भारत में क्यों गहराया ऑक्सीजन का महा संकट, अगले हफ्ते तक सुधर जाएंगे हालात?
देश के ज्यादातर हिस्सों में ऑक्सीजन के लिए कोहराम मचा है. तीन लाख से ज्यादा लोग रोजाना कोरोना की दूसरी लहर से ग्रस्त हो रहे हैं और हजारों की मौत रोजाना हो रही है. इन मौतों के पीछे सबसे बड़ी वजह ऑक्सीजन की कमी मानी जा रही है. सवाल ये उठता है कि क्या ऑक्सीजन की इस भारी मांग के हिसाब से पहले से तैयारी नहीं की गई थी या फिर जिस रफ्तार से इस दफा कोरोना की सुनामी आई, उसमें कोई भी तैयारी मुकम्मल नहीं हो सकती थी. सच्चाई इन्हीं दोनों के बीच छुपी है.
देश में लिक्विड ऑक्सीजन के इंडस्ट्रियल सेक्टर में इस्तेमाल पर गृह मंत्रालय ने प्रतिबंध लगा दिया है. कांडला के दीनदयाल बंदरगाह पर ऑक्सीजन सिलिंडर बनाने के लिए खास किस्म का सिलिंडर इस्पात विदेश से बड़े मालवाहक पोत में ढोकर लाया गया है. सिंगापुर से ऑक्सीजन कंसंट्रेट की बड़ी सप्लाई विमानों के जरिये आ रही है. फ्रांस से पोर्टेबल ऑक्सीजन जेनरेटर मशीनें मंगाई जा रही हैं. देश के तमाम स्टील प्लांट्स, चाहे वो सार्वजनिक क्षेत्र में हों या फिर निजी क्षेत्र में, वहां इंडस्ट्रियल ग्रेड ऑक्सीजन को मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन में युद्ध स्तर पर कन्वर्ट किया जा रहा है. देश में ऑक्सीजन एक्सप्रेस के तौर पर चर्चित मालगाड़ियां पटरियों पर दौड़ रही हैं. आज सुबह ही जामनगर से महाराष्ट्र के लिए ऑक्सीजन स्पेशल ट्रेन निकली है. ऑक्सीजन टैंकर्स को ग्रीन कॉरीडोर बनाकर अस्पतालों तक पुलिस के सुरक्षा घेरे में लाया जा रहा है. देश के हर जिले में पीएसए ऑक्सीजन जेनरेशन प्लांट बनाने के लिए केंद्र ने धन मुहैया कराने की घोषणा कर दी है. देश में निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनियां या तो क्रायोजेनिक लिक्विड ऑक्सीजन टैंकर विदेश से खरीदकर फटाफट मंगा रही हैं या फिर अपने प्लांट से देश के तमाम राज्यों में ऑक्सीजन के टैंकर भेज रही हैं.
ऑक्सीजन की कमी सबसे अधिक दिल्ली में
दिल्ली, जहां पर पिछले दिनों ऑक्सीजन की समस्या सबसे गंभीर रही है, उसके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल उन तमाम बड़े औद्योगिक समूहों को पत्र लिखकर ऑक्सीजन देने की प्रार्थना करते फिर रहे हैं, जिन्हें कुछ समय पहले तक वो पानी पी-पीकर गालियां दे रहे थे. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिनकी अगुआई में केंद्र सरकार युद्धस्तर पर ऑक्सीजन मुहैया कराने के लिए तमाम प्रयास कर रही है, वो एक के बाद एक लगातार बैठकें कर रहे हैं. कभी राज्य के मुख्यमंत्रियों के साथ, तो कभी ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनियों के साथ तो कभी ऑक्सीजन का वितरण करने वाली कंपनियों के साथ, ताकि ऑक्सीजन की कमी को तुरंत दूर किया जा सके. और जब बात युद्धस्तर की हो रही है, तो वो सिर्फ मुहावरा नहीं है, बल्कि भारतीय वायुसेना के ग्लोबमास्टर सहित तमाम बड़े मालवाहक जहाज देश के एक कोने से दूसरे कोने में ऑक्सीजन सप्लाई वाले खाली टैंकर्स को पहुंचा रहे हैं, ताकि उनमें ऑक्सीजन भरकर उन्हें तुरंत जहां जरूरत हो, उसके मुताबिक स्पेशल ऑक्सीजन ट्रेन में चढ़ाकर रवाना किया जा सके.
