कुमार कृष्णन
मुंगेर में बंदूक निर्माण का इतिहास 200 साल से भी पहले का है।मुंगेर का हथियारों से ऐतिहासिक नाता रहा है। अब यह पहचान गुम हो रही है। मुंगेर का बंदूक कारखाना अस्तित्व संकट का दंश झेल रहा है। बंदूक निर्माता अब नयी संभावनाओं को तलाश रहे हैं। वे सरकार की ओर टकटकी लगाकर फैसले का इंतजार कर रहे हैं।
बंगाल के नवाब मीर क़ासिम अली (1760- 63) ने अपने शस्त्रागार के साथ मुर्शिदाबाद को छोड़कर मुंगेर को अपनी राजधानी बना लिया था। नवाब के शस्त्रागार में कुशल कारिगरों की भारी संख्या थी। उनका पारंपरिक कौशल पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा।
मुंगेर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि 1890 में सालाना दो हजार बंदूक मुंगेर में बनते थे। वहीं 1909 में बंदूक की 25 दुकानें मुंगेर में थीं।बाद मे आज़ादी के बाद सभी बंदूक कंपनियों को सरकार जुवेनाइल जेल में ले आई।गजट के मुताबिक 300 रुपए में हैमरलैस गन मिलती थी जो सबसे महंगी थी और 40 रुपए की मज़ल गन थी जो सबसे सस्ती थी।
अंग्रेजों के भारत आने के बाद पहली बार आर्म्स एक्ट साल 1878 में बना और आर्म्स एक्ट मैनुअल को साल 1924 में तैयार किया गया। इसके तहत बिहार के मुंगेर सहित अन्य शहरों के 20 लोगों को उनके परिसर में हथियार बनाने का लाइसेंस तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने दिया।
आज़ादी के बाद आर्म्स एक्ट 1948 में और आर्म्स रूल्स साल 1962 में वजूद में आये। इसके तहत मुंगेर में सभी बंदूक निर्माण इकाइयों को एक छत के नीचे लाया गया।भारत सरकार ने तब देशभर में 105 निजी बंदूक निर्माताओं को बंदूक निर्माण के लिए लाइसेंस दिया. बिहार में मुंगेर की 37 बंदूक निर्माता कंपनियों को लाइसेंस मिला।
साल 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान मुंगेर की इकाइयों ने ही सेना के लिए .410 मस्कट राइफ़ल का निर्माण किया था। क़रीब 10 एकड़ में फैले बंदूक निर्माण कारखानों में 12 बोर की डबल-सिंगल बैरल बंदूकें बनाई जाती हैं। फाइज़र गन मैन्युफ़ैक्चरिंग कंपनी के मालिक सौरभ निधि बताते हैं कि "यहाँ 35 बंदूक कारखानों को लाइसेंस जारी किया गया है। इनमें से 8 की स्थिति काफ़ी ख़राब है।"
"जबकि, दो इकाइयां मेसर्स दास एंड कंपनी और मुंगेर बंदूक निर्माण सहयोग समिति लिमिटेड (एमजीएम) बंद हो चुकी हैं।" "एमजीएम देश की एकमात्र बंदूक निर्माण इकाई थी जिसका निबंधन सोसाइटी एक्ट के तहत जनवरी, 1954 में हुआ था। इस सोसाइटी के 211 सदस्य थे, लेकिन साल 2015 में भारत सरकार ने इसे बंद कर दिया।"
"केंद्र सरकार ने बिहार की सभी 37 इकाईयों के लिए प्रति वर्ष 12,352 डबल और सिंगल बैरल बंदूक बनाने का कोटा 1958 में निर्धारित किया था। यही कोटा आज भी निर्धारित है।लेकिन, माँग में कमी के कारण प्रति वर्ष 2,000 बंदूकें भी नहीं बन पा रही हैं।एक बंदूक बनाने के लिए नौ अलग-अलग कुशल मजदूरों की ज़रूरत पड़ती है। ये बंदूकें टैक्स जोड़कर महज 20 हजार रुपए में बिकती है. इस लिहाज से भी इस काम में कोई मुनाफा नहीं।
आर्म्स एक्ट के विशेषज्ञ अधिवक्ता अवधेश कुमार बताते है, "आर्म्स एक्ट में सरकार ने किसी तरह की तब्दीली नहीं की लेकिन मौखिक तौर पर प्रशासन में ये संदेश है कि आर्म्स लाइसेंस नहीं देना है।शासन को ऐसा लगता है कि अपराध होने की वजह लाइसेंसी हथियार हैं। यही वजह है कि बीस हजार की बंदूक लेने के लिए लोग लाखों रुपए खर्च करके कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।हालांकि अधिवक्ता अवधेश बताते है कि साल 2016 में हथियार रखने के नियमों का सरलीकरण किया गया है जिसके बाद अब ये कंपनियां भी पम्प एक्शन गन बना सकती हैं जो अभी डिमांड में है।
