शकील अख्तर
क्या राजनीति में वंशवाद के आरोपों में कोई सच्चाई होती है? या यह आरोप लगाने में सबसे आसान है इसलिए चाहे जब इसे थोप दिया जाता है? आज भाजपा उससे पहले समाजवादी जिस आरोप को नेहरू गांधी परिवार पर सबसे ज्यादा लगाते रहे उसे अब असंतुष्ट कांग्रेसियों ने भी लगाना शुरू कर दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखने वाले 23 वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं नेजिस आरोप को अप्रत्यक्ष रूप से लगाया था उसे उत्तर प्रदेश के पार्टी से निकाले गए 9 नेताओं ने खुल कर लगा दिया। 23 नेताओं के तर्ज पर ही लिखे पत्र में इन नेताओं ने सोनिया गांधी से कहा कि वे परिवार से उपर उठकर सोचें!
कांग्रेस में ऐसे नेताओं की तादाद बहुत नहीं है लेकिन ज्यादा मुखर होने और मीडिया द्वारा प्रचारित करने के कारण लगता है कि कांग्रेस अब दो फाड़ होने ही वाली है। एक परिवार वाली और दूसरी बागियों की। लेकिन कांग्रेस के बाहर से भी पूरा समर्थन मिलने के बावजूद बागी पार्टी तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं तो आखिर क्यों?
क्या इसका कारण यह है कि जनता से उन्हें समर्थन मिलने की उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है। या जो लोग पार्टी के बाहर से उन्हें हवा दे रहे हैं उनका कहना है कि आप लोग पार्टी में रहकर ही अगर परिवारवाद का मुद्दा उठाते रहेंगे तो शायद एक न एक दिन जनता पर उसका असर हो जाए। जो भी हो फिलहाल तो पं. जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद से यह सवाल उठाया जाता रहा है और जनता ने कभी इस पर विश्वास नहीं किया। अगर किया होता तो आज की बात छोड़िए, नरसिंहा राव और सीताराम केसरी के बाद सोनिया कभी कांग्रेस अध्यक्ष बनाई ही नहीं जातीं। और कांग्रेसियों ने अगर उन्हें जबर्दस्ती पार्टी और देश पर थोप ही दिया था तो जनता उनके कहने से 2004 में सत्ता परिवर्तित नहीं करती।
जनता अपने अनुभवों और सहज ज्ञान से नतीजों पर पहुंचती है। उसने बड़े बड़े राजे रजवाड़ों की वंश परंपरा नकार दी तो वह एक कश्मीरी पंडित की वंश परंपरा से क्यों बंधी रहती? और अगर वंशवाद चलता है तो यह आरोप लगाने वाले निष्कासित कांग्रेसी अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश के बड़े कांग्रेसी नेताओं की वंशावली को देख लें कि उनके वंशज क्यों नहीं चले? कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, उससे पहले गोविन्द वल्लभ पंत कितने ऐसे बड़े नेता रहे जिनके बच्चे एक सीमा से आगे राजनीति में नहीं जा पाए! हो सकता है जनता एकाध बार मां पिता या पूर्वजों के नाम पर समर्थन दे दे मगर 50 -55 साल से सिर्फ परिवार के नाम पर जनता और कार्यकर्ता साथ नहीं दे सकते।
आज सबसे ज्यादा आरोप राहुल गांधी पर लग रहे हैं। गैर कांग्रेसी दलों के आरोप तो समझ में आते हैं कि वे राजनीति के कारण ऐसा करते हैं। मगर खुद कांग्रेस के नेता जब राहुल पर आरोप लगाते हैं तो क्या उन्हें यह नहीं दिखता कि आज भी कोरोना जैसी महामारी के समय अगर सबसे ज्यादा सक्रिय कोई नेता है तो वह राहुल गांधी है। आज युवाओं के रोजगार का मुद्दा सबसे बड़ाहै। राहुल इसे उठा रहे हैं। "स्पीक अप फार जाब्स" आंदोलन शुरू कर दिया। रोजगार के लिए आवाज उठाओ! कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने रोजगार के लिए युवाओं के नो बजे नो मिनट आंदोलन का समर्थन किया तो उत्तर प्रदेश की सड़कों पर युवाओं के साथ कांग्रेसी कार्यकर्ता भी बड़ी तादाद में कैंडिल और मोबाइल की टार्चे जलाते हुए सड़कों पर निकल आए।
