पांच दिन के सत्र में से पहला दिन, 'संसदीय यात्रा' में और दूसरा दिन सांसदों के नये भवन में प्रवेश, बचे हुए तीन दिनों में किसी बड़े धमाके के आसार कम!
पांच दिन के सत्र में से पहला दिन, 'संसदीय यात्रा' में और दूसरा दिन सांसदों के नये भवन में प्रवेश में निकल जाने के बाद, बचे हुए तीन दिनों में कोई और धमाका किए जाने के आसार कम ही हैं
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व या यूपीए-1 के दौर में वामपंथ के दबाव में बने सूचना का अधिकार, वनाधिकार, शिक्षा का अधिकार तथा ग्रामीण रोजगार अधिकार कानूनों और यहां तक कि लोकपाल कानून के रूप में, आम जनता को अधिकारसंपन्न करने के पहलू से हुई प्रगति के तो, नरेंद्र मोदी जैसे सैद्घांतिक रूप से ही खिलाफ हैं। उनका मानना तो यह है कि अधिकारों के शोर से देश यानी जनता को ''कर्तव्यों'' की ओर ले जाने की जरूरत है।
संसद के रहस्यमय विशेष सत्र का रहस्य, इस सत्र की पहली बैठक से ही काफी हद तक खुल गया लगता है। ऐसा नहीं है कि तमाम संसदीय नियम-कायदों तथा जनतंत्र के तकाजों के विपरीत, मोदी मंडली ने अब भी सांसदों से भी इसकी जानकारी छुपाने की कोशिश खत्म कर दी हो कि पांच दिन के इस विशेष सत्र में, आखिर विशेष क्या होगा? हैरानी की बात नहीं है कि विशेष सत्र से ठीक पहले, संसद में प्रतिनिधित्व-प्राप्त सभी पार्टियों की बैठक के बाद भी, राज्य सभा में आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह, बहुत मुखर होकर इसकी शिकायत कर रहे थे कि इस बैठक तक में, विभिन्न पार्टियों के नेताओं को यह नहीं बताया गया कि सत्र में ठीक-ठीक, क्या-क्या होने जा रहा है। दोनों सदनों के संदर्भ में जिन कतिपय विधेयकों के लिए जाने की जानकारी आयी है, उनके अलावा भी कुछ है जो अभी नहीं बताया जा रहा है, इस धारणा को मोदी मंडली अब भी सायास बल दे रही है। और तो और, सत्र शुरू होने के ऐन पहले, संसद के बाहर मीडिया के लिए अपने एकालापी संबोधन में, प्रधानमंत्री ने जिस तरह, विशेष सत्र के 'समय में छोटा' किंतु 'ऐतिहासिक निर्णयों' से भरा होने की बात कही है, उसने भी सत्र के 'छुपे एजेंडा' की अटकलों को कुछ बल ही दिया है।
इसके बावजूद, इस विशेष सत्र की लोकसभा की पहली बैठक की शुरूआत से इस संभावना को बहुत बल मिला है कि शायद इस विशेष सत्र की मुख्य विशेषता, इसका प्रधानमंत्री की मोदी की वाहवाही का विशेष अवसर बनाया जाना ही हो। जैसाकि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, लोकसभा की बैठक की शुरूआत स्पीकर द्वारा जी-20 के सफल आयोजन के लिए बधाई देने के नाम पर, प्रधानमंत्री मोदी के ''नेतृत्व'' की भूरि-भूरि प्रशंसा किए जाने के साथ हुई। और इसके फौरन बाद, 'संसद की 75 वर्ष की यात्रा' पर प्रधानमंत्री मोदी के विस्तृत संबोधन में, जी-20 की सफलता के लिए आत्मश्लाघा के इस सिलसिले को और आगे बढ़ाया गया, जिसका संकेत प्रधानमंत्री ने बैठक शुरू होने से पहले के, संसद के दरवाजे पर दिए गए अपने वक्तव्य में ही दे दे दिया था। और जैसाकि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, प्रधानमंत्री ने इसके साथ चंद्रयान-3 की सफलता को भी जोड़ दिया। इसके लिए वह अपने खास अंदाज में चांद पर तिरंगा फहराने के साथ ही, शिव-शक्ति पाइंट की याद दिलाना नहीं भूूले।
