जनमत का अपमान करके सत्ता हड़पते लोग
अज्ञान+आसक्ति+आलस्य और इनसे उत्पन्न अभाव प्रजातंत्र को रोज़ मिटा रहे हैं।
ध्रुव शुक्ल
जो लोग लोकसभा और विधान सभा के चुनावों में देश के मतदाताओं के द्वारा चुने ही नहीं जाते, क्या उन्हें मंत्रिमण्डल में शामिल करना संवैधानिक रूप से नैतिक है जबकि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही सरकार का संचालन कर सकते हैं। जिन्हें जनता ने त्याग दिया उन्हें संवैधानिक जिम्मेदारी कैसे दी जा सकती है? इसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय को लोकहित में ज़रूर करना चाहिए। सबकी उम्मीद अब उसी पर टिकी है।
तर्क यह दिया जाता है कि वे भले चुनाव हार गये पर उनकी दल के प्रति निष्ठा और अच्छे संगठनकर्ता होने के नाते उन्हें मंत्रीपद दिया गया है। कोई सवाल नहीं उठाता कि अगर वे अच्छे संगठनकर्ता हैं तो ख़ुद चुनाव कैसे हार गये। संविधान में किसी राजनीतिक दल के जीतने और हारने का उल्लेख कहां है। उसमें तो व्यक्ति के द्वारा चुनाव में भागीदारी करने की व्यवस्था है। योग्य व्यक्ति ( अपराधी वृत्ति का नहीं ) चुनाव जीतकर अपना नेता चुनें, यही प्रावधान है।
संविधान किसी राजनीतिक दल के हाईकमान को यह अधिकार नहीं देता कि वह अपने दफ़्तर में बैठकर जात-पांत के भेदभाव से परिपूर्ण मंत्रिमण्डल बनाकर किसी राज्य के नागरिकों पर थोप दे। चुनाव के बाद सभी राजनीतिक दलों के हाईकमान यह असंवैधानिक कृत्य करके लोकतंत्र को विकृत करते रहते हैं और न्यायपालिका, चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संवैधानिक संस्थाएं इसका संज्ञान नहीं लेतीं। देश में संवैधानिक शिक्षा का कोई परिवेश राजनीतिक दलों ने कभी बनने नहीं दिया। अगर ऐसा होता तो ख़ुद सारे नागरिक सवाल उठाते।
हमारे देश में जनता का सामना किये बिना राज्यसभा के दरवाजे़ से प्रधानमंत्री बनाये गये हैं। लोकसभा का चुनाव हार जाने के बाद भी राज्यसभा में जगह देकर मंत्री पद दिये जाते रहे हैं। राज्यसभा (उच्च सदन) केवल राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं है। उसमें तो देश के वैज्ञानिक, दार्शनिक, कवि-कलाकार, समाजशास्त्री और अर्थ विशेषज्ञ होने चाहिए। कुछेक हैं पर बाकी राज्यसभा हारे हुए राजनीतिक जुआरियों से भरी है। क्या जनमत का अपमान करके सत्ता पायी जा सकती है।
एक ज़रूरी सवाल तो मतदाताओं से भी पूछना चाहिए कि वे हरेक चुनाव में अपराधी प्रवृति के सैकड़ों लोगों को संसद और विधान सभाओं के लिए क्यों चुनते रहते हैं। क्या उन्हें अपने लोकतंत्र की जरा भी परवाह नहीं। जातियों के भेदभाव, धर्म के पाखण्ड और तात्कालिक आर्थिक लाभ की घोषणाओं में फंसकर वे यह चिन्ता नहीं कर पा रहे कि राजनीतिक दल लोकतंत्र के मूल्य को लगातार गिराते जा रहे हैं। लोकतंत्र में जनता का मूल्य घट रहा है।
नैतिक रूप से यह माना जाता है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और सेना में ऊंचे पदों पर रह चुके लोगों को सेवानिवृत्ति के बाद आजीवन सत्तासुख भोगने के लोभ से बचना चाहिए। पर यह लोभ भी कम होने का नाम ही नहीं ले रहा। अगर इतने बड़े देश में जनता का सामना किये बिना कुछ लोग और उनके परिवार ही आजीवन सत्ता पर काबिज़ रहेंगे तो लोकतंत्र में नये प्रतिनिधित्व की संभावना समाप्त हो जायेगी। आज़ादी के ७५ साल हो गये और हमें परतंत्र बनाये रखने वाले पुराने राजे-नबाबों के वंशजों से हमारा पिण्ड आज तक नहीं छूटा है।