ऑक्सीजन का संकट क्यों गहराया
सवाल ये उठता है कि जब ये सारी कोशिशें हो रही हैं, तो भी ऑक्सीजन को लेकर चीख-पुकार क्यों मची है. क्यों किसी को चाहकर भी जल्दी अपने घर पर ऑक्सीजन का सिलिंडर नहीं मिल पा रहा या फिर अस्पताल ऑक्सीजन की कमी को लेकर परेशान हैं या फिर इन्हें चलाने वाले डॉक्टर कई दफा कैमरे के सामने भी रो रहे हैं, गिड़गिड़ा रहे हैं. य़हां तक कि राजधानी दिल्ली सहित देश के कई शहरों के अस्पतालों में ऑक्सीजन के अभाव में मरीजों की मौत की भी खबर आ रही है. लखनऊ से लेकर पटना, जयपुर से लेकर भोपाल और पुणे से लेकर मुबंई तक यही हाल है.
क्या नहीं थी कोई तैयारी
क्या ये माना जाए कि ऑक्सीजन मुहैया कराने के लिए कोई तैयारी नहीं की गई थी या फिर जो तैयारी की गई थी, वो इतनी पर्याप्त नहीं थी कि कोरोना की सुनामी आने पर डिमांड के हिसाब से ऑक्सीजन की सप्लाई हो सके. इस यक्ष प्रश्न का जवाब तलाशने के पहले देश में मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन का अर्थशास्त्र समझना होगा और देश में इसके हिसाब से ऑक्सीजन की सप्लाई की व्यवस्था को समझना होगा.पहली लहर में नहीं हुई थी ऑक्सीजन की किल्लत
दरअसल पिछले साल मार्च में जब कोरोना ने भारत में दस्तक दी थी और इसके इक्का-दुक्का मामले सामने आने शुरु हुए थे, उसके ठीक पहले फरवरी के महीने में देश में औसतन हजार-बारह सौ मीट्रिक टन मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन की सप्लाई की जरूरत पड़ती थी. अस्पतालों के अंदर सामान्य हालत में न तो वेंटिलेटर की बड़े पैमाने पर जरूरत थी और न ही ऑक्सीजन की. किसी भी बड़े अस्पताल में महीने में एक दफा ऑक्सीजन का टैंकर मंगाने की जरूरत पड़ती थी. लेकिन अप्रैल 2020 आते-आते कोरोना के मामले बढ़ने शुरु हुए तो भी ये मांग 1500 मीट्रिक टन के उपर नहीं गई. लेकिन वहां से सितंबर आते-आते देश में कोरोना का जोर कम होता चला गया और ऑक्सीजन की मांग वापस हजार मीट्रिक टन के पुराने और रुटीन स्तर पर पहुंच गई. ये वही समय था, जब देश में वैक्सीन का डेवलपमेंट होना शुरु हुआ था, पीएम मोदी खुद कई रिसर्च सेंटर पर वैक्सीन डेवलपमेंट की प्रोग्रेस को देखने के लिए गए थे. और आखिरकार 16 जनवरी 2021 से कोरोना वारियर्स को वैक्सीन लगाने की प्रकिया शुरु भी हो गई.
साल की शुरुआत में हर कोई रहा लापरवाह
देश के ज्यादातर लोग और सियासी पार्टियां कोरोना की दूसरी लहर के खतरे से कितनी अंजान थीं, इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि कई राज्यों में स्थानीय स्तर के चुनाव हुए. खुद नेता लोग बिना मास्क पहने फोटो खिंचाने लगे. मास्क नाक और मुंह की जगह गले की शोभा बढ़ाने वाले फैशन आइटम के तौर पर इस्तेमाल होने लगे और शादियों का सिलसिला उफान पर आ गया. पचास सौ कौन कहे, बड़ी तादाद में शादियां और राजनीतिक रैलियों में लोग जुटने लगे. कोरोना गाइडलाइंस की खुलेआम धज्जियां उड़ने लगीं. हद तो ये हुई कि ट्रेन और हवाई जहाज भरकर महाराष्ट्र जैसे राज्यों से लोग यूपी, बिहार के राज्यों में होली मनाने आए और उपहार के तौर पर अपने साथ कोरोना के वायरस लेकर आए, जिसने महाराष्ट्र में फिर से दस्तक दे दी थी. परिणाम ये हुआ कि क्या शहर और क्या गांव कोरोना का संक्रमण बढ़ने लगा.
