जितिन प्रसाद के बहाने आज की राजनीति और नेता पुत्रों का सच
यह वाकई दुखद व दुर्भाग्यपूर्ण है कि युवा आबादी वाला यह देश नई पीढ़ी के उन नेताओं के हाथों छला जा रहा है जो एक-दूसरे के साथ बैठकर सुलह, समझौता और समझदारी नहीं बना सकते हैं।
श्रुति व्यास
कुछ साल पहले जितिन प्रसाद से एक कम प्रभाव वाली निस्तेज हस्ती के रूप में सामना हुआ था। वे बनारस की एक उड़ान पकड़ने के लिए लाइन में थे। उनके बारे में सुना कम था लेकिन वे कांग्रेस के 'ब्राह्मण चेहरे' हैं, यह पता था। उस नाते उन्हें 2017 चुनाव में पार्टी के लिए प्रचार करने, लोगों को यकीन दिलाने और मूड बनाने का जिम्मा मिला था। जी हां, नोटबंदी बाद वाला वहीं चुनाव, जिसमें 'करेंसी' कम हो पवित्र-सफेद बन गई थी, और नरेंद्र मोदी की अपराजेयता जस की तस। जितिन प्रसाद धुले हुए, इस्त्री किए, अच्छे कड़क कपड़े पहने हुए चिंताविहीन और परेशानी से मुक्त लगे थे। लेकिन वे जानते थे तभी निश्चिंत-शांत भाव कहना था नुकसान तय है… कोई अवसर नहीं! सुन कर साथी यात्री की टिप्पणी थी, "कांग्रेस के नेताओं के साथ यही समस्या है, वे लड़ना चाहते ही नहीं हैं।"
बहुत ताजा बात है। इजराइल में सत्ता बदली है। नफताली बेनेट नए प्रधानमंत्री बने हैं और वे एक ऐसे गठजोड़ के मुखिया हैं, जिसमें इजराइल के आठ राजनीतिक दल हैं, जिसमें वामपंथी हैं, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी पार्टी ही नहीं, बल्कि मुस्लिम पार्टी भी है। इन पार्टियों में से प्रत्येक कई भिन्न और प्रतिस्पर्धी विचारों-आदर्शों वाले इजराइली नागरिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सब कैसे इकठ्ठे हुए? इन्हें एक दूसरे से जोड़ने और एक करने वाला कारक है पूर्व प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को पसंद नहीं किया जाना। इसलिए, बहुतों को यकीन है कि यह गठजोड़ शायद बेहद कामयाब रहे।
सीधे-सरल शब्दों में इजराइल ने एकजुट होने की इच्छाशक्ति हासिल की और ऐसा पार्टियों द्वारा पुरानी मान्यता, जिद्द-स्वार्थों को छोड़ कर हुआ। यह एकता, "आओ, मिल कर बेंजामिन नेतन्याहू को बाहर करें" के बीज मंत्र पर थी। इस तरह, इजराइल ने एकजुटता पाई, संकल्प पाया जबकि भारत में विपक्ष परत दर परत खोता हुआ। जितिन प्रसाद नवीनतम वे नेता हैं, जो उत्तर प्रदेश चुनाव से ठीक पहले नरेंद्र मोदी की भाजपा में जा मिले।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत में विपक्ष अब धुंधले में, निस्तेज है। मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस सात साल से संघर्ष कर रही है लेकिन दीनता-हीनता में फिसलते हुए। उसके धमाल बिना हंगामे के और उसके नेता को पप्पू कह कर, बना कर, बेचा और प्रचारित किया जा चुका है। खुद अपनी ही पार्टी के लोगों में पप्पू! 'पप्पूपने' का वह आभामंडल, वह हल्ला बना है, जिसका अंत दिखता नहीं। इससे न केवल आम जनता के मन मस्तिष्क में पार्टी और नेता का विश्वास दरका हुआ है, बल्कि खुद पार्टी के भरोसे और भविष्य की चिंता में नेता भागते हुए हैं। हर चुनाव से ठीक पहले पार्टी परत दर परत अपने नेता, अपने चेहरे और अपनी चमक गंवाती जा रही है।
आज के भारत में, न्यू इंडिया के आदर्शों-विचारधाराओं में समझौतापरस्ती लेफ्ट, राइट, सेंटर में सभी ओर है। विचार और विरासत खंडहरों में मिटने को अभिशप्त और 'राजनीतिक अवसरवादिता' फैशनेबल व ट्रेंडिंग मौका है। वहीं एक समय का आयाराम-गयाराम अब संरक्षित और पोषित है। लेकिन नेता भूल जा रहे हैं कि अपनी पार्टी के समर्थकों को प्रभावित करने के लिए आप जो कहते हैं वहीं फिर विरोधियों द्वारा आप पर आजमाया जाएगा। आज आप आयाराम करेंगे कल आपके यहां से गयाराम होगा। अक्सर लोग भूल जाते हैं कि आने-जाने के अवसरवादी हमेशा हैसियत घटाते हुए होते हैं। इसलिए जाने-माने (ज्योतिरादित्य सिंधिया) या अनजान (जितिन प्रसाद) का दल बदलना उन्हें अपराजेय नहीं बना सकता है। सच तो यह है कि इनकी ताकत कम हुई है। दबदबे, व्यक्तिगत पहचान, विरासत में घटत, गिरावट व दाग लगा है, वह विरासत की बदनामी है। बेशक कांग्रेस पार्टी में इनकी प्रतिभा उनके पूर्वजों, पिता के नाम से खिली थी। वे नेता बने पूर्वजों के आभा मंडल के कारण और उसका घरौंदा कांग्रेस में था जो उनके छोड़ कर चले जाने से भाजपा में ट्रांसफर नहीं हो सकता। भाजपा में भला कौन जितेंद्र प्रसाद या माधवराव सिंधिया को याद करता हुआ होगा?