कांग्रेस के किस बागी नेता ने इस आंदोलन का समर्थन किया? युवाओं को आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया ? अर्थ व्यवस्था से लेकर, कोरोना, चीन के रवैये हर विषय पर इन बागी कांग्रेसी नेताओं की क्या सक्रियता है? और राहुल गरीब, मजदूर, किसान, छोटे दुकानदार, बेरोजगार युवा, इस महामारी में जी और नीट के टेस्ट देने की मजबूर किए जा रहे स्टूडेंट सबकी आवाज उठा रहा है। तो यह राहुल की अपनी मेहनत, जनता के प्रति प्रतिबद्धता और साहस है या वंशवाद? राहुल को अक्षम साबित करने में भाजपा ने कोई कसर उठा कर नहीं रखी। अगर कोई दूसरा होता तो इन उपहासों के सामने अपना आत्मविश्वास खो देता। लेकिन राहुल अपने राजनीतिक विरोधियों का मुकाबला करते रहे।
मगर आज कांग्रेस की राजनीति में शायद सबसे अजीब मुकाम आया है जब राहुल के इतने संघर्ष के बावजूद सोनिया गांधी के विश्वासपात्र रहे लोग उनसे राहुल पर सवाल पूछ रहे हों। और सिर्फ सवाल ही नहीं पूछ रहे परिवारवाद का आरोप भी लगा रहे हैं। सवाल उस सोनिया गांधी से कर रहे हैं जिन्होंने सिर्फ 2004 नहीं 2009 भी जीतकर इन्हीं कांग्रेसियों को सौंप दिया था। किन कांग्रेसियों को? उन्हें जो अपनी दम पर एक चुनाव नहीं जीत सकते। उन्हें जिनके कहने से 1998 में अपनी अनिच्छा के बावजूद वे राजनीति में आईं थीं। उनके जिनके कहने से वे 2019 में अपनी अस्वस्थता के बावजूद दोबारा अध्यक्ष बनने को मान गईं थीं। यह जिम्मेदारी का अहसास है या वंशवाद का फायदा उठाना? आरोप लगाना बहुत आसान है मगर जनता के बीच काम करना और उनका विश्वास जीतना बहुत मुश्किल।
उत्तर प्रदेश की तरह मध्य प्रदेश भी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि राजनीति में वंशवाद नहीं चलता। मध्य प्रदेश में भाजपा के उदाहरण देखिए। संविद सरकार का जरा सा अरसा छोड़ दीजिए उसके बाद यहां भाजपा के तीन मुख्यमंत्री बने। सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी और वीरेन्द्र कुमार सकलेचा। तीनों बड़े नेता। लेकिन उनमें से किसी का वंशज नहीं बल्कि सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड एक अन्य भाजपा के नेता शिवराज सिंह चौहान ने ही बनाया। बच्चों को स्थापित करने की सबने कोशिश की मगर जनता ने नहीं स्वीकार तो राजनीति में नहीं चले। शिवराज अपनी मेहनत से वह रिकार्ड बनाने में कामयाब रहे जो राज्य में दोनों पार्टियों के किसी नेता को नसीब नहीं हुआ। मध्य प्रदेश में इसी तरह कांग्रेस के बड़े नेता रहे अर्जुन सिंह के पुत्र राहुल भैया उर्फ अजय सिंह भी एक सीमा से आगे नहीं निकल पाए।
