सोनाली
लवपुरी देखते देखते लाहौर हो गया. वही लवपुरी, जिसे प्रभुश्री राम के पुत्र लव ने बसाया था. हम साझे इतिहास से कब अलग हो गए और कब लवपुर टूटकर लाहौर हो गया, हम ठगे से रह गए. हम अभी तक ठगे ही खड़े हैं, तभी कोई भी आता है और कुछ भी लिखकर चला जाता है. हम उसे इतिहास मान बैठते हैं. हम चेतना की धूल झाड़ते हैं और कहते हैं, कौन पीछे देखे?
मगर क्या पीछे देखना अपराध है? क्या जड़ों की तरफ जाना अपराध है? नहीं, इसलिए नहीं क्योंकि पीछे देखकर ही कई दुराग्रहों से लड़ाई की जा सकती है.
एक पुस्तक है लुईस ब्राउन की लाहौर की तवायफों पर, the dancing girls of lahore.
लव के द्वारा बसाए हुए नगर की पहचान एक समय में आकर हीरामंडी हो गयी थी. हीरामंडी, जहाँ पर तवायफें बसा करती थीं और हैं. लुईस ब्राउन ने इस किताब में साझे हिन्दुस्तान की कहानी लिखने की कोशिश की है. मगर वह जब लाहौर का इतिहास देखते हैं तो मुग़ल काल से ही शुरू करते हैं. हाँ वह इतना जरूर लिखते हैं, कि पाकिस्तान की संस्कृति में दो महान सभ्यताओं का मिश्रण है, उत्तर भारत के महान हिन्दुओं और मुस्लिम आक्रमणकारियों का.
खैर, जब वह इन औरतों के दुःख की दास्तान लिख रहे हैं, अर्थात कंजर समुदाय की औरतों की, क्योंकि जाति तो इस्लाम में होती नहीं, तो वह घूम फिर कर हिन्दुओं को ही दोषी ठहराते नजर आते हैं. वह हर पेशे को जन्म के साथ जोड़ते हैं. कि कुम्हार का बेटा कुम्हार, लोहार का बेटा लोहार, या सुनार का बेटा सुनार, और इसी तरह वैश्या की बेटी वैश्या!
और उन्होंने मंदिरों के साथ वैश्यावृत्ति जोड़ दी. इसके साथ ही यह जस्टिफाई करते हैं कि उत्तर भारत में मंदिरों में अब वैश्यावृत्ति नहीं होती, अर्थात देवदासी नहीं हैं क्योंकि सैकड़ों वर्षों के मुस्लिम शासन ने या तो मंदिरों का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था या फिर उन्हें तोड़ दिया था. उत्तर भारत में मुगलकालीन एक भी मंदिर नहीं है.
इस तरह लुईस ब्राउन मंदिरों के विध्वंस को सही ठहरा रहे हैं, मगर वह एक बात का उत्तर इस किताब में नहीं लिखते हैं कि यदि मंदिरों से ही वैश्यावृत्ति या कहें देवदासी से ही वैश्यावृत्ति थी, या हिन्दुओं में ही इतनी बुरी हालत थी तो इस्लाम में मतांतरित होते ही इन्हें गृहणियों का दर्जा मिल जाना चाहिए था, या फिर इनमें इल्म आ जाना चाहिए था. यह कहते हैं कि इस्लाम हालांकि जाति व्यवस्था नहीं मानता मगर दक्षिण एशिया में जब इस्लाम आया तो उसमें जाति प्रथा आ गयी और जो निचले जाति के हिन्दू आए, वह वहीं रहे.
जब वह कहते हैं कि मंदिरों में देवदासी के कारण वैश्यावृत्ति थी, तो उत्तर भारत में तो यह खत्म हो जानी चाहिए थी, ख़ास तौर पर जहाँ जहाँ भी मंदिर तोड़े, इस हिसाब से तो पाकिस्तान में तो यह होनी ही नहीं चाहिए. मगर इस किताब में वह यह कहते हैं कि पाकिस्तान में यदि आप अमीर और रसूखदार हैं तो आप न केवल जितनी मनचाही औरतों बल्कि आदमियों के साथ रिश्ते रख सकते हैं. मगर वहां तो मंदिर नहीं हैं.
वह मुगलों की अय्याशियों को चाशनी में लपेटते हैं और कहते हैं कि सेन्ट्रल एशिया से आए मुगलों ने इस्लामिक जगत से अपनी प्रथाएं लीं जिनमें सरदारों और बादशाहों की सेवा के लिए औरतें ज़नाना में रहती थीं, बादशाहों का पूरा नियंत्रण अपनी बीवियों और रखैलों पर होता था. शाही लोगों के लिए नाच गाना होता था और खूबसूरत नाचने वाली लड़कियां बादशाहों के बड़े हरम का हिस्सा बन जाती थीं, अकबर के हरम में पांच हज़ार औरतें थीं और कहा जाता है कि औरंगजेब के पास इससे भी ज्यादा!
पश्चिम के लेखकों में इस कदर हिन्दुफोबिया है कि वह हर अच्छी चीज़ को पश्चिम और मुगलों की देन और हर बुरी चीज़ को हिन्दुओं की देन बताते हैं. यदि मन्दिरों में देवदासी से ही स्त्रियों को वैश्या बनाया जाता था, तो आज इस्लामिक देशों में वेश्याएं नहीं होतीं, हीरामंडी नहीं होती!
मगर हिन्दूफोबिया से ग्रसित हो चुकी आँखें कुछ नहीं देखतीं हैं.
यदि हिन्दू ही सभी बुराइयों की जड़ है तो वाकई आज हीरामंडी होनी ही नहीं चाहिए थी, मगर वह है, तमाम कहानियों के साथ है, तमाम दर्द के साथ है!
पीछे झांकिए, जिस भूमि की पहचान लव और राम होने थे, वह आज न केवल पाकिस्तान की सबसे बड़ी देह की मंडी के नाम से जाना जाता है अपितु आज भी उसी हिन्दू को दोषी ठहराया जाता है, जो मुट्ठी भर शेष हैं.