इस बार के गणतंत्र दिवस परेड के निमंत्रण को अनूठा बताकर खूब ट्वीट किया जा रहा है। बाद में लोगों ने इसे व्हाट्सऐप्प फॉर्वार्ड करना भी शुरू कर दिया है। सब लोग वही बता रहे हैं जो किसी एक ने पहली बार बताया होगा पर संबंधित सवाल किसी ने नहीं किया। मुमकिन है सवाल करने वाले को मूर्ख समझ लिए जाने या नकारात्मक करार दिए जाने का डर हो। इसलिए वह जोखिम मैं ले रहा हूं। और "मन की बात" लिख दे रहा हूं। आप नहीं चाहें तो मत पढ़िये, जैसे मैं नहीं सुनता। मुद्दा यह है कि इस कार्ड के नीचे लिखा है कि आंवले का पौधा पैदा करने के लिए इसे रोप दीजिए।
अब सवाल यह है कि आंवले का पौधा किसे चाहिए और दिल्ली की बहुमंजिली इमारतों में रहने वाले लोगों के पास जगह कहां है कि वे आंवले का पेड़ उगाएं। और उगाएं भी तो किसलिए? और आंवले का ही क्यों? आम का क्यों नहीं या पपीते का क्यों नहीं जो गमले में भी हो जाता है। पर भोजपुरी में एक कहावत है, "मंगनी के बछिया के दांत ना देखल जाए"। तो ठीक है। मेरा सवाल उसपर नहीं है कि आंवला क्यों पर आंवला कैसे - तो सवाल है ना? मुझे लगता है कि आंवले का बीज पर्याप्त बड़ा होता है और वह कार्ड जैसे कागज में ऐसे नहीं मिलाया जा सकता है कि पता ही नहीं चले।
फेसबुक पर आए इस फार्वार्ड को देखते ही मुझे आंवले के बीज की याद आई। वह इस कागज में होगा तो अपने प्राकृतिक रूप में तो नहीं ही है। क्या बीज से छेड़छाड़ (पीस कर पाउडर बना देने) के बाद बीज के गुण रह जाएंगे? और अगर हां तो वह तकनीक कब आई, क्या है उसके बारे में जानकारी कहां मिलेगी? उसके बिना इसपर कैसे यकीन कर लिया जाए। या ऐसा कुछ मिल ही गया है तो क्यों नहीं ऐसी दवा (या विधि) विकसित की जाए जिसे खाकर पीकर या रोप कर (आदर्श) मनुष्य के बच्चे पैदा किए जाएं। इससे दोहरा फायदा होगा। धरती पर सिर्फ आदर्श लोग होंगे और जिन्हें बच्चे नहीं हैं उन्हें भी बच्चे हो जाएंगे। मुझे नहीं लगता किसी ने इन सब बातों पर विचार किया।
कहने की जरूरत नहीं है कि हाथ का बना ऐसा कागज कोई 30 साल से दिल्ली के खादी ग्रामोद्योग भवन में खूब आराम से मिलता था। और उन दिनों मैंने एक बार नए साल का कार्ड इसी कागज पर बनवाया था। बाद में छोटे भाई की शादी का कार्ड भी इसी कागज पर छपा-बंटा था। उसके बाद भी यह कागज अक्सर दिखता रहा है। नया है तो सिर्फ बीज का मामला। ऐसा कागज बनाने की विधि पढ़ने के बाद मुझे यह विकास पसंद आया कि हरेक कार्ड में अलग पौधे का बीज डाला जा सके और उसे पहचाना जा सके। या सभी कार्ड में आंवले का ही बीज हो तो बराबर बंटा हो यानी कोई कार्ड बिना बीज का न रह जाए और किसी में एक से ज्यादा न हो।
यह सब संभव है पर आंवले के बीज को पीस दिया जाएगा तो वह अंकुरेगा कि नहीं उसपर मुझे शक है और आंवले का बीज कागज में चिपका तो हो सकता है पर उसके अलग हो जाने का भी खतरा है। और वह नयापन ऐसा नहीं होगा जैसा बताया जा रहा है। इसे समझने के लिए मैंने हाथ से कागज बनाने की विधि देखनी चाही तो उसी में बीज वाला विवरण भी मिल गया। उसमें लिखा है कि बीज मटर या चने का नहीं हो सकता है। तो पूरा मामला यही है कि इसमें आंवले का नहीं किसी और चीज का बीज हो सकता है। मुझे याद आता है कि बने-बनाए फर्नीचर बनाने वाली कंपनी पेपरफ्राई ने कुछ साल पहले अपने ग्राहकों को हाथ के बने कागज का कोस्टर बतौर उपहार भेजा था।
उसमें लिखा था कि उनमें गेन्दा, टमाटर और जंगली फूलों के बीज है। कागज बनाने की विधि में भी इन्हीं बीजों की बात है। आप जानते हैं कि इनके बीज कागज में जज्ब हो सकते हैं। लेकिन आंवले के बीज का मामला मुझे जम नहीं रहा है। वैसे, बीज के मामले में सरकारी नियम है, कोई भी किसी भी रूप में बीज के अंकुरित होने की अपेक्षित तारीख के बाद बीज को ना तो रखेगा ना बेचेगा ना किसी और तरह से आपूर्ति करेगा। मेरे ख्याल से बीज को किसी और रूप में रखना बांटना भी कानूनन प्रतिबंधित है। पर वह अलग मुद्दा है। हो सकता है कार्ड और आंवले के बीज तथा इसके प्रचार में कोई और कहानी हो जो बात में मालूम चले या न चले या रोपने वाले को आंवले का नहीं गेंदे का पौधा मिले। फिर भी, साणू की? मैंने तो मन की बात कर ली।