लगता नहीं कि राम मंदिर वाली 'काठ की हांडी' दोबारा चुनावी चूल्हे पर चढ़ेगी

Update: 2018-11-05 12:11 GMT

योगेंद्र यादव

कहते हैं डूबते को तिनके का सहारा। मोदी जी ने तो छोटा-सा तिनका नहीं, 182 मीटर की प्रतिमा बनवाई है लेकिन लगता है चारों दिशाओं से संकट में घिरी मोदी सरकार के लिए यह सहारा भी नाकाफी साबित होगा। अब तो ले-देकर राम मंदिर का ही आसरा है!

पिछले साल भर में मोदी सरकार की साख अप्रत्याशित रूप से गिरी है। जिस व्यक्ति पर उंगली उठाने से पहले लोगों की भौंहें तन जाती थीं, अब उसी नरेन्द्र मोदी पर व्हाट्सएप के चुटकुलों की बाढ़ आ गई है। पिछले महीने भर में सी.बी.आई., रिजर्व बैंक और सुप्रीम कोर्ट के घटनाक्रमों ने सरकार की परेशानी को अचानक एक संकट में बदल दिया है। इस संकट की बुनियाद में अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की घोर असफलता है। इधर डॉलर के मुकाबले रुपया गिरता जा रहा है, उधर पैट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते जा रहे हैं। सैंसेक्स गिर रहा है और बेरोजगारी बढ़ रही है। महंगाई अब भी उतनी नहीं है जितनी मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान हो गई थी लेकिन खाद और डीजल-पैट्रोल की महंगाई अब चुभने लगी है। देशव्यापी सूखे के चलते आने वाले महीनों में खाद्यान्न और फल-सब्जी में महंगाई की आशंका बन रही है।

इस मुसीबत के लिए कोई और नहीं, खुद सरकार जिम्मेदार है। जब पहले 3 साल तक अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल अचानक सस्ता हो गया था तब सरकार ने उससे भविष्य निधि बनाने की बजाय अपना घाटा पूरा कर लिया। अब जब पैसे की जरूरत है तो सरकार की जेब खाली है। नोटबंदी के तुगलकी फैसले ने हर काम-धंधे को धक्का पहुंचाया, पूरी अर्थव्यवस्था को मंदी में धकेला। ऊपर से जी.एस.टी. को जिस तरह थोपा गया, उससे बचे-खुचे व्यवसाय की भी कमर टूट गई है। रिजर्व बैंक से सरकार की तनातनी की असलीवजह यही है। चुनाव से पहले केन्द्र सरकार का खजाना खाली है। अरुण जेतली चाहते हैं कि रिजर्व बैंक अपनी तिजोरी तोड़कर एक मोटी रकम सरकार की झोली में डाल दे, अपने नियम-कायदे छोड़कर बैंकों को पूंजीपतियों को खुले हाथ से कर्ज बांटने दे। नोटबंदी के प्रयोग में सरकार का मोहरा बन अपनी साख गंवा चुके रिजर्व बैंक के गवर्नर उॢजत पटेल अब और तोहमत झेलने के लिए तैयार नहीं हैं। जब सत्ता के खासमखास लोग भी किसी काम को करने से इंकार कर दें तो समझ लीजिए, मामला गड़बड़ है।

सी.बी.आई. में हुआ बवाल भी इसी की एक मिसाल है। इसे आलोक वर्मा बनाम राकेश अस्थाना विवाद के रूप में देखना बचकाना होगा। यह मामला सीधे-सीधे सी.बी.आई. बनाम प्रधानमंत्री कार्यालय का है। याद रहे कि सी.बी.आई. के वर्तमान निदेशक आलोक वर्मा मोदी सरकार की पसंद से नियुक्त किए गए थे। उस वक्त विपक्षी कांग्रेस के नेता ने उनकी नियुक्ति का विरोध किया था। वर्मा को नियुक्त करते समय उनसे अंध भक्ति की उम्मीद भले ही न हो, कम से कम मोदी सरकार को इतना तो भरोसा रहा होगाकि वह सरकार के इशारे के अनुसार 'एडजस्ट' कर लेंगे। जरूर पानी नाक के ऊपर पहुंच गया होगा तभी उर्जित पटेल की तरह आलोक वर्मा को भी खड़ा होना पड़ा।