दिल्ली में भी हुई लापरवाही
राजधानी दिल्ली में भी मानो सबकुछ सामान्य ही हो गया था. सड़कों पर भीड़ देखकर कोई कह नहीं सकता था कि साल भर पहले इस शहर पर कोरोना ने दस्तक दी थी. देश के बाकी शहरों का भी यही हाल रहा. लोक मास्क को तो भूलने लग गए थे. चार जने मिले नहीं कि मास्क उतारकर दिन में चाय और रात में जाम छलकाने लगे. परिणाम ये हुआ कि 15 मार्च से 15 अप्रैल के एक महीने के दौरान देश में कोरोना के बवंडर ने भयावह सुनामी की शक्ल अख्तियार कर ली, जिसने लाखों लोगों को रोजाना अपनी चपेट में लेना शुरु कर दिया.
क्रायोजेनिक ऑक्सीजन टैंकर्स के लिए दिल्ली सरकार ने अखबारों में विज्ञापन दिया है. . क्रायोजेनिक ऑक्सीजन टैंकर्स के लिए दिल्ली सरकार ने अखबारों में विज्ञापन दिया है. .
छह गुना बढ़ी ऑक्सीजन की मांग
वायरस का नया स्ट्रेन एक से पांच नहीं, एक से तीस लोगों तक पहुंच रहा था महज 72 घंटे के अंदर और यही वजह रही कि एक दिन में तीन लाख नए केस की संख्या तक पहुंचने में महज कुछ हफ्तों का समय लगा. और इसी के साथ भारत, जिसने पहली लहर को बड़ी ही होशियारी के साथ झेल लिया था, दूसरे लहर में बेहोश होता नजर आया. लोगों के अस्पताल पहुंचने और मरने का आंकड़ा फटाफट बढ़ता चला गया और इसी के साथ ऑक्सीजन की मांग रॉकेट जैसी तेजी के साथ उछल गई. जिस देश में साल भर पहले कोरोना की पहली लहर में ऑक्सीजन की मांग डेढ़ हजार मीट्रिक टन और हालात सामान्य होने पर हजार मीट्रिक टन से उपर नहीं गई थी, वो मांग सीधे साढ़े छह हजार मीट्रिक टन तक पहुंच गई और ऑक्सीजन की इस मात्रा में समय से सप्लाई नहीं होने के कारण कोहराम मच गया.
केंद्र ने शुरू की पिछले साल ही तैयारी
क्या पीएम मोदी की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने इस बारे में सोचा नहीं था या फिर इस हिसाब से तैयारी नहीं की थी. अगर मामला ऑक्सीजन का लें, तो मोदी सरकार ने यूरोप और अमेरिका में कोरोना की दूसरी लहर आते देख पिछले साल के आखिरी महीनों में ही 162 प्रेशर स्विंग एबजॉर्प्शन (पीएसए) मेडिकल ऑक्सीजन जेनरेशन प्लांट देश के अलग-अलग हिस्सों में लगाने के लिए करीब दो सौ करोड़ रुपये की राशि मंजूर कर दी थी. अक्टूबर 2020 में ही इसके लिए टेंडर जारी कर दिए गए थे. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को देश भर में ये प्लांट लगवाने थे. प्लांट लगाने के पहले संबंधित जगह पर साइट तैयार करने का काम संबंधित राज्य सरकारों को करना था. ये प्लांट सरकारी अस्पतालों के साथ ही लगने थे ताकि संकट के समय ऑक्सीजन की अबाध आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके और टैंकरों पर पूरी तरह आश्रित न रहना पड़े.
