- कुमार कृष्णन
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा बांका जिले के मंदार पर्वत पर बिहार के दूसरे रोपवे का उद्धघाटन के बाद पर्यटन को बढ़ावा तो मिलेगा ही साथ में स्थानीय लोगों को रोजगार का अतिरिक्त साधन भी मिलेगा। पर्यटक ऊंचाई से मंदार की वादियों का मजा ले सकेंगे। काफी लंबे अरसे से इसकी घोषणा होती रही।अब चिरलंवित सपना साकार हो रहा है।
मंदार में रज्जू मार्ग का सपना बांका के पूर्व सांसद पूर्व रेल राज्य मंत्री स्वर्गीय दिग्विजय सिंह ने देखा था। जिसके लिए उन्होंने अपने स्तर से काफी प्रयास भी किया था। यही वजह थी कि 2004 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत को वह मंदार लेकर आए थे। इसके बाद मंदार में रोपवे की चर्चा काफी गंभीर हो गयी।
2007 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मंदार पहुंचकर रोपवे निर्माण के बारे में बताया था और कहा था कि मंदार में रोपवे का निर्माण होना चाहिए।इसके बाद बांका के तत्कालीन पर्यटन मंत्री डॉक्टर जावेद इकबाल के प्रयास से 20 जनवरी 2014 को तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के द्वारा मंदार में रोपवे निर्माण का शिलान्यास किया गया।
1 सितंबर 2015 को उन्होंने मंदार तराई के नजदीक रज्जू मार्ग निर्माण के लिए भूमि पूजन किया।लेकिन इसके पूर्ण होने में छह साल लग गए। चार सीटर रोप-वे में आठ केबिन हैं।इससे मंदार पहाड़ की उचाई 786 मीटर जाने में पांच मिनट लगेगा।एक बार में 16 यात्री सवार हो सकेंगे केबिन में 500 किलोग्राम तक के चार यात्रियों को आसानी से ले जाया जा सकता है। 90 बिजली पोल के सहारे विद्युत पर्वत शिखर तक पहुंचाई गई है।
सबसे पहला रोपवे बिहार के नालंदा जिले के राजगीर में 1969 में बनाया गया था।जबकि रोहतास किला पर जाने के लिए भी रोपवे का निर्माण किया गया है। यह बिहार का दूसरा रज्जू मार्ग था। अब मंदार में रोपवे बिहार का तीसरा रोपवे है, जो यहां के लोगों के लिए सपना था।
बिहार के बांका जिला स्थित यह वही क्षेत्र है, जहां 'मधु' का संहार कर भगवान विष्णु 'मधुसूदन' कहलाए। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने मधुकैटभ राक्षस को पराजित कर उसका वध किया और उसे यह कहकर विशाल मंदार के नीचे दबा दिया कि वह पुन: विश्व को आतंकित न करे। दूसरी तरफ महाभारत में वर्णित है कि समुद्र मंथन में देव और दानवों के पराजय के प्रतीक के रूप में ही हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर यह मेला लगता है।
इसके विपरीत पापहरणी से जुड़ी किंवदंती के मुताबिक कर्नाटक के एक कुष्ठ पीडि़त चोलवंशीय राजा ने मकर संक्रांति के दिन इस तालाब में स्नान कर स्वास्थ्य लाभ किया था और तभी से उसे पापहरणी के रूप में प्रसिद्धि मिली। इसके पूर्व पापहरणी 'मनोहर कुंड' के नाम से जानी जाती थी। एक अन्य किंवदंती है कि मौत से पहले ही मधुकैटभ ने अपने संहारक भगवान विष्णु से यह वायदा लिया था कि हर साल मकर संक्रांति के दिन वह उसे दर्शन देने मंदार आया करेंगे।
