जब मैं चंपारण सत्याग्रह की कहानियां बटोर रहा था, तो अचानक उन किस्सों में एक नाम उभरा प्रताप अखबार का। प्रताप अखबार जो कानपुर से हिंदी में छपने वाला आकार में छोटा मगर मिजाज में विद्रोही अखबार था, जिसकी नजर दूर स्थित चंपारण के इलाकों तक था। वहां से एक पत्रकार पीर मोहम्मद मूनिस छद्मनाम से लगातार चंपारण के किसानों की व्यथा को लिखते थे और प्रताप उन्हें छापा करता था। उसी प्रताप के संपादक थे गणेश शंकर विद्यार्थी। जब हम हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित संपादक का नाम लेते हैं तो सबसे पहले हमारे जेहन में इन्हीं का नाम आता है।
यह दिलचस्प है कि प्रताप में चंपारण की खबरें उस वक्त से छपा करती थीं, जब गांधी जी ने चंपारण का नाम भी नहीं सुना था। प्रताप में एक विस्फोटक पर्चा छपा था जिसमें चंपारण के लोगों से नील प्लांटरों के जुल्म से संबंधित सबूत देने की अपील की गयी थी। बाद में उस परचे को अलग से छपवाकर पूरे इलाके में बांटा गया। उस पर्चे को बांटते हुए एक साधू को अंग्रेज सिपाहियों ने पकड़ा और माना गया कि इस परचे को पीर मोहम्मद मूनिस ने लिखा है। इस अपराध की सजा उन्हें मिली और उनकी नौकरी छीन ली गयी।
कहते हैं, पीर मोहम्मद मूनिस और राजकुमार शुक्ल को गांधी के बारे में गणेश शंकर विद्यार्थी ने ही बताया था और उसके बाद दोनों ने मिलकर गांधी को चंपारण लाने की ठान ली। गांधी चंपारण आये तो प्रताप में उसकी नियमित रिपोर्ट छपी। गांधी और विद्यार्थी की पहली मुलाकात 1916 में कानपुर में ही थी। गांधी के चंपारण से लौटने के बाद भी वहां की रिपोर्ट प्रताप में छपती रही। इस वजह से गणेश शंकर विद्यार्थी को अदालत में पेश होना पड़ा और पीर मोहम्मद मूनिस को जेल जाना पड़ा।
दिलचस्प है कि जब गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप अखबार शुरू किया था, उनकी उम्र सिर्फ 23 साल थी। मगर वे पूरे देश में चल रहे आंदोलनों पर नजर रखते थे और उसे प्रताप में जगह देते थे। चंपारण किसान आंदोलन की विशेष रिपोर्टिंग इसी का उदाहरण थी। अपनी पत्रकारिता की वजह से वे कई दफा जेल गये। उन्होंने प्रताप में सशस्त्र क्रांतिकारियों और अहिंसक आंदोलनकारियों दोनों को बराबर जगह दी। चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह से उनकी करीबी रही।
गांधी जी का उनके प्रति बड़ा स्नेह था। इसलिए वे कांग्रेस में शामिल हुए और 1929 में यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन गये। मगर एक पत्रकार और संपादक के राजनीति में उतरने का यह उदाहरण सत्ता के लिए नहीं था। उनका मकसद देश की आजादी थी।
मगर 1931 में कानपुर में भीषण दंगा भड़क उठा। दंगे के भड़के की वजह शर्मनाक थी। 23 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी हुई थी। उस फांसी की घटना के विरोध में लोगों ने कानपुर बंद का आयोजन किया था। उस बंद के दौरान कुछ मुसलमानों ने अपने दुकान बंद नहीं किये, विरोध में हिंदू प्रदर्शनकारियों ने उन पर हमला कर दिया और भीषण दंगा भड़क उठा। उन्हीं दिनों कराची में कांग्रेस का अधिवेशन होना था। मगर दंगों की वजह से गणेश शंकर विद्यार्थी कराची नहीं गये, वे अपने शहर में लोगों को नफरत की आग से बचाने की कोशिश में जुट गये।
