्खियों में हैं!वह हमेशा कुछ न कुछ ऐसा कहते और करते आए हैं जो उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रखता है।इस बार धारा 370 को लेकर एक पाकिस्तानी पत्रकार के सवाल पर उनका जवाब चर्चा में है। भाजपा ने उनके खिलाफ एनआईए जांच की मांग की है।मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चाहते हैं कि उनके इस वक्तव्य पर सोनिया जवाब दें।इस समय चौतरफा हमला झेल रहे हैं दिग्विजय! लेकिन वे न तो अपने ऊपर हो रहे हमलों से विचलित हैं और न ही अपने बयान से पीछे हटे हैं।
सिंधिया रियासत की राघोगढ़ जागीर के जागीरदार राजा बलभद्र सिंह के यहां, देश आजाद होने के करीब साढ़े पांच महीने पहले,28 फरबरी 1947 को जन्में दिग्विजय शुरू से ही चर्चा में रहे हैं।यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि स्वर्गीय माधवराव सिंधिया की तरह दिग्विजय सिंह ने भी अपनी राजनीतिक यात्रा जनसंघ से ही शुरू की थी। वह राघोगढ़ नगरपालिका के अध्यक्ष भी रहे थे।
राजगढ़ लोकसभा सीट से सांसद रहे दिग्विजय राष्ट्रीय पटल पर तब चर्चा में आये थे जब वे 1993 में मात्र 47 साल की उम्र में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मंत्री बने थे।इससे पहले वे अर्जुन सिंह की सरकार में जूनियर मंत्री रहे थे।
उस वक्त चर्चा में आने के कई कारण रहे थे।पहला तो यह कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए उनकी अगुवाई में हुए विधानसभा चुनाव में उम्मीद के विपरीत कांग्रेस ने भाजपा को तगड़ी पटखनी दी थी।अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद उत्तरप्रदेश के साथ मध्यप्रदेश की भी सरकार बर्खास्त की गई थी।दोनों ही राज्यों में भाजपा की सरकार थी। मध्यप्रदेश में तब सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री थे। बताते हैं कि अपनी जीत के प्रति आश्वस्त सुंदरलाल पटवा ने परिणाम आने से पहले ही अपनी कैबिनेट तैयार कर ली थी!लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दिग्विजय काबिज हो गए थे।
दिग्विजय के मुख्यमंत्री बनने की कहानी भी दिलचस्प है।उस समय प्रदेश में कांग्रेस के कई बड़े नेता इस दौड़ में उनसे आगे थे।श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल,मोतीलाल वोरा,माधवराव सिंधिया और कमलनाथ मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। दिग्विजय के मार्गदर्शक अर्जुन सिंह तब केंद्र सरकार में थे।उंन्होने अपने दूसरे राजनीतिक शिष्य सुभाष यादव का नाम आगे किया था।लेकिन दिग्विजय सबको पछाड़ के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गए थे।हांलकि कहा यह भी जाता है कि अर्जुन सिंह ने शुक्ल बंधुओं को काटने के लिए सुभाष यादव का नाम आगे किया था।बाद में उन्हें उप मुख्यमंत्री बन कर संतोष करना पड़ा।कुछ लोग यह भी कहते हैं कि दिग्विजय ने सीधे नरसिंहराव से सम्पर्क करके अपने लिये मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी। शायद यही बजह थी कि पहले 5 साल के अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक कुशल नट की तरह सत्ता की रस्सी पर संतुलन बनाये रहे।रोज यह अफवाहें उड़तीं कि अब उन्हें हटाया जा रहा है। लेकिन वे न केवल कुर्सी पर कायम रहे बल्कि दस साल तक कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड भी बनाया।उनके रिकॉर्ड को बाद में शिवराज सिंह ने तोड़ा।
दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में कई कारनामे किये थे।बसपा उस समय उभार पर थी।उत्तरप्रदेश में नरसिंहराव उसे कांग्रेस का मैदान दे दिया था।1993 में मध्यप्रदेश में भी बसपा के एक दर्जन विधायक जीते थे।बसपा का लोकसभा में भी खाता मध्यप्रदेश की रीवा सीट से ही खुला था।विन्ध्य और चंबल क्षेत्र में गहरी पैठ रखने वाली बसपा में दिग्विजय ने विभाजन करा दिया था।बसपा के कुछ विधायकों उन्होने पद भी दिए थे।बाद में 1998 के चुनाव में सपा से जीते विधायकों ने भी उनके इशारों पर पाला बदला था।