चुनाव से पहले मोदी सरकार को सी.बी.आई. की सख्त जरूरत थी। नीतीश कुमार को सृजन कांड के दाग से मुक्त करने के बाद अपने साथ बनाए रखने के लिए, बिहार में लालू प्रसाद यादव को राजनीतिक धक्का पहुंचाने के लिए, मायावती को धमकाने और बसपा को कांग्रेस के साथ जाने से रोकने के लिए, आंध्र प्रदेश में जगन रैड्डी से समझौते की गुंजाइश के लिए और तमिलनाडु की सरकार को अपनी जेब में रखने के लिए सी.बी.आई. पर कब्जा जरूरी था लेकिन अब सरकार का खेल बिगड़ता नजर आ रहा है। इधर जस्टिस पटनायक जैसे निर्भीक जज की निगरानी में सी.बी.आई. डायरैक्टर की जांच होने से यह संभावना खत्म हो गई है कि सरकार आलोक वर्मा पर मनगढ़ंत आरोप लगाकर उनकी छुट्टी कर देगी। उधर मोदी जी के खासमखास राकेश अस्थाना के खिलाफ गंभीर प्रमाण भी अब सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंच गए हैं। एक संभावना यह बनती है कि सुप्रीम कोर्ट आलोक वर्मा को सी.बी.आई. निदेशक के पद पर बहाल कर दे। तब उनके पास अढ़ाई महीने होंगे और सरकार तथा खुद प्रधानमंत्री के विरुद्ध कई संगीन भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की फाइलें उनके सामने होंगी। इस कल्पना मात्र से प्रधानमंत्री के दिल की धड़कन बढ़ सकती है।

रही-सही कसर राफेल मामले पर सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम आदेश ने पूरी कर दी है। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण था कि कांग्रेस राज के भ्रष्टाचार से तंग आई जनता एक बेदाग चेहरे के रूप में नरेन्द्र मोदी को देखती थी लेकिन राफेल सौदे में अनिल अम्बानी को 30,000 करोड़ रुपए तक का फायदा पहुंचाने के आरोप ने उस चमक को धुंधला कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के 31 अक्तूबर के नवीनतम आदेश के बाद अब यह तय है कि जिन कागजों को सरकार छुपाना चाहती थी, वे सार्वजनिक होंगे। सुप्रीम कोर्ट में भ्रष्टाचार साबित हो-न हो, लगता है जनता की अदालत में सरकार की खूब भद्द पिटेगी और इसका सीधा असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा।

चारों ओर से घिरी और घबराई भाजपा अब अपना ब्रह्मास्त्र निकाल रही है। अमित शाह राजस्थान में बंगलादेशी टिड्डियों को ढूंढ रहे हैं, केरल में सुप्रीम कोर्ट को ललकार रहे हैं। असम के नागरिकता रजिस्टर को बंगाल, त्रिपुरा और उन सब जगह ले जाने की बात हो रही है जहां-जहां इस बहाने हिंदू-मुस्लिम तनाव पैदा किया जा सके। भारत की नागरिकता को धार्मिक आधार पर परिभाषित करने वाला कानून संसद में पास करवाने की कोशिश होगी। चौंकिएगा नहीं अगर आने वाले कुछ हफ्तों में देश के किसी बड़े नेता पर या कुंभ के मेले जैसे किसी आयोजन में 'आतंकी हमले' की खबर आए या भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर अचानक गर्मा-गर्मी हो जाए। आने वाले कुछ महीनों में या तो जवान और किसान होगा, नहीं तो हिंदू और मुसलमान होगा।

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण इसी राजनीतिक पैंतरे की तार्किकपरिणति होगा। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोगोई ने इस मामले की सुनवाई को टालकर भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा बनने से इंकार कर दिया है। फिर भी यह संभव है कि सरकार संसद में इस आशय का कानून लाने की कोशिश करे। योगी आदित्यनाथ और संघ परिवार के पैरोकार के बयानों से तो यही संभावना बन रही है। लगता तो नहीं कि राम मंदिर वाली काठ की हांडी एक बार फिर चुनावी चूल्हे पर चढ़ सकेगी लेकिन अगर 'सबका साथ-सबका विकास' के नारे पर सत्तामें आई सरकार की अग्नि परीक्षा विकास नहीं, राम मंदिर के सवाल पर होती है, तो सिर्फ भाजपा ही नहीं, पूरा देश ही राम भरोसे है!

(योगेन्द्र यादव स्वराज इंडिया अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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