देश के हर जिले में लगेंगे अब पीएसए ऑक्सीजन प्लांट
कोरोना की सेकेंड वेव के बाद मोदी सरकार ने इसी रविवार को 551 और जिलों में पीएसए प्लांट पीएम केयर फंड से लगाने की मंजूरी दे दी है. लेकिन विधि की विडंबना ये रही कि दिसंबर 2020 में प्लांट लगाने की जो प्रक्रिया पूरी हो जानी थी, वो हो ही नहीं सकी, क्योंकि ज्यादातर जगहों पर राज्य सरकारों ने साइट तैयार नहीं किए और स्वास्थ्य मंत्रालय को साइट कम्पलिशन सर्टिफिकेट नहीं सौंपे, ताकि वहां पीएसए प्लांट लगाए जा सकें. मंजूर किए गए संयंत्रों की आधी संख्या भी धरातल पर उतारी नहीं जा सकी, राज्य सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं. यहां तक कि जिस राजधानी दिल्ली में सबसे अधिक कोहराम मचा है, वहां भी आठ पीएसए प्लांट लगाने की मंजूरी दी गई थी, लेकिन दिल्ली में चालू हो पाया सिर्फ एक पीएसए प्लांट वो भी बुराडी के अस्पताल में, इसी साल 17 मार्च को जब कोरोना की सुनामी ने दस्तक देनी शुरु कर दी. बाकी सात प्लांट नहीं ऑपरेशनल हो पाए. अगर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों की मानें, तो दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने समय पर साइट कम्पलिशन सर्टिफिकेट ही नहीं दिया, जिसकी वजह से प्लांट लगाने के काम में देरी हुई. ये ज्यादातर प्लांट उन्हीं अस्पतालों में लगने थे, जहां कोरोना के मरीज अटे पड़े हैं ऑक्सीजन के लिए, चाहे दीनदयाल अस्पताल हो या लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल. अगर सभी आठ पीएसए प्लांट चालू हो गए होते, तो दिल्ली के पास करीब साढ़े चौदह मीट्रिक टन का अपना ऑक्सीजन भंडार होता, हालात इतने भयावह नहीं होते.
अप्रैल 2020 में ही दी गई थी मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन बनाने की मंजूरी
सवाल उठता है कि क्या मोदी सरकार सिर्फ पीएसए प्लांट के साथ ही निश्चिंत हो गई थी. ऐसा नहीं था. अगर ऐसा होता तो देश में अचानक पैदा हुई छह हजार मीट्रिक टन की मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन की मांग के हिसाब से उत्पादन संभव नहीं था. मोदी सरकार ने इसके लिए पिछले साल अप्रैल में ही तैयारी कर ली थी, जब कोरोना की पहली लहर ने देश में प्रवेश किया था और किसी को पता नहीं था कि साल भर बाद इतने ब़ड़े पैमाने पर ऑक्सीजन की जरूरत पड़ेगी कि देश और दुनिया में भारत की स्थिति को लेकर हाहाकार मच जाएगा और देशी-विदेशी मीडिया की सुर्खियां बन जाएगी ऑक्सीजन की कमी.
देश में करीब साढे आठ हजार मीट्रिक टन उत्पादन की क्षमता
अप्रैल 2020 में मोदी सरकार ने ये दूरगामी फैसला किया था कि देश में सार्वजनिक क्षेत्र सहित जितने भी महत्वपूर्ण उद्यम हैं, जहां इंडस्ट्रियल ग्रेड ऑक्सीजन का उत्पादन होता है, उन्हें जरूरत पड़ने पर मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन का उत्पादन करने की सुविधा दी जाए. इसी हिसाब से इन सभी बड़े प्लांट को इजाजत दी गई, उन्होंने इसके लिए जरूरी उपकरण और व्यवस्था अपने यहां बनाई और इससे संबंधित सारा प्रोटोकॉल तय हुआ. यही वजह रही कि जब पिछले एक पखवाड़े में अचानक मांग सामान्य जरूरत से छह गुना तक बढ़ गई है, उत्पादन के स्तर पर कोई चुनौती नहीं पैदा हुई. देश में करीब साढ़े आठ हजार मीट्रिक टन ऑक्सीजन के उत्पादन की क्षमता है और करीब 40000 मीट्रिक टन का स्टॉक.