पहले कई लोगों ने टीम बनाकर लोगों को बचाने की कोशिश की। मगर जब दंगा क्रूर और दोतरफा हो गया तो ज्यादातर लोग अपने घर चले आये। विद्यार्थी अकेले दंगाइयों से जूझते रहे और आखिर में उनकी हत्या हो गयी। हत्या बहुत क्रूर तरीके से की गयी थी, दो दिन बाद उनकी लाश मिली तो पहचानना मुश्किल हो रहा था। मगर उनके जेब में पड़े कागज से उनकी पहचान हुई।
उन्हीं दिनों गांधी कराची में भगत सिंह और साथियों की फांसी की वजह से फैले जनाक्रोश का सामना कर रहे थे। युवाओं को लग रहा था कि गांधी ने इन क्रांतिकारियों को बचाने की कोशिश नहीं की। कुछ ही दिन पहले गांधी और इरविन के बीच पैक्ट हुआ था, जिसमें सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ने पर सहमति हुई थी। मगर अंग्रेजों ने उसमें एक शर्त डाली थी कि हिंसा घटनाओं के आरोपियों को नहीं छोड़ा जायेगा। उसी पैक्ट के जरिये गांधी ने देश के कई राजनीतिक बंदियों की रिहाई की सिफारिश की थी, जिनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का भी नाम था। उस सूची में भगत सिंह का नाम नहीं था। क्योंकि उन्हें हिंसक गतिविधियों का आरोपी माना गया था। मगर भगत सिंह और साथियों की रिहाई को लेकर गांधी ने अलग से वायसराय को पत्र लिखा था। वे यह युवाओं को बता रहे थे।
उसी दौरान गांधी को विद्यार्थी के लापता होने और कानपुर के भीषण दंगों की खबर मिली। उन्होंने कहा, यह दुख की बात है कि हमने भगत सिंह की शहादत के समर्थन में सांप्रदायिक दंगे रच डाले। मासूम औरतों और बच्चों का कत्ल किया और उनके साथ रेप की घटनाएं हुईं। यह हम किस तरह शहादत का सम्मान कर रहे हैं। उन्होंने कहा, मुझे यह बताते हुए बहुत दुख हो रहा है कि उन दंगों में श्रीयुत गणेश शंकर विद्यार्थी लापता हो गये हैं, संभवतः उनकी हत्या हो गयी है। ऐसे इमानदार और निस्वार्थ साथी की हत्या का दुख किसे नहीं होगा।
मगर मेरा नजरिया थोड़ा अलग है। अगर सैकड़ों गरीब हिंदू मारे जाते तो उससे बेहतर यह नहीं हुआ कि गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे नेता की हत्या हो गयी? अगर सैकड़ों असहाय मुसलमान मारे जाते तो उससे बेहतर क्यों नहीं डॉ अंसारी की हत्या का स्वागत किया जाये?
डॉ. अंसारी के शरीर में जो चाकू घोंपा गया है, वह हम सबके शरीर को बेध रहा है। यह सौभाग्य की बात है कि गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे सांप्रदायिक भावनाओं से मुक्त, अपने आप में एक संस्था, और उस जगह के शीर्ष कार्यकर्ता ने अपनी जान शांति के लिए दी। ऐसे उदाहरण हमें प्रेरित करते हैं, हमें अपने कर्तव्य का बोध कराते हैं। 27 मार्च, 1931 को उनके द्वारा दिया गया यह बयान 2 अप्रैल के यंग इंडिया के अंक में छपा।
गणेश शंकर विद्यार्थी की यह शहादत उन्हें लंबे अरसे तक प्रेरित करती रही। नोआखली दंगों के बाद जब गांधी वहां शांति मिशन के लिए पहुंचे तो उनके मन में विद्यार्थी बसे थे। वे उसी तरह खुद को और अपने साथियों को सांप्रदायिकता के जहर का असर खत्म करने के लिए शहीद हो जाने और बलिदान देने के लिए प्रेरित करते थे। वे विद्यार्थी से रश्क करते थे, कि उन्हें कितनी बेमिसाल मौत नसीब हुई। वे बार-बार कहते थे कि अगर किसी रोग से या कमजोरी से मेरी मौत हुई तो मुझे झूठा मानना। मैं अपनी मौत किसी हत्यारे की गोली को झेलते और राम का नाम लेते हुए चाहता हूं। फिर जो हुआ वह हम सबको मालूम है।