समुद्र मंथन के प्रतीक मंदार पर्वत की हकीकत क्या है? क्या वास्तव में देवासुर संग्राम में इसे मथानी बनाया गया था? और उस क्रिया में जिस नाग को रस्सी की तरह प्रयोग में लाया गया था, पहाड़ पर अंकित लकीरें क्या उसी का साक्ष्य हैं या कि यह पर्वत एक प्रतीक है आर्य-अनार्य टकराव का? इस पहाड़ से जुड़े सिर्फ धार्मिक पक्ष को ही स्वीकार करें, तब भी इस सच्चाई की तीव्रता जरा भी कम नहीं होती। समुद्र मंथन से निकले गरल का पान भगवान शंकर ने किया। वह भगवान शंकर आज भले ही सर्वत्र पूजनीय हों लेकिन समुद्र मंथन तक वे अनार्यों (असुरों) के देवता के रूप में ही मान्य थे। यही नहीं, आज भले ही मंदार की भौगोलिक सीमा में मधुसूदन की जय-जयकार लगती हो, समुद्र मंथन के वक्त तक वहां भगवान शिव के ही त्रिशूल चमकते थे।
इसका प्रमाण भगवान पुराण में वर्णित तथ्य में भी है कि मंदरांचल की गोद में देवताओं के आम्रवृक्ष हैं, जिसमें गिरिशिखर के समान बड़े-बड़े आम फलते हैं। आमों के फटने से लाल रस बहता है तथा यह रस अरूणोदा नामक नदी में परिणत हो जाता है। यह नदी मंदरांचल शिखर से निकलकर अपने जल से पूर्वी भाग को सींचती है। पार्वती जी की अनुचरी यक्ष पुत्रियां इस जल का सेवन करती हैं। इससे उनके अंगों से ऐसी अद्भुत सुगंध निकलती है कि उन्हें स्पर्श कर बहने वाली हवा चारों ओर दस-दस योजन तक सारे देश को सुगंध से भर देती है। गौरतलब है कि पार्वती की मौजूदगी शिव की उपस्थिति का संकेत देती है। फिर मंदार के भूगोल पर वैष्णव मत का परचम क्यों और कैसे लहराया? प्रारंभ में शिव अनार्यों के देवता के रूप में ही मान्य थे जबकि विष्णु आर्यों के देवता के रूप में।
सभ्यता के श्रृंगार का श्रेय भले ही आर्यों को जाता हो, उसे विनाश से बचाने में अनार्यों का त्याग काफी सराहनीय रहा है। यदि समुद्र मंथन के ही दृष्टांत को लें तो विषपान भगवान शंकर ने ही किया। किसी अन्य देवता ने वही साहस क्यों नहीं किया? इसका मतलब है कि विश्व रक्षा और मानव कल्याणार्थ वह कदम भी अनार्यों के प्रतिनिधि देवता शंकर ने उठाया और उसी सर-जमीन पर आगे चलकर आर्य सभ्यता का विकास हुआ। मधुकैटभ की मौत के साथ ही मंदार पर शैव मत का प्रभाव भी खत्म हो गया। असुर का तात्पर्य अनार्य से है। यही अनार्य आज की भाषा में आदिवासी कहकर पुकारे जाते हैं।
आदिम सभ्यता इतिहास की मोटी परतों तले दफन होकर रह गई है। वैष्णव मत के प्रचार-प्रसार से पूर्व यहां शैव मत का ही बोलबाला था। यह सच्चाई सिर्फ अंग जनपद की ही नहीं है बल्कि विश्व की प्राचीन सिंधु सभ्यता भी कुछ यही जाहिर करती है। सिंधु सभ्यता के मूल निवासी आर्य थे या अनार्य, इस पर भले ही विद्वानों में मतभेद हों लेकिन वहां के लोग शिव के उपासक थे, यह बात आईने की तरह साफ हो चुकी है। कुछ विद्वानों के मुताबिक आर्य निश्चित रूप से शिवलिंग की पूजा नहीं करते थे जबकि मूर्ति पूजा सिंधु की तराई में प्रचलित थी। यह भी पता चलता है कि धीरे-धीरे आर्य सभ्यता का विस्तार उन क्षेत्रों में भी हुआ, जहां अनार्य सभ्यता का बोलबाला था।
जहां तक मंदार का सवाल है, मिलने वाले प्रमाणों से जाहिर है कि वहां भी कभी आसुरों का साम्राज्य कायम था, जो शिव के उपासक थे और आर्यों के यज्ञ प्रधान धर्म से सहमत नहीं थे। जहां तक आर्यों के यहां आगमन का प्रश्न है, यह काल अथर्ववेद की रचना के पूर्व का ही होने का संकेत मिलता है क्योंकि अथर्ववेद में मगध की चर्चा मिलती है। उस समय इस क्षेत्र में आर्य सभ्यता फैल रही थी। आर्य सभ्यता के इस फैलाव में निश्चित ही अनार्यों की पराजय हुई होगी उसके बाद वहां वैष्णव मत का प्रचार-प्रसार भी हुआ होगा। तब जो अनार्य थे, वही आज आदिवासी हैं और बदली हुई सच्चाई यह है कि शिव और विष्णु दोनों ही देवता आज हिन्दुओं के पूज्य है जबकि आदिवासियों की आसक्ति आज भी शिव के प्रति है। खामोश खड़ा मंदार पर्वत आज भी सांस्कृतिक गरिमा बिखेर रहा है। पोर-पोर में उकेरी हुई कलाकृतियां अपने अतीत से रूबरू करा रही हैं।