सप्लाई चेन मैनेजमेंट है असली समस्या
फिर प्रश्न ये उठता है कि अगर कोरोना की सुनामी का सामना करने के लिए ऑक्सीजन उत्पादन की पर्याप्त क्षमता मौजूद है, तो फिर देश के कई हिस्सों में ऑक्सीजन के लिए हाहाकार क्यों मचा है. यहां पर चुनौती है सप्लाई चेन मैनेजमेंट की. दरअसल किसी ने कल्पना नहीं की थी कि अचानक इतना ऑक्सीजन इतनी तेजी के साथ ढोकर पहुंचाने की नौबत आ जाएगी, वो भी पूरे देश में एक जैसे पैटर्न की तरह नहीं, बल्कि कही बहुत ज्यादा, तो कही बहुत कम. देखा ये गया है कि ऑक्सीजन का ज्यादातर संकट मुंबई, पुणे, दिल्ली, लखनऊ, पटना जैसे पश्चिम और उत्तर भारत के राज्यों में पैदा हुआ है, जबकि ऑक्सीजन का सबसे अधिक उत्पादन करने वाले प्लांट देश के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में हैं, विशाखापत्तनम, जमशेदपुर, बोकारो, बर्नपुर और दुर्गापुर स्टील प्लांट से लेकर राउरकेला और भिलाई तक.
आसान नहीं है ऑक्सीजन की ढुलाई
ऑक्सीजन की जो प्रकृति है, वही इसकी राह में सबसे बडी बाधा है. एक तरफ सांसों के चलने के लिए ये जरूरी है, तो दूसरी तरफ ये ज्वलनशील भी है. ऐसे में इसे ढोना कोई आसान काम नहीं. आप ऑक्सीजन ढोने वाले खाली टैंकर तो भारतीय वायुसेना के मालवाहक जहाजों से ढोकर देश के एक कोने से दूसरे कोने में महज कुछ घंटों में पहुंचा सकते हैं, लेकिन भरे हुए टैंकर को तेजी से पहुंचाना संभव नहीं. लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन (एलएमओ) टैंकर अपने उपर चढ़ाए हुए मालवाहक ट्रेनों की रफ्तार 60-65 किलोमीटर प्रति घंटे से ज्यादा नहीं हो सकती, तो सड़क पर भी इन टैंकरों की रफ्तार पचास किलोमीटर से उपर नहीं जा सकती.
ऑक्सीजन ढोने के लिए तेजी से खरीदे गए क्रायोजेनिक टैंकर
ज्वलनशील प्रकृति के कारण हवाई जहाज में लिक्विड ऑक्सीजन को ढोना संभव नहीं. ऐसे में उत्पादन पर्याप्त होने के बावजूद इन्हें प्लांट से जरूरतमंद शहरों और अस्पतालों तक पहुंचने में कई दिनों का वक्त लग गया. कोई भी व्यवस्था कोरोना की सुनामी के लिए पर्याप्त नहीं थी. न तो ऑक्सीजन ढोने वाले टैंकर इतनी बड़ी तादाद में थे और न ही नजदीकी जगहों पर फिलिंग स्टेशन. इसीलिए निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनियां भी मदद के लिए कूदीं. खास क्रायोजेनिक टैंकर तक खऱीद कर लेकर आईं, जिसमें लिक्विड ऑक्सीजन ढोया जा सके, जो लिक्विड ऑक्सिजन -219 डिग्री सेल्सियस पर बर्फ बन जाता है और -182 डिग्री सेल्सियस पर भाप. जाहिर है, ऐसे लिक्विड ऑक्सीजन को ढोने के लिए खास धातु से ही टैंकर बनाया जाता है, जिसे लोकप्रिय तौर पर क्रायोजेनिक टैंकर कहा जाता है.
