देश-प्रदेश से खारिज होते वामदल

Update: 2021-12-20 08:07 GMT


अरविंद जयतिलक

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के अब कुछ महीने ही शेष रह गए हैं। ऐसे में सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दल सत्ता के साथ सात फेरे लेने के लिए सियासी गोटियां बिछाना शुरु कर दिए हंै। चुनाव प्रचार जोर पकड़ने लगा है और दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप चरम पर है। सत्ता तक पहुंचने के लिए दलों के बीच गठबंधन, जोड़तोड़ और दांवपेंच का खेल शुरु हो गया है और नए-नए फार्मूले ईजाद किए जाने लगे हैं। उत्तर प्रदेश की उभरती चुनावी तस्वीर में मुख्य मुकाबला भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के दरम्यान ही सिमटता दिख रहा है।

वामदलों की बात करें तो हाशिए पर बियाबान में हैं। उनकी सियासी उड़ान में वह दम नहीं दिख रहा कि वह सत्ता का संधान कर सकें या किसी दल के कंधे पर सवार होकर सत्ता की दहलीज तक पहुंच सकें। वह न सिर्फ दलों के गठबंधन के फ्रेम में अनफिट साबित हो रहे हैं बल्कि सियासी जंग में भी उन्हें कोई अपना बगलगीर बनाने को तैयार नहीं है। दरअसल वह अपना रसूख खो चुके हैं। इसका मुख्य कारण जनता के बीच विचारधारा की अस्वीकार्यता, सांगठनिक ढांचे का अभाव और सार्थक नेतृत्व की कमी है। सच तो यह है कि आज की तारीख में उनके पास सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार तक नहीं हैं। ऐसे में वामदल उत्तर प्रदेश में कोई बड़ी राजनीतिक तस्वीर खींच सकेंगे इसमें सौ फीसद संदेह है। तथ्य तो यह है कि वामदलों के लिए उत्तर प्रदेश की सियासी जमीन पूरी तरह बंजर हो चुकी है। आंकड़ों पर गौर करें तो 1974-75 में वह आखिरी चुनाव था जब कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया उत्तर प्रदेश में 16 सीटें जीतने में कामयाब रही। लेकिन उसके बाद के विधानसभा चुनावों में उसकी सियासी जमीन खिसकती ही गयी।

आखिरी बार 2007 के विधानसभा चुनाव में उसका एक उम्मीदवार विधानसभा में पहुंचने में कामयाब रहा। 2012 के विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया ने 51 सीटों पर अपनी किस्मत आजमाई लेकिन इनमें से कोई भी उम्मीदवार विधानसभा का मुंह नहीं देख सका। जिन सीटों पर सीपीआई ने चुनाव लड़ा वहां उन्हें मात्र 1.06 फीसद वोट हासिल हुआ। दूसरे महत्वपूर्ण वाम दल सीपीएम ने 403 विधानसभा सीटों में से 17 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन एक भी सीट जीत नहीं सका। उसके हिस्से में सिर्फ 2.13 फीसद वोट आया। कमोवेश यहीं हाल 2017 के विधानसभा चुनाव में भी रहा। दरअसल किसी भी दल को चुनाव जीतने के लिए संगठन और कार्यकर्ता की जरुरत होती है। लेकिन वामपंथी दलों के पास न तो संगठन है और न ही कार्यकर्ता। एक वक्त था जब उत्तर प्रदेश में सरजू पांडेय, झारखंडी राय और जयबहादुर सिंह जैसे बड़े दिग्गज वामपंथी नेता हुआ करते थे जो तत्कालीन कांग्रेस सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ जनता को गोलबंद कर अपनी ताकत का एहसास कराते थे। ये नेता अपनी लोकप्रियता के दम पर सांसद और विधायक भी बने। उनके बूते ही गाजीपुर, बलिया, बनारस और मऊ कम्युनिस्टों का गढ़ कहा जाने लगा।

लेकिन नब्बे के दशक के बाद वामपंथी आंदोलन बहुत पीछे चला गया और आज उत्तर प्रदेश में उनका कोई नामलेवा नहीं है। गौर करें तो सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं संपूर्ण देश में वामदलों की सियासी जमीन खिसकती जा रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि वह जनता में अपनी ताकत बढ़ाने के बजाए अन्य दलों का दूम पकडने में अपनी उर्जा जाया की। जब वामपंथी दलों ने 2004 में केंद्र की यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दिया तो उम्मीद जगा कि शायद वह रचनात्मक सहयोग से अपनी भूमिका का विस्तार करेंगे। लेकिन जिस तरह उन्होंने अमेरिका के साथ परमाणु करार से लेकर हर काम में अवरोध उत्पन किया उससे देश भर में उनकी आलोचना हुई। यहीं नहीं उसका खामियाजा उन्हें 2009 के लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ा जब वे हाशिए पर चले गए। नतीजतन वामदलों के बीच विचारधारा और नीतियों को लेकर रार पैदा हो गया। आंकड़ों पर गौर करें तो 2004 के लोकसभा चुनाव में उनके सदस्यों की संख्या 57 थी जो 2009 में घटकर 22 रह गयी। 2014 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम 9 और सीपीआई एक सीट पर सिमटकर रह गयी। इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम 2 और सीपीआई 3 सीटें जीती। दो राय नहीं कि वामपंथियों की राजनीतिक प्रतिबद्धता में गरीबों का उत्थान, सामाजिक बदलाव और भूमि सुधार की आवाज शीर्ष प्राथमिकता में रहा है और वे इसी दम पर पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अपना परचम लहराए। वामदलों ने पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों तक शासन किया।