आज मध्य प्रदेश में कांग्रेस के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के बेटों की भावी राजनीति की चर्चा है। दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्द्धन सिंह और कमलनाथ के बेटे नकुल नाथ दोनों संभावनाशील हैं। दोनों के पिता बड़े नेता। लेकिन क्या इससे बेटों का राजनीतिक कैरियर एक सीमा से उपर उठ पाएगा? नहीं। क्रीज पर तो खुद रन बनाना होंगे। जिसमें जितनी मेहनत करने का माद्दा होगा, जनता से जुड़ाव होगा, राजनीति को साधना आता होगा वह उतना आगे जाएगा। वंश की भूमिका एक स्थिति के बाद खत्म हो जाती है। ग्वालियर का सिंधिया परिवार इसका एक बड़ा उदाहरण है। उस परिवार जैसा प्रभाव मध्य प्रदेश की राजनीति में किसी का नहीं रहा। मगर अब क्या ज्योतिरादित्य अपने सिंधिया परिवार के नाम पर जनता का समर्थन पा पाएंगें? भाजपा में जाने के बाद अभी जब वे पहली बार ग्वालियर गए तो उनका जिस तरह विरोध हुआ वह अप्रत्याशित था। जयविलास पैलेस के सामने सिंधिया गद्दार है के नारे लगने की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। ज्योतिरादित्य के लिए एक दिन में सब कुछ बदल गया।
सिंधिया तो बड़ा राजघराना रहा। इस नाते उसका बड़ा सम्मान रहा। दिग्विजय सिंह उम्र में, राजनीति में, दस साल लगातार मुख्यमंत्री रहने के कारण पद में हर लिहाज से ज्योतिरादित्य से बड़े हैं। मगर वे हमेशा उन्हें महाराज साहब ही कहते हैं। अब, जब सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं शायद तब भी वे उसी सम्मान से संबोधित करते हैं। लेकिन जनता का मामला बिल्कुल अलग होता है। समय आने पर वह सदियों से मान रहे राजवंश को भी एक मिनट में खारिज कर देती है। लेकिन यहां भी फर्क है। इसे भी सिधिंया परिवार के उदाहरण से ही अच्छी तरह समझा जा सकता है। राजनीति की समझ रखने वाले को जनता आसानी से खारिज नहीं कर सकती। इसी परिवार की वसुंधरा राजे अभी भी अपना जलवा कायम रखने में कामयाब हैं। और वह भी दूसरे प्रदेश राजस्थान में जाकर। क्या है वसुंधरा की खासियत? उनकी विश्वसनीयता। ज्योतिरादित्य ले वही खो दी। जबकि एक मजेदार तथ्य और है जो कम लोगों को मालूम होगा कि सिंधिया परिवार में पहली चुनावी हार का सामना वसुंधरा को ही करना पड़ा था। वे 1984 का लोकसभा चुनाव भिंड- दतिया संसदीय क्षेत्र से हार गईं थी। उसके बाद परिवार में दूसरी हार ज्योतिरादित्य की हुई जो 2019 में गुना शिवपुरी से हारे। इसके अलावा इस परिवार में विजयाराजे सिंधिया से लेकर अब तक और कोई सदस्य चुनाव नहीं हारा है। और तो और विजयाराजे एवं माधवराव सिंधिया के टाइम तक ये अपने ड्राइवर को भी टिकट दिलाते थे और वह जीत जाता था। उसे संसदीय सचिव तक बनते हमने देखा है। लेकिन वही जनता 2019 में ड्राइवर के हाथों ही ज्योतिरादित्य को चुनाव हरवा देती है।
लोकतंत्र में जनता से बड़ा कोई नहीं होता। वह जब अपनी पर आ जाती है तो उसके सामने कोई वंश या राजवंश नहीं चलता। इसलिए कुछ कांग्रेसी अगर वंशवाद के आरोपों के जरिए राहुल गांधी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं तो उनके हाथ सफलता लगना संभव नहीं है। अगर कांग्रेस में ही उन्हें गैर परिवार का अध्यक्ष चाहिए तो इसके लिए उनके पास इससे बेहतर कोई समय नहीं है। परिवार खुद यह कांटों का ताज किसी को सौंपना चाहता है। लेकिन देश की सबसे पुरानी और आजादी की लड़ाई की विरासत लिए हुए इस पार्टी का अध्यक्ष बनने के लिए उन्हें छल छद्म का सहारा छोड़ना होगा। पार्टी से वफादारी और कार्यकर्ताओं का विश्वास जिसके पास होगा उसे नेतृत्व देने कांग्रेस के नेता खुद घर जाएंगे। जैसे देश का नेतृत्व डा. मनमोहन सिंह को सौंपा था।