नहीं थी दिल्ली की अपनी तैयारी
जब ऑक्सीजन का संकट शुरु हुआ, तो तमाम राज्यों में अफरातफरी मच गई. खास तौर पर दिल्ली और इसके आसपास के राज्यों में. दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने दिल्ली के लिए कोई अपना ऑक्सीजन जेनरेशन प्लांट लगाने की कोशिश नहीं की. पीएम केयर्स के तहत पीएसए प्लांट लगाने की योजना का लाभ उठाने की कोशिश भी नहीं हुई. यही वजह रही कि दिल्ली पर जब संकट गहराया, तो सिर्फ एक पीएसए प्लांट ही तैयार हो पाया था. एक तरफ दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय स्तर की मुहल्ला क्लीनिक योजना का हल्ला था, दूसरी तरफ ऑक्सीजन की जरूरत पड़ी, तो केंद्र सहित देश के तमाम राज्यों से ऑक्सीजन के लिए गिड़गिडाने की नौबत आ गई. यहां तक कि उन कंपनियों से भी ऑक्सीजन का दान मांगने की नौबत आ गई, जिन कंपनियों को अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में केजरीवाल दिन रात कोसते रहे हैं.
एनसीआर की समस्या है जटिल
दिल्ली की समस्या गंभीर होने के दूसरे कारण भी रहे. एक तो देश की राजधानी, दूसरा ओपिनियन मेकर्स का जमावड़ा. मुंबई सहित महाराष्ट्र में आज भी भले ही कोरोना के सबसे ज्यादा केस आ रहे हों, लेकिन हल्ला दिल्ली को लेकर ही मचा. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का पचडा भी दिल्ली के लिए मुसीबत है. एक तरफ दिल्ली की अपनी आबादी, दूसरी तरफ नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद, सोनीपत जैसे शहरों से यहां रोजाना लाखों लोगों का आना और जाना. कहने को ये शहर दूसरे राज्यों के हैं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इनका भी असर दिल्ली पर. कोई दिल्ली में रहता है, इन शहरों में नौकरी करता है, तो इससे उलट मामला भी. एक साझी कार्ययोजना इस बहती हुई आबादी के लिए बनाना मुश्किल. उससे भी बडी बात ये कि राजधानी दिल्ली में केंद्र सरकार के अपने नियंत्रण वाले चार बड़े अस्पताल, एम्स, सफदरजंग, आरएमएल और लेडी हार्डिंग, बाकी सभी सरकारी अस्पताल दिल्ली सरकार के जिम्मे. इसके चक्कर में कंफ्यूजन और कुप्रबंधन की पूरी गुंजाइश. रही सही कसर केजरीवाल ने पूरी कर ली, जब पीएम मोदी के साथ मुख्यमंत्रियों की बैठक के दौरान अपनी सभी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए ऑक्सीजन की कमी के लिए जिम्मेदारी केंद्र के मत्थे मढ़ने की कोशिश कर ली.
हेल्थ ठीक रखने की जिम्मेदारी किसकी
दिल्ली तो ठीक, देश की ज्यादातर विपक्षी सरकारों ने ऑक्सीजन की कमी का ठीकरा मोदी सरकार के मत्थे फोड़ने की कोशिश की. और सवाल सिर्फ ऑक्सीजन का ही नहीं, वेंटीलेटर से लेकर वैक्सीन की कमी तक का. हालांकि राज्य की शक्तियों में केंद्र के हस्तक्षेप का रोना रोने वाली ज्यादातर राज्य सरकारें भूल जाती है कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के तहत पब्लिक हेल्थ और हॉस्पिटल राज्य की सूची में आते हैं, न तो केंद्रीय सूची में और न ही समवर्ती सूची में. कोरोना के दौरान राज्यों की इस स्तर पर खामियों को देखते हुए ही वित्त आयोग ने पब्लिक हेल्थ को समवर्ती सूची में डालने की सलाह दी है, लेकिन राज्य सरकारों ने अभी तक अपनी सहमति नहीं जताई है.
संकट गहराते ही पीएम मोदी ने ली अपने हाथ में कमान
केंद्र और राज्य के बीच की इस व्यवस्था के बीच ऑक्सीजन संकट का ठीकरा भी पीएम मोदी के मत्थे फोड़ने की कोशिश हुई. सवाल ये है कि आखिर मोदी ने इसके लिए क्या किया. क्या राज्यों को आगाह नहीं किया गया, तैयारी नहीं की गई. कोरोना की दूसरी लहर की आगाही देते हुए कई पत्र केंद्र की तरफ से राज्य सरकारों को भेजे गए. लेकिन ज्यादातर राज्य सरकारों ने इस संकट को खत्म मानते हुए कोई तैयारी नहीं की. आखिरकार जब अपैल के पहले हफ्ते के बाद संकट काफी गहरा गया, तो पीएम को मैदान में कूदना पड़ा. दो दफा राज्य के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक, तो एक बार राज्यपालों के साथ बैठक इस दौरान हुई.
