सूफी प्रेम के मायने
12वीं सदी के बाबा फरीद जब किसी को आशीर्वाद देते थे तो कहते थे, 'जा, तुझे इश्क हो जाए!'
पंजाबी सूफी कवि बुल्ले शाह (1680-1757) की एक कविता में हीर कहती है, 'मुझे रांझा कहकर पुकारो, हीर नहीं!' चरवाहा रांझा हीर से मिलने के लिए योगी का वेश धरता है और योग सीखने के लिए नाथपंथियों के ठिकाने पर जाता है। सूफी काव्य में योग की उपस्थिति सूफी दर्शन के हिंदुस्तानी चैप्टर की खूबी है। उन दिनों पंजाब में योगियों का एक मशहूर ठिकाना था 'टिल्ला योगिया'।
12वीं सदी के बाबा फरीद जब किसी को आशीर्वाद देते थे तो कहते थे, 'जा, तुझे इश्क हो जाए!'
बुल्ले शाह की हीर राधा की तरह है, 'राधा हरि हो गई' (यदि हरि राधा हो पाते)! इसे भृंगी- कीट न्याय कहा गया है जिसमें भौंरा जिस कीट को पकड़ता है, उसे वह अपने सदृश बना लेता है। भक्त कवियों का ईश्वर प्रेम यही करता रहा है--आदमी को अपने अनुरूप ईश्वरीय बना देना, जबकि 21वीं सदी का धर्मांध आदमी ईश्वर को ही अपनी तरह का बना देने पर तुला है!
सूफियों ने हिंसा के युग में प्रेम के भीतर से जीवन के सार की खोज की थी। 18वीं सदी के एक दूसरे सूफी कवि वारिस शाह का रांझा कृष्ण की तरह बांसुरी बजाता था। इस अन्तरसांस्कृतिक संबंध को समझना चाहिए। पंजाबी में सोहनी- महीवाल, शींरी- फरहाद, यूसुफ- जुलेखा आदि को विषय बनाकर सूफी कविताएं लिखी गई हैं। सूफी दर्शन में जो अन्तरधार्मिकता है, जो अन्तरसांस्कृतिक हइब्रीड है, वह उदारवाद का चिन्ह है। सूफी दूसरी धार्मिक परंपराओं को 'अन्य' की तरह नहीं देखते, जो एक बड़ी बात है।
----शंभुनाथ जी की फेसबुक वॉल से