अगर यही हाल रहा तो जल्द ही यहाँ की बची इकाईयां भी बंद हो जाएंगी। कभी यहाँ के बंदूक कारखानों में 1,800 कुशल मजदूर कार्यरत थे, जिनकी संख्या आज घटकर 100 हो गई है।कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति बिगड़ रही है।
बंदूक़ निर्माता कामगार संघ के प्रतिनिधि नागेंद्र शर्मा के पिता लगभग 30 साल तक यहाँ मजदूरी कर सेवानिवृत हो चुके हैं। उन्हें एक हज़ार रुपये प्रति माह पेंशन मिलती है। वहीं क़रीब 40 साल के नागेंद्र पीस-रेटेड अग्रीमेंट यानी बनाई जाने वाली हर बंदूक पर दी जाने वाली तयशुदा रक़म की शर्त पर पिछले 25 साल से बंदूक फ़ैक्ट्री में काम कर रहे हैं।
यहीं की कमाई से नागेंद्र 6 जनों का परिवार चला रहे हैं। वे बताते हैं कि "पहले हर महीने मेरी कमाई 10 से 12 हज़ार रुपये हो जाती थी, लेकिन अब ये घटकर दो-तीन हज़ार प्रति माह हो गई है।बंदूकों की माँग में कमी आने की वजह से कई मजदूर यहाँ की मजदूरी छोड़ या तो रिक्शा-ठेला चला रहे हैं या फिर दिहाड़ी कर रहे हैं।कुछ लोग बड़े शहरों में सिक्योरिटी गार्ड की भी नौकरी कर रहे हैं।"
बंदूक कारखाना निर्माता संघ के सयुंक्त सचिव संदीप शर्मा बताते हैं कि "बंदूक कारखाना मुंगेर में बंदूक निर्माण का बहुत पुराना इतिहास है। मुख्यमंत्री कलस्टर विकास योजना के तहत मुंगेर बंदूक कारखाना को कॉमन फैसिलिटी सेंटर बनाने की योजना साल 2004 में बनी थी। यह योजना मुंगेर बंदूक कारखाने के लिए संजीवनी साबित होती लेकिन मामला ठंडे बस्ते में चला गया। संघ के सयुंक्त सचिव संदीप शर्मा ने बताते हैं कि बंदूक कारखाना मुंगेर में बंदूक निर्माण का बहुत पुराना इतिहास है। इसके विकास से यहां के लोगों को रोजगार भी मिलेगा।
मुंगेर बंदूक कारखाना के कारीगर हुनरमंद हैं और किसी भी तरह के काम को सफलतापूर्वक कर सकते हैं। बदलते परिवेश एवं ग्लोबल मार्केट की बढती प्रतिद्वंद्विता को देखते हुए हमारे पास आधुनिक मशीन नहीं रहने से पिछड़ गये हैं। रक्षा क्षेत्र से जुड़े हथियार के छोटे-छोटे पार्टस का भी निर्माण कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि यहां एयर रायफल और एयर पिस्टल का निर्माण भी किया जा सकता है।
यह आत्मनिर्भर भारत की सपना को भी पूरा करेगा। स्पोर्ट वेपन्स का बाजार खुला बाजार है।देश में शूटिंग स्पोर्ट्स में काफी संभावनाएं है। अगर मुंगेर या देश के अंदर ही शूटिंग वेपन्स बनने लगेंगे तो खिलाडियों को महंगे में वेपन्स नहीं खरीदने पड़ेंगे। देश में बने कम कीमत पर अच्छे हथियारों को खरीद देश का नाम रौशन कर सकेंगे। इस आशय का प्रस्ताव उन्होंने भाजपा विधायक प्रणव कुमार को पहल के लिए दिया है।
विधायक के मुताबिक मुख्यमंत्री कलस्टर विकास योजना के तहत कॉमन फैसिलिटी सेंटर के लिए वो प्रयास करेंगे। उन्होने बंदूक लाइसेंस की समस्या और बंदूक निर्माता संघ की समस्या को दूर करने का उन्होंने आश्वासन दिया है।संभावनाओं की तलाश करने बंदूक कारखाना निरीक्षण करने पहुंचे उद्योग मंत्री शाहनवाज हुसैन को बंदूक निर्माता संघ ने उन्हें बंदूक कारखाना के संबंध में पूरी जानकारी दी एवं वर्तमान स्थिति से अवगत कराया। बंदूक कारखाना में निर्मित पंप एक्शन गन देखकर वह काफी प्रभावित हुए। यह देश का पुराना बंदूक कारखाना है। कारखाने के विकास को लेकर विकास का ब्लू प्रिंट तैयार किया जाएगा।