हफ्ते भर में सप्लाई ठीक हो जाने की उम्मीद
ऑक्सीजन के कोटे से लेकर एक-दूसरे के यहां ऑक्सीजन के टैंकर रोके जाने का राज्यों का पचड़ा भी पीएम को सुलझाना पड़ा और फिर हवाई जहाज से लेकर ट्रेन तक चलानी पड़ी समस्या को हल करने के लिए. अगर उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो इन तमाम प्रयासों से अगले एक हफ्ते के अंदर देश के ज्यादातर हिस्सों में ऑक्सीजन की सप्लाई सामान्य हो जाएगी, इसके लिए मचा कोहराम खत्म हो जाएगा और इस के साथ ही कोरोना की सुनामी जैसी दूसरी लहर भी अपनी अधिकतम उंचाई छूने के बाद नीचे की तरफ आनी शुरु हो जाएगी.
कोरोना की सुनामी सबके लिए है सबक
इस सुनामी के कई सबक हैं. राज्य सरकारों को सप्लाई चेन दुरुस्त करने के बारे में सोचना होगा, हर जिले में ऑक्सीजन के पीएसए प्लांट स्थापित करने होंगे, निजी अस्पतालों को भी जरूरत के हिसाब से अपनी सप्लाई को दुरुस्त करना होगा. देश में मेडिकल ऑक्सीजन का धंधा मोटे तौर पर निजी हाथों में है. आईनॉक्स और लिंड जैसी कंपनियों का नाम रातोंरात देश के लोगों की जुबान पर चढ़ गया है, क्योंकि इन कंपनियों के ऑक्सीजन टैंकरों ने संजीवनी जैसी भूमिका अख्तियार कर ली है, फिलहाल इनमें लदा ऑक्सीजन मिल गया, तो जान बच जाएगी. और नहीं आए टैंकर समय पर तो फिर कोहराम, मरीज की जान सांसत में, जान जाने का गंभीर खतरा. ये स्थिति कही से भी उचित नहीं है. इसके लिए आवश्यक है कि हर जिले में प्राथमिकता के आधार पर पीएम केयर्स की फंडिंग वाले पीएसए प्लांट लगाए जाएं, ताकि सामान्य हालत में ऑक्सीजन की सप्लाई स्थानीय स्तर पर ही सुनिश्चित की जा सके और दूर-दराज से ऑक्सीजन लेकर आने वाली टैंकर सेवा टॉप अप के तौर पर. ऑक्सीजन की स्थानीय व्यवस्था प्रचुर मात्रा में नहीं होने के कारण ही कोहराम मचा.
जहां तैयारी थी, वहां नहीं मचा कोहराम
इस कोहराम का असर उन शहरों या राज्यों पर नहीं रहा, जहां कोरोना सुनामी की आशंका के मद्देनजर तैयारी कर ली गई थी. मसलन जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने तीन महीने पहले ही इस केंद्र शासित प्रदेश के सभी जिलों में कैप्टिव ऑक्सीजन प्लांट लगाने की योजना पर काम शुरु कर दिया था, जिससे आरंभ में वहां की नौकरशाही को भी विरोध था, माना ये जा रहा था कि वहां इसकी जरुरत नहीं पडेगी. लेकिन सिन्हा को पता था कि अगर जरूरत पड़ गई तो इस पहाड़ी प्रदेश में ऑक्सीजन की सप्लाई आसान नहीं होगी, बल्कि मैदानी इलाकों से ऑक्सीजन के टैंकर पहुंचाने में कई दिन लग जाएंगे और इस दौरान मरीज की जान निकल जाएगी. सिन्हा की ये तैयारी आज जम्मू-कश्मीर के काम आ रही है.
