सम्हल जाएं नहीं तो राष्ट्रवादियों की अगली पीढ़ी जय दुर्योधन और जय शकुनि महाराज करती हुई ही आएगी
युधिष्ठिर यदि नहीं भी चाहते तो यह युद्ध होता. महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर बार बार छल रहित और कपट रहित द्यूत की बात करते हैं. बार बार व शकुनि से कहते हैं कि कपट पूर्ण खेल से विनाश होता है.
महर्षि वेदव्यास की महाभारत में सभापर्व के अनुसार राजसूय यज्ञ में शिशुपाल वध के उपरान्त युधिष्ठिर बहुत चिंता में थे. उन्होंने महर्षि व्यास से प्रश्न किया कि हे पितामह! भगवान नारदमुनि ने स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी के ऊपर होने वाले तीन प्रकार के उत्पात कहे हैं. अब चेदिराज शिशुपाल की मृत्यु से उत्पातों का भय दूर होगा या नहीं!
उनकी यह बात सुनकर पराशर पुत्र कृष्ण द्वैपायन ने कहा "हे प्रजापालक युधिष्ठिर! तेरह वर्षों की अवधि तक उत्पातों का बड़ा भयानक फल होता रहेगा, और उसका परिणाम सम्पूर्ण क्षत्रियों के विनाश में होगा. हे भरत श्रेष्ठ, तेरे ही कारण और दुर्योधन के अपराध के हेतु एवं भीम और अर्जुन के बल से सम्पूर्ण क्षत्रिय युद्धभूमि में इकट्ठे होकर विनष्ट हो जाएंगे."
फिर वह कहते हैं कि "यदि तू जितेन्द्रिय होकर प्रमादरहित व्यवहार करेगा तो पृथ्वी का पालन कर सकेगा."
इसके उपरान्त महर्षि व्यास कैलाश पर्वत की ओर प्रस्थान कर गए, और युधिष्ठिर उसी बात की चिंता करते हुए शोकाकुल होकर गहरी सांस लेकर इसी बात की चिंता करने लगे और उन्हें यही लगा कि निश्चय से जो व्यासमुनि ने जो कहा है, वैसा ही हो जाएगा. इस प्रकार महातेजस्वी युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों से कहा कि यदि महर्षि वेदव्यास के कथनानुसार मेरे कारण ही समस्त क्षत्रियों का विनाश होना है तो मेरे जीवित रहने में कौन सा सा लाभ है?"
फिर अपने भाइयों से उन्होंने कहा कि "आप सबका कल्याण आज से होवे! अब मेरी प्रतिज्ञा आप सब सुनें कि मैं तेरह वर्ष तक क्या करूंगा! मैं आज से अपने भाइयों के साथ एवं अन्य भ्राताओं के साथ कठोर भाषण नहीं करूंगा, ज्ञानियों की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करता हुआ जो कुछ भी करना होगा उन्हें बताकर करता रहूँगा. मैं ऐसा कोई भी कार्य नहीं करूंगा जिससे मतभेद हों क्योंकि जगत में कलह का कारण ही मतभेद हैं. हे मनुष्यों में श्रेष्ठ पुरुषों! इस ढंग से मैं कलह से दूर रहकर जनों का प्रिय कार्य करूंगा तो लोग मेरी निंदा नहीं करेंगे!"
इधर युधिष्ठिर अपने उन भाइयों के प्रति मतभेद न रखने की शपथ ले रहे थे जो उनके उस वैभव से ईर्ष्या पाल रहे थे, जो युधिष्ठिर एवं उनके भाइयों ने अपने बाहुबल से बनाया था. उन्हें राजकुमार होते हुए भी अपना अधिकार माँगना पड़ा था क्योंकि नेत्रहीन धृतराष्ट्र उनके अधिकारों के प्रति अपनी आँखें बंद कर चुके थे.
युधिष्ठिर यदि नहीं भी चाहते तो यह युद्ध होता. महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर बार बार छल रहित और कपट रहित द्यूत की बात करते हैं. बार बार व शकुनि से कहते हैं कि कपट पूर्ण खेल से विनाश होता है.