मंदार भागलपुर प्रमंडल के बांका जिला के बौसी में है। मंदार पर्वत के मध्य में शंखकुंड अवस्थित है। कुछ वर्ष पूर्व इस कुंड में करीब बीस मन का शंख देखा गया था। मान्यता है कि शंख की ध्वनि से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। मंदार पर्वत पर चढऩे के लिए करीने से पत्थर की सीढिय़ां तराशी हुई हैं। कहते हैं कि ये सीढिय़ां उग्र भैरव नामक राजा ने बनवायी थीं। मंदार पर्वत पर चढऩे के साथ ही सीताकुंड मिलता है।
पर्वत के ऊपर एक बहुत बड़ी मूर्ति है, जिसकी पहचान लोग विभिन्न रूपों में करते हैं। थोड़ा आगे आने पर एक स्तंभ पर छोटी-मोटी मूर्तियां हैं, जो सूर्य देवता की हैं। थोड़ा ऊपर जाने पर एक काफी बड़ी मूर्ति है, जिसके तीन मुख और एक हाथ है। यह मूर्ति महाकाल भैरव की बतायी जाती है, यहीं पर एक छोटी मूर्ति गणेश की तथा दूसरी सरस्वती की थी। ये मूर्तियां भागलपुर के संग्रहालय में रखी हुई हैं। अभी भी गुफा में कुछ मूर्तियां रखी हुई हैं। मध्य में नरसिंह भगवान का एक मंदिर है। पहाड़ के बीचों-बीच 6 फुट की दूरी पर दो समानान्तर गहरे दाग हैं।
मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान नागनाथ और सांपनाथ के लपेटे जाने का यह प्रतीक है। मंदार की तलहटी में स्थित पापहरणी सरोवर के मध्य में अष्टकमल मंदिर है, जो सरोवर को भव्यता प्रदान करते हैं। इस मंदिर में विष्णु, महालक्ष्मी, ब्रह्मा की आकर्षक मूर्तियां विराजमान हैं। पद्मश्री चित्तू टुडू बताते थे कि संथाली गीतों में भी मंदार की महिमा का जिक्र है। वहीं मंदार में जैन धर्म के बारहवें भगवान वासुपूज्य ने कैवल्य प्राप्त किया।
तदुपरांत संसार के समस्त जीवों को घूम-घूमकर धर्मोपदेश देते हुए मंदार शिखर पर ही इन्हें निर्वाण प्राप्त हो गया। आज भी भगवान वासुपूज्य के तपकल्याणक की प्रतीक गुफा मंदार पर्वत पर विराजमान है, जिसकी प्राकृतिक छटा मनमोहक है। यहां साल भर जैन धर्मावलंबियों, तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की भीड़ रहती है। वेदव्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास, जयदेव, कालिदास जैसे साहित्य सृष्टाओं ने अपनी लेखनी से मंदार या मंदरांचल को चिर अमरत्व प्रदान किया है तो फ्रांसिस बुकानन, शेरविल, सर जॉन फेथफल, फ्लीट, मौटगोमेरी मार्टिन जैसे पाश्चात्य विद्वानों को भी मंदार ने आकर्षित किया।
बिहार के बांका जिला स्थित यह वही क्षेत्र है, जहां 'मधु' का संहार कर भगवान विष्णु 'मधुसूदन' कहलाए। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने मधुकैटभ राक्षस को पराजित कर उसका वध किया और उसे यह कहकर विशाल मंदार के नीचे दबा दिया कि वह पुन: विश्व को आतंकित न करे। दूसरी तरफ महाभारत में वर्णित है कि समुद्र मंथन में देव और दानवों के पराजय के प्रतीक के रूप में ही हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर यह मेला लगता है।
इसके विपरीत पापहरणी से जुड़ी किंवदंती के मुताबिक कर्नाटक के एक कुष्ठ पीडि़त चोलवंशीय राजा ने मकर संक्रांति के दिन इस तालाब में स्नान कर स्वास्थ्य लाभ किया था और तभी से उसे पापहरणी के रूप में प्रसिद्धि मिली। इसके पूर्व पापहरणी 'मनोहर कुंड' के नाम से जानी जाती थी। एक अन्य किंवदंती है कि मौत से पहले ही मधुकैटभ ने अपने संहारक भगवान विष्णु से यह वायदा लिया था कि हर साल मकर संक्रांति के दिन वह उसे दर्शन देने मंदार आया करेंगे।
समुद्र मंथन के प्रतीक मंदार पर्वत की हकीकत क्या है? क्या वास्तव में देवासुर संग्राम में इसे मथानी बनाया गया था? और उस क्रिया में जिस नाग को रस्सी की तरह प्रयोग में लाया गया था, पहाड़ पर अंकित लकीरें क्या उसी का साक्ष्य हैं या कि यह पर्वत एक प्रतीक है आर्य-अनार्य टकराव का? इस पहाड़ से जुड़े सिर्फ धार्मिक पक्ष को ही स्वीकार करें, तब भी इस सच्चाई की तीव्रता जरा भी कम नहीं होती। समुद्र मंथन से निकले गरल का पान भगवान शंकर ने किया। वह भगवान शंकर आज भले ही सर्वत्र पूजनीय हों लेकिन समुद्र मंथन तक वे अनार्यों (असुरों) के देवता के रूप में ही मान्य थे। यही नहीं, आज भले ही मंदार की भौगोलिक सीमा में मधुसूदन की जय-जयकार लगती हो, समुद्र मंथन के वक्त तक वहां भगवान शिव के ही त्रिशूल चमकते थे।
इसका प्रमाण भगवान पुराण में वर्णित तथ्य में भी है कि मंदरांचल की गोद में देवताओं के आम्रवृक्ष हैं, जिसमें गिरिशिखर के समान बड़े-बड़े आम फलते हैं। आमों के फटने से लाल रस बहता है तथा यह रस अरूणोदा नामक नदी में परिणत हो जाता है। यह नदी मंदरांचल शिखर से निकलकर अपने जल से पूर्वी भाग को सींचती है। पार्वती जी की अनुचरी यक्ष पुत्रियां इस जल का सेवन करती हैं। इससे उनके अंगों से ऐसी अद्भुत सुगंध निकलती है कि उन्हें स्पर्श कर बहने वाली हवा चारों ओर दस-दस योजन तक सारे देश को सुगंध से भर देती है।
गौरतलब है कि पार्वती की मौजूदगी शिव की उपस्थिति का संकेत देती है। फिर मंदार के भूगोल पर वैष्णव मत का परचम क्यों और कैसे लहराया? प्रारंभ में शिव अनार्यों के देवता के रूप में ही मान्य थे जबकि विष्णु आर्यों के देवता के रूप में। सभ्यता के श्रंृगार का श्रेय भले ही आर्यों को जाता हो, उसे विनाश से बचाने में अनार्यों का त्याग काफी सराहनीय रहा है। यदि समुद्र मंथन के ही दृष्टांत को लें तो विषपान भगवान शंकर ने ही किया। किसी अन्य देवता ने वही साहस क्यों नहीं किया? इसका मतलब है कि विश्व रक्षा और मानव कल्याणार्थ वह कदम भी अनार्यों के प्रतिनिधि देवता शंकर ने उठाया और उसी सर-जमीन पर आगे चलकर आर्य सभ्यता का विकास हुआ।
मधुकैटभ की मौत के साथ ही मंदार पर शैव मत का प्रभाव भी खत्म हो गया। असुर का तात्पर्य अनार्य से है। यही अनार्य आज की भाषा में आदिवासी कहकर पुकारे जाते हैं। आदिम सभ्यता इतिहास की मोटी परतों तले दफन होकर रह गई है। वैष्णव मत के प्रचार-प्रसार से पूर्व यहां शैव मत का ही बोलबाला था। यह सच्चाई सिर्फ अंग जनपद की ही नहीं है बल्कि विश्व की प्राचीन सिंधु सभ्यता भी कुछ यही जाहिर करती है। सिंधु सभ्यता के मूल निवासी आर्य थे या अनार्य, इस पर भले ही विद्वानों में मतभेद हों लेकिन वहां के लोग शिव के उपासक थे, यह बात आईने की तरह साफ हो चुकी है।
