कश्मीरी पंडितों का दर्द बयां करता उपन्यास : घाटी
उपद्रवियों को रोकना किसी के बस में नहीं था. न तो इन लोगों को समझा-बुझाकर ठीक किया जा सकता था और न ही इन्हें धमकाने से बात बन सकती थी. हालात ही एकदम अलग थे. ये लोग बदले की आग में जल रहे थे और अपने भीतर की उसी आग से दूसरों को भी जलाकर राख करने पर तुले हुए थे. इन्हें किसी समाधान से लेना-देना नहीं था. इनका मकसद सिर्फ और सिर्फ खून बहाना था, दहशत फैलाना और बदला लेना था.
हिंदी साहित्यकार डॉ रश्मि के उपन्यास 'घाटी' का एक अंश:-
इस वक्त मनवीर की आत्मा उसे कचोट रही थी कि वह युवा होकर भी इन बूढ़ों की सहायता करने आगे नहीं बढ़ा. उसे खुद पर बहुत शर्मिंदगी महसूस होने लगी. लेकिन वह करता भी तो क्या करता !
इन उपद्रवियों को रोकना किसी के बस में नहीं था. न तो इन लोगों को समझा-बुझाकर ठीक किया जा सकता था और न ही इन्हें धमकाने से बात बन सकती थी. हालात ही एकदम अलग थे. ये लोग बदले की आग में जल रहे थे और अपने भीतर की उसी आग से दूसरों को भी जलाकर राख करने पर तुले हुए थे. इन्हें किसी समाधान से लेना-देना नहीं था. इनका मकसद सिर्फ और सिर्फ खून बहाना था, दहशत फैलाना और बदला लेना था.
बदले की आग मनुष्य को अंधा बना देती है, वह सही और गलत का विवेक भूल जाता है. इन दंगाइयों के साथ भी यही हो रहा था. इन्हें कौन समझाता कि मारने वाले दो व्यक्ति थे, पूरी क़ौम नहीं. जाने वाली हस्ती को दोबारा नहीं लाया जा सकता, चाहे वे कितनी ही प्रिय रही हों. इस खून के बदले उस क़ौम के सभी बन्दों का खून बहा देने से क्या हासिल होगा ! दरअसल यह बात इतनी सरल है कि एक छोटा सा बच्चा भी समझ जाए लेकिन इस बात के पीछे की राजनीति उतनी ही जटिल और गहरी....