आज उनके हाथ से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा दोनों खिसक चुका है। फिलहाल उत्तर प्रदेश में वामपंथी दलों के सामने केवल चुनाव जीतने की ही नहीं बल्कि उनके समक्ष अपनी विचारधारा और कार्यक्रम को जमीन पर उतारने की भी चुनौती है। ऐसा इसलिए कि उनकी विचारधारा भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में अप्रासंगिक होती जा रही है। यह विडंबना है कि भारत 21 सवीं सदी में है और वामपंथी दल अभी भी चीनी साम्यवादी माॅडल को ही अपना आदर्श मान उसे घोषणापत्र का रुप देते नजर आते हैं। उपर से तमाशा यह कि खुद को जनआंदोलनों का अगुवा मानने से भी बाज नहीं आते हैं। मसला चाहे भूमि अधिग्रहण का हो अथवा विस्थापन का या फिर औद्योगिक, खनन, सिंचाई और उर्जा का या फिर सामाजिक-सांस्कृतिक नीतियों की, कुलमिलाकर अपनी ही विचारधारा लादने की कोशिश करते हैं। लेकिन सच तो यह है कि विगत सात दशकों में वामपंथी दलों ने प्रकृति, समाज, धर्म, जाति, सामाजिक उत्पीड़न, उत्पादन और खपत के आपसी संबंधों पर वैसा कोई माॅडल विकसित नहीं किया जो सामाजिक तौर पर न्यायसंगत और भारतीय हितों के अनुकूल हो।

हां, एक वक्त जरुर था जब लोगों को साम्यवाद का सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्ष लुभाता था और माक्र्सवाद के कार्यक्रम को अस्वीकार करने के बाद भी लोग पूंजीवाद के विरुद्ध लगाए गए उसके आरोपों से आकर्षित होते थे। लेकिन आज हालात बदल गया है। भारत ही नहीं संपूर्ण दुनिया में साम्यवाद का सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्ष और प्रतिबद्धता कमजोर हुई है और उसके झंडाबरदार अलग-थलग पड़ने लगे हैं। भारत की आजादी के उपरांत वामपंथियों ने वादा किया था कि उनकी विचारधारा से ही एक खुशहाल और समतामूलक भारत का निर्माण होगा। लेकिन जब वे पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सत्ता के साथ सात फेरे लिए तो हालात बदतर होते चले गए। सबको रोजी-रोजगार, शिक्षा और रोटी देने की बात बेमानी साबित हुई और यह भी स्पष्ट हुआ कि माक्र्स के चेले सिर्फ जनता को छल ही सकते हैं। जिस तरह उन्होंने पश्चिम बंगाल में विकृत शासन प्रणाली की नींव रखकर उद्योग-धंधे और कल-कारखानो की रीढ़ तोड़ी और गलत आर्थिक नीतियों के बरक्स सिंगुर तथा नंदीग्राम को खून से नहलाया उससे देश स्तब्ध रहा।

जो युवा कभी साम्यवाद के सहज आकर्षण से खींचा चला आता था आज वह साम्यवाद का सबसे बड़ा आलोचक है। सीपीएम के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी में उद्घाटित हो चुका है कि मौजुदा दशक में वामदलों के युवा, छात्र और महिला मोर्चों में सदस्यों की संख्या लगातार घट रही है। 2008 में महिला मोर्चे में कुल सदस्य संख्या एक करोड़, उन्नीस लाख, इक्कीस हजार सात सौ उन्नीस थी जो 2011 में घटकर एक करोड़, सात लाख, एक हजार आठ सौ दस रह गयी। इसी तरह युवा मोर्चे में 2008 में एक करोड़, पचहत्तर लाख, चालीस हजार, उनतालीस सदस्य थे वह 2011 में घटकर एक करोड़, चैंतीस लाख, बहत्तर हजार, चार सौ अठहत्तर रह गया। पार्टी की सदस्यता की वृद्धि दर में भी लगातार गिरावट आ रही है। जहां 1994 में 8.8 फीसद, 1998 में 13.7 फीसद, 2001 में 10.9 फीसद, 2004 में 9 फीसद, 2007 में 13.18 फीसद थी वह 2011 में गिरकर 6.3 फीसद और आज 5 फीसद से भी नीचे जा पहुंची है। आंकड़े बताते हैं कि 2004 से लेकर अब तक लोकसभा में वामपंथी दलों की ताकत 90 फीसद घटी है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर वामपंथी दल उत्तर प्रदेश की सियासी जंग में सत्ता के दहलीज तक कैसे पहुंचेगें? 

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