मैंने हिंदी भाषी राज्यों के विधानसभा चुनावों में से एक में एक पत्रकार से कांग्रेस पार्टी के 'युवा तुर्कों' में से एक से संबंधित अनुभव सुना। युवा नेता अपने चुनाव क्षेत्र में प्रचार के दौरान अपने समाज के ही लोगों से अधिक घिरे रहते थे। एक दफा, इस 'युवा तुर्क' ने अपनी नाक उठाई और गार्ड को आदेश दिया कि ईर्द-गिर्द के लोगों को हटाओ। क्योंकि वे उन लोगों के शरीर से आने वाली बदबू बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे! ये नेता, हालांकि, अब वैसे 'युवा तुर्क' नहीं हैं, बहुत गर्व में रहते हैं और पिता की विरासत के नाम पर ब्लैकमेल करते हैं, जबकि पिता ऐसे थे जो दिन-रात लोगों के बीच रह कर चुनाव प्रचार में लगे रहते थे। गर्मी और धूल मिट्टी में पसीना बहाकर उन्होंने अपना जलवा, अपना आभामंडल बनाया था। आज उस विरासत से फटाफट सत्ता की भूख है और उनकी राजनीति पेंडुलम की तरह झूलती हुई। उनके लिए सत्ता के मौजूदा चुंबक से चिपकने, न चिपकने का फैसला सामान्य सा है!
जितिन प्रसाद प्रसंग : जी हां, वे लड़ना नहीं चाहते हैं या संभव है चाहते हों। लेकिन मोटे तौर पर अब कोई मेहनत-संघर्ष नहीं चाहता। न संघर्ष का माद्दा, न डटे रहने की इच्छा शक्ति और न लोगों में जाने, मिलने और उनके बीच रहने का मिजाज। विकल्प का यकीन दिलाने जैसी जिद्द का तो सवाल ही नहीं। जी हां, कोई नहीं चाहता लड़ना और विकल्प बनाना। तभी आम बातचीत, विवाद, बहस में यह सवाल सभी तरफ है कि 'विकल्प कहां है'। विकल्प का यकीन दिलाने की मेहनत, संघर्ष नहीं तो विकल्प का आइडिया कैसे बनेगा? देश का राजनीतिक मूड, सच कहिए तो विपक्षी दलों का राजनीतिक मूड आत्मघाती है। कोई एकता नहीं है। कोई भी अपना अहम, अपनी खामोख्याली छोड़ समझौता नहीं चाहता, जबकि सत्ता इन सबके हाथों से फिसल बहुत दूर उन हाथों में जा चुकी है, जिनके पास पैसे की अकूत ताकत है, भाषण है और लड़ाई है। तभी मौके की तलाश में कतार है कि हौले हौले अपनी पार्टी के भीतर झगड़ा कर, रूठ कर नए 'परिवार' में नंबर बढ़ा मौका बनाएं।
इस तरह, राजनीतिक मौकापरस्ती हमें उस खाई की और धकेलती हुई है, जिसमें विचार, राजनीति, जन संघर्ष कुछ भी नहीं है। पूरा देश खाई के संकटों में फंसा हुआ। किसी को डूबते लोकतंत्र की परवाह नहीं है। कभी जिस देश के 'लोकतांत्रिक शक्तियों की वैश्विक अर्थव्यवस्था' बनने की कल्पना थी वह आज पिछड़ते हुए सिर्फ बातों-भाषणों के हल्ले में जीता हुआ है तो ऐसा उन नेताओं (नौजवान) की इस दुखदायी हकीकत से भी है कि राजनीति नहीं करनी है और आयाराम बन कर जीतने वालों की पंगत में बैठ जाना है! यह वाकई दुखद व दुर्भाग्यपूर्ण है कि युवा आबादी वाला यह देश नई पीढ़ी के उन नेताओं के हाथों छला जा रहा है जो एक-दूसरे के साथ बैठकर सुलह, समझौता और समझदारी नहीं बना सकते हैं।