कुछ विद्वानों के मुताबिक आर्य निश्चित रूप से शिवलिंग की पूजा नहीं करते थे जबकि मूर्ति पूजा सिंधु की तराई में प्रचलित थी। यह भी पता चलता है कि धीरे-धीरे आर्य सभ्यता का विस्तार उन क्षेत्रों में भी हुआ, जहां अनार्य सभ्यता का बोलबाला था। जहां तक मंदार का सवाल है, मिलने वाले प्रमाणों से जाहिर है कि वहां भी कभी आसुरों का साम्राज्य कायम था, जो शिव के उपासक थे और आर्यों के यज्ञ प्रधान धर्म से सहमत नहीं थे। जहां तक आर्यों के यहां आगमन का प्रश्न है, यह काल अथर्ववेद की रचना के पूर्व का ही होने का संकेत मिलता है क्योंकि अथर्ववेद में मगध की चर्चा मिलती है। उस समय इस क्षेत्र में आर्य सभ्यता फैल रही थी।
आर्य सभ्यता के इस फैलाव में निश्चित ही अनार्यों की पराजय हुई होगी उसके बाद वहां वैष्णव मत का प्रचार-प्रसार भी हुआ होगा। तब जो अनार्य थे, वही आज आदिवासी हैं और बदली हुई सच्चाई यह है कि शिव और विष्णु दोनों ही देवता आज हिन्दुओं के पूज्य है जबकि आदिवासियों की आसक्ति आज भी शिव के प्रति है। खामोश खड़ा मंदार पर्वत आज भी सांस्कृतिक गरिमा बिखेर रहा है। पोर-पोर में उकेरी हुई कलाकृतियां अपने अतीत से रूबरू करा रही हैं।
मंदार भागलपुर प्रमंडल के बांका जिला के बौसी में है। मंदार पर्वत के मध्य में शंखकुंड अवस्थित है। कुछ वर्ष पूर्व इस कुंड में करीब बीस मन का शंख देखा गया था। मान्यता है कि शंख की ध्वनि से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। मंदार पर्वत पर चढऩे के लिए करीने से पत्थर की सीढिय़ां तराशी हुई हैं। कहते हैं कि ये सीढिय़ां उग्र भैरव नामक राजा ने बनवायी थीं। मंदार पर्वत पर चढऩे के साथ ही सीताकुंड मिलता है। पर्वत के ऊपर एक बहुत बड़ी मूर्ति है, जिसकी पहचान लोग विभिन्न रूपों में करते हैं। थोड़ा आगे आने पर एक स्तंभ पर छोटी-मोटी मूर्तियां हैं, जो सूर्य देवता की हैं। थोड़ा ऊपर जाने पर एक काफी बड़ी मूर्ति है, जिसके तीन मुख और एक हाथ है। यह मूर्ति महाकाल भैरव की बतायी जाती है, यहीं पर एक छोटी मूर्ति गणेश की तथा दूसरी सरस्वती की थी।
ये मूर्तियां भागलपुर के संग्रहालय में रखी हुई हैं। अभी भी गुफा में कुछ मूर्तियां रखी हुई हैं। मध्य में नरसिंह भगवान का एक मंदिर है। पहाड़ के बीचों-बीच 6 फुट की दूरी पर दो समानान्तर गहरे दाग हैं। मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान नागनाथ और सांपनाथ के लपेटे जाने का यह प्रतीक है। मंदार की तलहटी में स्थित पापहरणी सरोवर के मध्य में अष्टकमल मंदिर है, जो सरोवर को भव्यता प्रदान करते हैं। इस मंदिर में विष्णु, महालक्ष्मी, ब्रह्मा की आकर्षक मूर्तियां विराजमान हैं। पद्मश्री चित्तू टुडू बताते थे कि संथाली गीतों में भी मंदार की महिमा का जिक्र है। वहीं मंदार में जैन धर्म के बारहवें भगवान वासुपूज्य ने कैवल्य प्राप्त किया।
तदुपरांत संसार के समस्त जीवों को घूम-घूमकर धर्मोपदेश देते हुए मंदार शिखर पर ही इन्हें निर्वाण प्राप्त हो गया। आज भी भगवान वासुपूज्य के तपकल्याणक की प्रतीक गुफा मंदार पर्वत पर विराजमान है, जिसकी प्राकृतिक छटा मनमोहक है। यहां साल भर जैन धर्मावलंबियों, तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की भीड़ रहती है। वेदव्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास, जयदेव, कालिदास जैसे साहित्य सृष्टाओं ने अपनी लेखनी से मंदार या मंदरांचल को चिर अमरत्व प्रदान किया है तो फ्रांसिस बुकानन, शेरविल, सर जॉन फेथफल, फ्लीट, मौटगोमेरी मार्टिन जैसे पाश्चात्य विद्वानों को भी मंदार ने आकर्षित किया है।