सरकार देश का पैसा गैर सरकारी पीएम केयर्स फंड में रख कर देशवासियों को समाजसेवा और कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी से वंचित कर सकती है लेकिन एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) विदेशी धन लेकर जनसेवा नही कर सकते हैं क्योंकि 56 ईंची सरकार को डर है कि विदेशी धन से देश में राजनीतिक और सामाजिक तानाबाना बदल सकता है। सरकार बहुमत के नाम पर खुद यही करे तो कोई बात नहीं है।
वैसे, विदेशी धन के प्रति सरकार इतनी ही गंभीर है तो उसे देश के 115 बड़े लोगों से संबंधित हवाला कांड की जांच ठीक से करानी चाहिए थी पर सरकार को यकीन था कि नोटबंदी से आतंकवाद रुक जाएगा। अब नहीं रुका तो पता चला कि हवाला कांड में अवैध धन पाने के दो आरोपी गवरनर बने बैठे हैं। ध्यान दिलाए जाने पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। ना ही मंदिर के पैसे से महंगी जमीन खरीदने वालों का कुछ बिगड़ा।
दूसरी ओर, सरकार ने अपनी इस गलत सोच को आम लोगों पर थोपने के लिए विदेश से धन प्राप्त करना ही मुश्किल कर दिया है जबकि विदेशी धन का उपयोग अगर गलत काम के लिए होता भी हो तो उसे रोकना सरकार का काम है और सरकार के पास उसके इंतजाम हैं। कुछ लोग विदेशी धन का गलत उपयोग करते भी हों तो इसका मतलब यह नहीं है कि सबसे हाथ बांध दिए जाएं। जहां तक देश का ताना-बाना बदलने का सवाल है, यहां नौकरियां नहीं हैं तो लोग विदेश जाएंगे ही और घर पैसे भेजेंगे ही। सरकार खुद नौकरी न दे और विदेश से पैसे भेजने वालों को भी रोक दे तो देश आगे कैसे बढ़ेगा? सिर्फ एफडीआई से जो आप लाएंगे जिसका पहले विरोध करते थे?
कुल मिलाकर, सरकार कह रही है कि उसे बहुमत मिल गया वह मनमानी करने के लिए स्वतंत्र है, चाहे तो देश बेच दे पर नागरिक (या उनके प्रतिनिधि) जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए विदेशी धन नहीं ले सकते हैं। खासकर तब जब देश के पास लोगों के इलाज से लेकर शिक्षा तक के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं। मरने पर मुआवाजा 50 हजार तय किया गया है जो आमतौर पर तेरहवीं का खर्च भी नहीं है। फिर भी यह सरकार लोकप्रिय है तो इसीलिए कि मंदिर के नाम पर चंदा वसूलने (और उसमें बेईमानी करने) जैसे अघोषित अधिकार मिले हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार नागरिकों को कमजोर करके अपनी वीरता साबित करने पर लगी है और चाहती ही नहीं है कि उसके मुकाबले कोई खड़ा हो सके।