यही हाल गुजरात के सबसे बड़े शहर अहमदाबाद का रहा. अहमदाबाद नगर निगम ने साठ लाख से ज्यादा आबादी वाले शहर में ऑक्सीजन की समस्या पैदा होने का अंदाजा लगा लिया था. ऐसे में नगर निगम के अधिकारियों ने रातों रात कलोल और कच्छ से ऑक्सीजन रखने वाले सिलिंडर खरीद कर मंगाए और अपनी स्टोरेज कैपेसिटी को भी दुरुस्त किया. यहां तक कि अलंग के शिप ब्रेकिंग यार्ड में पुराने जहाजों पर लगे ऑक्सीजन सिलिंडर भी फटाफट खरीद कर मंगाए गए. शहर की औद्योगिक इकाइयों को भी उद्योग की जगह मेडिकल यूज के लिए ऑक्सीजन देने के लिए राजी कर लिया. जाहिर है, अहमदाबाद में दिल्ली जैसा कोहराम ऑक्सीजन के लिए नहीं मचा.
जरूरत है बेहतर समन्यव और मॉनिटरिंग की
देश के किसी भी हिस्से में ऐसा कोहराम नहीं मचे, इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को साथ मिलकर काम करना होगा. केंद्र को राज्यों में स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं लागू हों, ये दबाव बनाकर सुनिश्चित करना होगा, मॉनिटर करना होगा. राज्यों को अपना आलस्य त्यागना होगा, उन बड़े कॉरपोरेट अस्पतालों को ऑक्सीजन सप्लाई की चिंता करनी होगी, जो कोरोना के इस काल में लाख रुपये प्रति दिन तक मरीजों से चार्ज कर रहे हैं, लेकिन ऑक्सीजन की अपनी व्यवस्था नहीं कर सरकार का रोना रो रहे है. अगर इन सभी संबंधित पक्षों ने अपना काम नहीं किया तो फिर से एक ऐसी सुनामी आएगी और फिर से व्यवस्था की धज्जियां उड़ जाएगी, कोहराम मच जाएगा और हजारों लोगों की जान चली जाएगी ऑक्सीजन के अभाव में, उस प्राणवायु के अभाव में, जिसकी सामान्य हालत में कीमत 17-18 रुपये प्रति किलोलीटर होती है, जो आज बढ़कर 35-36 रुपये प्रति किलोलीटर हो गई है.
आम जनता को भी निभानी होगी अपनी जिम्मेदारी
कोहराम मचाने वाले लोगों को भी कोरोना से बचने के लिए सावधानियां बरतनी होंगी, अन्यथा कोरोना पीड़ितों का एक फीसदी हिस्सा, जिसे ऑक्सीजन की खास जरूरत पड़ती है, उसको भी समय पर ऑक्सीजन पहुंचाना चुनौतीपूर्ण हो जाएगा. कोरोना का गंभीर तौर पर शिकार होने पर एक व्यक्ति हर मिनट ऑक्सीजन सपोर्ट पर रहने के दौरान दस लीटर और वेंटिलेटर पर चढ़ने पर साठ लीटर ऑक्सीजन पीता है, जो तादाद चौबीस घंटे में हजारों लीटर हो जाती है. इसके लिए कभी कोई व्यवस्था मुकम्मल नहीं हो सकती है, अगर सुनामी जैसे हालात हो जाएं, चाहे आप जितना भी रो पीट लें, हंगामा मचा लें या फिर जान चली जाए. उन अदालतों और ग्रीन ट्रिब्यूनलों को भी सोचना होगा, जो आग लगने पर कुंआ खोदने जैसी तेजी के साथ आदेश तो देती है, लेकिन सामान्य हालात में पर्यावरण नियमों को आगे कर ऐसे संयंत्रों को न तो लगने देती हैं और न ही लग जाने पर चलने देती हैं. तमिलनाडु का वेदांता प्लांट इसका उदाहरण है, जो वैसे तो हजार मीट्रिक टन ऑक्सीजन का उत्पादन कर सकता है, लेकिन अदालती पचड़ों में खुद हवा खा रहा है. जरूरत है इस सुनामी से सबक लेने की, अन्य़था सबको गंभीर कीमत चुकाने की तैयारी रखनी पड़ेगी. (डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं.)
ब्लॉगर ब्रजेश कुमार सिंह