यह दुखद है कि उन्होंने अपनी पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगाया था, परन्तु उस चौसर के लिए उन्हें उनके पिता ने आमंत्रित किया था, जिनका आमंत्रण अस्वीकार करने पर मतभेद होता और युधिष्ठिर यह वचन कर चुके थे कि वह ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे मतभेद हो. उन्होंने द्रौपदी को दांव पर लगाया, और अपने भाइयों को दांव पर लगाया, इसकी आलोचना महाभारत में भी कराई गयी है, परन्तु वह द्युत व्यसनी थे, ऐसा कहना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है.
सभी जानते हैं कि उनके साथ छल हुआ था. पूरी महाभारत में शायद ही कहीं दूसरा प्रकरण मिलता हो जब युधिष्ठिर ने द्यूत खेला हो.
युधिष्ठिर जैसे व्यक्ति जिन्होनें धैर्य न खोया, यह जानते हुए भी कि उनके साथ इस द्यूत में छल हो सकता है, यह जानते हुए भी कि उनके साथ कपट हो सकता है, उन्होंने महर्षि वेदव्यास के उस कथन को स्मरण रखते हुए द्यूत खेला! वह स्वयं को इस विनाश के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराना चाहते थे, जो 13 वर्षों के उपरान्त होने वाला था.
परन्तु उन्हें यह नहीं ज्ञात था कि एक समय आएगा जब वैकल्पिक अध्ययन के नाम पर युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम जैसे नायकों को नीचा दिखाया जाएगा और कथित रूप से धर्म का उत्थान करने वाले लोग युधिष्ठिर जैसे नायक को खलनायक ही बनाकर प्रस्तुत कर देंगे.
जो लोग युधिष्ठिर की आलोचना और कर्ण की प्रशंसा करते हैं, क्या एक प्रश्न का उत्तर देंगे कि यदि युधिष्ठिर द्यूत जीतते तो क्या होता? क्या वह कभी भी अपने भाई की पत्नी को दांव पर लगाते? क्या वह किसी भी स्त्री के साथ ऐसा कर सकते थे? नहीं!
क्योंकि पांडव तो दूसरों के लिए अपना जीवन दांव पर लगाने वाले सनातनी थे. वह तो शरण देने वालों के लिए बकासुर से भी लड़ जाने वाले थे और युधिष्ठिर ही थे जिनके कारण दुर्योधन के प्राण बचे थे जब गन्धर्वों ने दुर्योधन को घेर लिया था. और वह भी उस दुर्योधन को जो उनका मनोबल तोड़ने के लिए ही अपनी विलासिता का ढिंढोरा पीटने के लिए वन में गया था.
महाभारत के पाँचों भाई, शून्य से शिखर तक की कहानी के वास्तविक उदाहरण हैं, जिनके साथ वास्तव में अन्याय हुआ, फैब्रिकेटेड अन्याय नहीं, जैसा बाद में विमर्श के कर्ण के साथ कुछ छद्म राष्ट्रवादियों और सच्चे वामपंथियों ने किया. जो समाज अपने नायकों को बिना किसी कारण मात्र अपनी पहचान बनाने के कारण नीचा दिखाता है, वह समाज पतन की ओर शीघ्रता से अग्रसर होता है.
महाभारत के नायक मात्र और मात्र यही पांच हैं, जिनमें न्याय है, जिनमें वीरता है, जिनमें धैर्य है, जिनमें अंतिम सीमा तक सहने की क्षमता है.
और जितना अधिक आप युधिष्ठिर को द्यूत के कारण कोसेंगे, अगला विमर्श यही आएगा कि "दुर्योधन ने इसी कारण युधिष्ठिर को राज्य देने से इंकार कर दिया था क्योंकि वह व्यसनी था और उसमें शासन चलाने की क्षमता नहीं थी!"
सेल्फ गोल करने में कथित राष्ट्रवादी खेमे का कोई जबाव नहीं है परन्तु उसके कारण सारा धार्मिक विमर्श प्रभावित होता है, उसे याद रखा जाए!
सम्हल जाएं नहीं तो राष्ट्रवादियों की अगली पीढ़ी जय दुर्योधन और जय शकुनि महाराज करती हुई ही आएगी