दिग्विजय सिंह ने अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह को भी सबसे तीखा राजनैतिक सबक सिखाया था।अर्जुन सिंह ने जब नारायण दत्त तिवारी के साथ मिलकर अलग पार्टी बनाई तो घोषित तौर पर उन्होंने उनका समर्थन किया।माना गया था कि मध्यप्रदेश अर्जुन सिंह के साथ जाएगा।होना भी यही था।दिग्विजय अर्जुन के शिष्य होने के साथ साथ करीबी रिश्तेदार भी थे।लेकिन हुआ इसके उलट।जबलपुर में अपनी पहली सार्वजनिक रैली में अर्जुन सिंह इंतजार करते रहे और दिग्विजय नही पहुंचे।यही नही उंन्होने अपने मंत्रिमंडल में शामिल अर्जुन समर्थक मंत्रियों और विधायकों को भी नही जाने दिया।उस रैली में कुल सात कांग्रेसी विधायक पहुंचे थे।उनमें एक मंत्री भी थे।उस दिन अर्जुन सिंह अपने आंसू नही रोक पाए थे।रैली में मौजूद हजारों लोगों ने रोते हुए अर्जुन सिंह को देखा था।
यही नही,एक सार्वजनिक कार्यक्रम में,भारत के मुख्य न्यायाधीश के सामने अर्जुन सिंह से यह कहने वाले-सर मैंने राजनीति आपके चरणों में बैठकर सीखी है,दिग्विजय सिंह ने बाद में 1996 में सतना और 1998 में होशंगाबाद से अर्जुन सिंह की हार सुनिश्चित की।सतना में अर्जुन तिवारी कांग्रेस के टिकट पर लड़े थे।तब वे बसपा के अनाम प्रत्याशी से हारे थे।1998 में होशंगाबाद में भी उन्हें खुद के परिवार के कुल चार वोट वाले सरदार सरताज़ सिंह ने हराया था। उसके बाद अर्जुन चुनावी राजनीति से दूर हो गए।फिर जब वे राज्यसभा में गए तो उन्होंने विधानसभा में अपना प्रमाणपत्र लेने के बाद मीडिया से कहा था-यह राज्यसभा सीट मुझे माननीय मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह जी की कृपा से मिली है।उस समय कहा गया था कि दिग्विजय ने गोल पूरा कर लिया है।
तब दिग्विजय सिंह ने एक और बार राजनीतिक पंडितों को चौंकाया था।उन्होंने राष्ट्रीय कार्यसमिति में शामिल होने भोपाल आये भारतीय जनता पार्टी के सभी पदाधिकारियों को मुख्यमंत्री निवास में भोजन पर बुलाया था।उस भोज में अटलविहारी बाजपेयी और राजमाता सिंधिया सहित सभी प्रमुख नेता शामिल हुए थे।
लेकिन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ उनके निशाने पर तब भी था औऱ आज भी है।उस समय उन्होंने कहा था कि संघ के आतंकियों से सम्बन्ध हैं।उसके कार्यकर्ता बम बनाते हैं।धार की भोजशाला का विवाद भी उसी समय हुआ था और साध्वी ऋतम्भरा की गिरफ्तारी भी।
मुसलमानों को लेकर दिग्विजय ने आज तक अपनी लाइन नही छोड़ी है।खुद को कट्टर हिन्दू बताने बाले दिग्विजय ने अपनी पहली सरकार में अपने मित्र इब्राहिम कुरैशी को मंत्री बनाया था।कुरैशी विधायक नही थे।क्योंकि 1993 के विधानसभा चुनाव में एक भी मुस्लिम विधायक नही जीता था।वे 6 महीने तक मंत्री फिर सालों तक अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष रहे थे।
दिग्विजय ने सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिये बहुत कोशिश की थी।जब सोनिया ने कांग्रेस की कमान संभालने से इनकार कर दिया था तब उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने की भी पेशकश की थी।
2003 में करारी हार के बाद दिग्विजय ने दस साल तक कोई पद न लेने का ऐलान किया था।वे उस पर कायम भी रहे।2014 में कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा भेजा!तब से वे राज्यसभा के सदस्य हैं।
कहा यह भी जाता है कि राज्यसभा की दूसरी पारी के लिये दिग्विजय ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस छोड़ने पर विवश कर दिया।नतीजा यह हुआ कि दिग्विजय तो राज्यसभा पहुंच गए लेकिन वेचारे कमलनाथ 15 महीने में ही अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवा बैठे।
राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर भी दिग्विजय सिंह विवादित ही रहे हैं।बटला हाउस कांड पर उनका बयान हो अफजल गुरु पर,वे हमेशा मुसलमानों के साथ खड़े नजर आए हैं। बदले राजनीतिक परिवेश में उनके बयान कांग्रेस के लिए घातक सावित हुए हैं।लेकिन वे उन पर कायम रहे हैं।
चार पुत्रियों और एक पुत्र के पिता दिग्विजय सिंह निजी जीवन में भी काफी चर्चित रहे हैं।अपनी पहली पत्नी श्रीमती आशा सिंह के निधन के बाद उन्होंने 2015 में अपने से 24 साल छोटी पत्रकार अमृता राय से दूसरा विवाह किया था।उसके बाद से वह लगातार निशाने पर रहे हैं।आज भी उनके ट्विटर और फेसबुक अकॉउंट पर लोग उन पर अभद्र और अमर्यादित टिप्पणियां करते रहते हैं।लेकिन वे उनसे विचलित नही होते हैं।
यही नही दूसरे विवाह के बाद उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी के साथ बहुत ही कठिन मानी जाने वाली नर्मदा परिक्रमा भी की।इस यात्रा में 72 साल के दिग्विजय ने करीब 1325 किलोमीटर पैदल तय किये।इस यात्रा के लिए वे नर्मदा परिक्रमा करने वाले भाजपा नेता(अब केंद्रीय मंत्री) प्रहलाद पटेल से भी मिले थे।प्रह्लाद दो बार नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं।जबकि राजनीतिक में वे दोनों कट्टरविरोधी माने जाते हैं।
दिग्विजय अपने विरोधियों को उपकृत करने के लिए भी जाने जाते हैं।वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जब विदिशा के सांसद थे तब उनका एक घातक एक्सीडेंट हुआ था।तब मुख्यमंत्री दिग्विजय ने उनकी हरसंभव मदद की थी।ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे।कहा तो यह भी जाता है कि भाजपा में कुछ बड़े नेता उनके मुखबिर थे।इसके लिए दिग्विजय उन्हें बाकायदा "मेहनताना" भी देते थे।सौजन्यता तो वे इतनी दिखाते हैं कि नेता विरोधीदल की बेटी की शादी में आगे रह कर शिरकत की और घंटों तक शादी स्थल पर मौजूद रहे।
लेकिन संघ और विश्वहिंदू परिषद से उनका बैर लगातार गहराता गया है।2018 के चुनाव में कमलनाथ ने उन्हें भोपाल से प्रत्याशी बनबाया।संघ ने विवादित साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को उनके खिलाफ उतारा।1989 के बाद से कांग्रेस भोपाल में कभी नही जीती है।लेकिन दिग्विजय ने सबसे ज्यादा मतों से हार का रिकॉर्ड बना दिया।
कश्मीर पर उनका बयान उनके स्वभाव के अनुकूल ही है। पिछले सालों में वे लगातार ऐसे बयान देते रहे हैं जो भाजपा को ध्रुवीकरण में मदद देते रहे हैं।इससे पहले भी वे कई बार इस तरह के बयान दे चुके हैं जो हिंदुत्व की ओर बढ़ती कांग्रेस को पीछे धकेल देते हैं।लेकिन न तो कांग्रेस कुछ कहती है और न दिग्विजय बदलते हैं।यह क्रम लगातार जारी है।ऊपर से उनका खुद कट्टर हिन्दू होने का दावा कायम है।
एक बात और!दिग्विजय पर भृष्टाचार के बहुत आरोप लगे।उमाभारती ने तो उन पर 15 हजार करोड़ का भृष्टाचार करने का आरोप लगाते हुए 2003 में अपनी चुनावी मुहिम चलाई थी।तब दिग्विजय को मिस्टर बंटाधार की उपाधि दी गयी थी।दिग्विजय के नेतृत्व में कांग्रेस बहुत ही बुरी तरह से हारी। लेकिन बाद में उमा भारती अपने आरोपों के समर्थन में कोई सबूत अदालत में नही दे पायीं।यह मामला अभी भी अदालत में लंबित है। वकील मानते हैं कि उमा भारती के सामने खेद व्यक्त करने के अलाबा कोई विकल्प नही बचा है। कांग्रेस के भीतर से भी उन पर भृष्टाचार के गंभीर आरोप लगे।लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी दिग्विजय दूसरे नेताओं की तरह पकड़ में नही आये।आज तक उनके बारे में कहा तो बहुत गया है लेकिन वे कहीं फंसे नही हैं।
पर अब उनके बयान उन्हें फंसा रहे हैं।उनके करीबी लोग यह मानते हैं कि धारा 370 पर उनका बयान निहायत गैर जरूरी था।देश में जो माहौल है उसे देखते हुये उन्हें इस तरह की बयानबाजी से बचना चाहिए।लेकिन दिग्विजय अपने रास्ते पर हैं। नफा नुकसान की परवाह किये बगैर!
दिग्विजय के मन में क्या है!यह तो वही जानें!लेकिन इतना तय है कि उनके बयान कांग्रेस के ताबूत में मौटी कीलें ठोक रहे हैं।