फिर भी प्रधानमंत्री मोदी के इस लगभग एक घंटे के भाषण से लोकसभा को कुछ हैरानी जरूर हुई होगी। संसद की 75 वर्ष की यात्रा की चर्चा का प्रधानमंत्री का यह भाषण, कुछ ज्यादा ही मौके के अनुरूप था। पिछले नौ साल से ज्यादा में नरेंद्र मोदी का संसद में और वास्तव में संसद के बाहर भी, दूसरा शायद ही कोई ऐसा भाषण हुआ होगा, जिसमें उन्होंने अपने से पहले के दौर को, इतनी उदारता से याद किया होगा। नरेंद्र मोदी के मुंह से पंडित जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए प्रशंसा के शब्द सुनकर, बहुतों को अवश्य हैरानी हुई होगी। जवाहरलाल नेहरू के 15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि के ''ट्राइस्ट विद डेस्टिनी'' वाले भाषण का ही संसद की 75 साल की यात्रा में नरेंद्र मोदी ने उल्लेख नहीं किया, बांग्लादेश के आंदोलन के लिए इंदिरा गांधी के समर्थन और बांग्लादेश की स्थापना में योगदान का भी उल्लेख करना उन्हें जरूरी लगा। प्रधानमंत्री मोदी के मुंह से ऐसे निर्विवाद और अनाक्रामक बोल सुनना, कम से कम अब बेशक हैरान करता है।
फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने इस संबोधन में सचमुच पूरी तटस्थता से, संसद की 75 साल की यात्रा का आख्यान प्रस्तुत करने की कोशिश की। जाहिर है कि मोदी के लिए न तो यह संभव था और न ही उनसे कोई इसकी अपेक्षा भी करता है। उल्टे मोदी से वस्तुगतता की अपेक्षा इतनी कम हो चुकी है कि उनके भाषण में खासतौर पर विपक्षियों के प्रति आक्रामकता में कमी और लंबे अर्से तक प्रधानमंत्री के रूप में देश का नेतृत्व करने वाले कांग्रेस से जुड़े अपने पूर्व-वर्तियों, विशेष रूप से नेहरू तथा इंदिरा गांधी के लिए सम्मान के दो शब्द कहने भर से, उनका भाषण हैरान करने वाला लगने लगा। वर्ना नरेंद्र मोदी की इस ओढ़ी हुई उदारता की ''सीमाएं'' भी साफ दिखाई दे रही थीं। जिस तरह उन्होंने पूर्व-प्रधानमंत्रियों में राजीव गांधी का जिक्र तक करना जरूरी नहीं समझा और मनमोहन सिंह के कार्यकाल को किसी भी सकारात्मक चीज के लिए याद करना तो दूर रहा, सिर्फ उनके दौर में हुए ''कैश फॉर वोट'' प्रकरण के लिए ही याद करना जरूरी समझा, उससे साफ था कि प्रधानमंत्री मोदी का रुख नहीं बदला था, वह सिर्फ मौके के हिसाब से अपना स्वर थोड़ा एडजस्ट कर रहे थे। वर्ना प्रधानमंत्री को इसका बखूबी पता होगा कि कैसे ''कैश फॉर वोट'' प्रकरण की जांच में आखिरकार, कुछ भी नहीं निकला था। उल्टे उस प्रकरण में मास्टर माइंड के रूप में कुख्यात हुए, दिवंगत अमर सिंह, अपने आखिरी समय में नरेंद्र मोदी की पार्टी के ही साथ जुड़ चुके थे।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व या यूपीए-1 के दौर में वामपंथ के दबाव में बने सूचना का अधिकार, वनाधिकार, शिक्षा का अधिकार तथा ग्रामीण रोजगार अधिकार कानूनों और यहां तक कि लोकपाल कानून के रूप में, आम जनता को अधिकारसंपन्न करने के पहलू से हुई प्रगति के तो, नरेंद्र मोदी जैसे सैद्घांतिक रूप से ही खिलाफ हैं। उनका मानना तो यह है कि अधिकारों के शोर से देश यानी जनता को ''कर्तव्यों'' की ओर ले जाने की जरूरत है। यह भी हैरानी की बात नहीं है कि लोकसभा के स्पीकरों का जिक्र करते हुए भी, नरेंद्र मोदी को पहले स्पीकर के बाद, सिर्फ भाजपा के दो स्पीकरों के नाम याद रहे और सोमनाथ चैटर्जी तक का नाम याद नहीं रहा। दूसरी ओर, खुद ही अपनी प्रशंसा का बाजा बजाते हुए नरेंद्र मोदी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में संविधान की धारा-370 का खत्म किया जाना, जीएसटी आदि, अपने हिसाब से अपनी पहले की तमाम उपलब्धियों का भी ठीक-ठाक तरीके से बखान किया, जबकि किन्हीं सीमाओं के जिक्र को अपने आस-पास फटकने तक नहीं दिया। आखिरकार, उन्हें अपने पूर्ववर्तियों के कार्यकाल की उतार-चढ़ाव भरी कहानी के सामने, अपनी सिर्फ कामयाबियों भरी कहानी जो पेश करनी थी।
फिर भी कुल मिलाकर यह प्रधानमंत्री मोदी का एक प्रकार से विदाई भाषण था। और विदाई भाषण के अनुरूप इसमें पूर्व-वर्तियों के प्रतिकुछ उदारता थी और सब के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन था। हालांकि, मोदी जी को यह बखूबी याद था कि यह विदाई पुराने संसद भवन की ही थी, जिसका पता संसद की दीवारों तक के प्रति उनके कृतज्ञता ज्ञापन से लगता था, फिर भी यह भाषण सुनते हुए बहुतों को यह मोदी जी का विदाई भाषण ही लगा हो, तो हैरानी की बात नहीं होगी। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी का यह संबोधन, इस विशेष सत्र के बुलाए जाने के सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक था। याद रहे कि यह सिर्फ प्रधानमंत्री के संबोधन की बात नहीं है। यह पुराने संसद भवन से संसद के नये भवन में जाने को, अपने आप में एक बड़े और ऐतिहासिक ईवेंट का रूप दिए जाने का मामला है। और इस संबोधन के जरिए प्रधानमंत्री मोदी को उसी प्रकार, इस समूचे ईवेंट के केंद्र में स्थापित किया जाना है, जैसे सेंगोल संस्कार के माध्यम से, प्रधानमंत्री मोदी को जून के आखिर में हुए नये संसद भवन के उद्ïघाटन के ईवेंट के केंद्र में स्थापित किया गया था। इस ईवेंट पर अतिरिक्त ऐतिहासिकता लादने की सचेत कोशिश में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदाई संबोधन के आखिर में यह याद दिलाने का विशेष रूप से ध्यान रखा कि वह, वर्तमान और भविष्य के संधिकाल पर खड़े थे; वर्तमान को भविष्य से जोड़ने वाली कड़ी पर खड़े होकर देश का नेतृत्व कर रहे हैं। यह खुद ही अपने लिए जबर्दस्ती महानता का आविष्कार की सचेत कोशिश के सिवा और कुछ नहीं है।
पांच दिन के सत्र में से पहला दिन, 'संसदीय यात्रा' में और दूसरा दिन सांसदों के नये भवन में प्रवेश में निकल जाने के बाद, बचे हुए तीन दिनों में कोई और धमाका किए जाने के आसार कम ही हैं। उधर कांग्रेस के महिला आरक्षण का मुद्दा उठाने तथा बीआरएस के सांसदों के इस मांग पर संसद में गांधी की प्रतिमा पर प्रदर्शन करने के बाद, महिला आरक्षण के मामले में भी मोदी सरकार के कोई धमाका करने की उम्मीद लगभग खत्म ही हो गयी है। ऐसे में हैरानी की बात नहीं होगी कि संसद भवन तबादले के बाद, बाकी विशेष सत्र सरकारी काम की रस्मअदायगी में ही गुजरे और आगे कोई उल्लेखनीय ईवेंट न हो। वैसे भी प्रधानमंत्री मोदी की वाहवाही के इस नयी संसद ईवेंट के बाद और कोई ईवेंट होगा तो अब, इस मुख्य ईवेंट से ध्यान बंटाने का ही काम करेगा और यह मोदी जी के छवि निर्माताओं को हर्गिज मंजूर नहीं होगा।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)