जब दंगाग्रस्त भागलपुर मे अमन का पैगाम देने पहुंचे थे सुब्बाराव
धर्म का काम मनुष्य को जोडऩे का है। उनके आह्वान का काफी प्रभाव पड़ा। उस समय भागलपुर में भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय के क्षेत्रीय प्रचार निदेशालय के क्षेत्रीय प्रचार अधिकारी अनिल किशोर सहाय थे।
कुमार कृष्णन
बर्ष 1986 के आसपास पत्रकारिता में आया। 1987 में 19 जनवरी को भागलपुर के नाथनगर में डीएसपी मेहरा हत्याकांड हुआ। इस कांड की तस्बीर मैंने एक कैमरे से ली। सीधा भागा- भागा सूचना जनसंपर्क कार्यालय कंबाईड बिल्डिंग आया।उस समय के उपनिदेशक चित्तु टुड्डू ने उस तस्वीर का प्रिंट निकलवाने में मदद की। फिर विक्रमशिला एक्सप्रेस पटना आकर कदमकुंआ स्थित कार्यालय में पत्रकार मणिकांत ठाकुर से दैनिक पाटलिपुत्र के कार्यालय में मिला। उन्होंने नाम के साथ मेरी खबर प्रथम पृष्ठ पर लगाकर चर्चित कर दिया।
इसके ठीक दो साल बाद 24 अक्टूबर 1989 को शुरू हुआ भागलपुर दंगा हैवानियत का नंगा नाच था और यह अगले साल जनवरी तक जारी रहा। इसी दौरान 1990 में युवाओं के साथ गांधीवादी डाॅ एस एन सुब्बाराव भागलपुर आए उन्होंने पूरे शहर को संदेश दिया कि धर्म का काम मनुष्य को जोडऩे का है, लेकिन धर्म के नाम पर झगड़े हो रहे हैं। यह बंद होना चाहिए। युवाओं का आव्हान किया कि वे हिन्दुस्तान को एक बनाए रखें।
धर्म का काम मनुष्य को जोडऩे का है। उनके आह्वान का काफी प्रभाव पड़ा। उस समय भागलपुर में भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय के क्षेत्रीय प्रचार निदेशालय के क्षेत्रीय प्रचार अधिकारी अनिल किशोर सहाय थे। दंगा के बाद जब वे सद्भाभावना के लिए युवाओं की टोली के साथ परिभ्रमण कर रहे थे तो उनके कार्यालय के पास खड़े होकर नुक्कड़ सभा को संबोधित किया।सद्भाव व एकता से संबंधित गीत गाये एवं युवाओं से राष्ट्रहित में नारे भी लगवाए। उनकी यात्रा से युवा काफी प्रभावित हुए। भागलपुर में जहां युवाओं का शिविर लगाया था,वहां श्रमदान और अन्य रचनात्मक कार्य चलाए। सुब्बा राव जी की यात्रा के बाद भागलपुर में सद्भावना का काम तेज हुआ। सुब्बा राव की भागलपुर यात्रा के साक्षी रामरतन चुड़ीवाला भी रहे हैं।
दूसरी बार वे तात्कालीन रेल मंत्री सी के जाफर शरीफ के कार्यकाल में सद्भभावना रेल यात्रा में देश के विभिन्न राज्यों के युवाओं को लेकर भागलपुर पहुंचे।जोड़ो - जोड़ो भारत जोड़ो, जात पात के बंधन छोड़ो का संदेश देते हुए किसी भी परिस्थिति में शांति से निपटने के गुर सिखाए। साथ ही नशामुक्ति का भी संदेश दिया।
नशा मनुष्य के विवेक का अपहरण कर लेता है। रामरतन चुड़ीवाला बताते हैं कि वे लगातार भागलपुर की यात्रा में शरीक रहे। गांधीवादी दर्शन उनमें समाहित था।भागलपुर की यात्रा में मजहब व जाति की दीवारों को तोड़ कर इंसान बनने का आह्वान किया।
गांधीवाद तो उनमें पूरी तरह समाया था। दो बार के इस यात्रा के क्रम में उनसे परिचय बढ़ा। जब पहली बार भागलपुर आए तो पत्रकार वंकिमचंद्र बनर्जी ने उनके गीत के संदर्भ को को बताया। नयाबाजार के खादी भवन में उनसे मिले और चंबल के संदर्भों तथा शांति प्रयासों की चर्चा हुई। तब जाना कि ये बंगलुरू के रहनेवाले प्रख्यात गांधीवादी हैं।चंबल की कहानी का जिक्र करते हुए बताया कि 'पचास-साठ के दशक में चंबल घाटी के खूंखार दस्युओं के आतंक से जहां सरकार परेशान थी, वहीं तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल पुलिस के जरिए इन पर शिकंजा कसने में लगे थे। लगभग रोज होने वाली मुठभेड़ में कभी डाकू मर रहे थे तो कभी पुलिसकर्मी शहीद हो रहे थे।
उस वक्त उन्हें लगा कि शायद सरकार का तरीका गलत है। हर रोज हो रही हिंसा जब देखी न गई तो प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मिलकर उन्होंने गांधीवादी तरीके से दस्युओं को समझाने का एक मौका मांगा।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण व आचार्य विनोबा भावे जैसी हस्तियों ने मुझे प्रोत्साहन दिया। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन के चार साल चंबल घाटी के दस्युओं के बीच ही बिताकर उन्हें महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित किया। डॉ. सुब्बाराव के प्रयास ही थे कि हिंसा से बदनाम हो चुकी चंबल घाटी के 654 खूंखार दस्यओं ने सरकार के समक्ष आत्मसमर्पण कर समाज की मुख्य धारा में शामिल होने का फैसला किया। मध्य प्रदेश की चंबल घाटी में डाकुओं के बीच उन्हें समझाने गए थे। वहां डाकू आपस में ही लड़ पड़े। चारों ओर से गोलियां चल रहीं थीं। तभी एकबारगी लगा कि आज तो मर जाऊंगा। इसी बीच एक गोली किसी अन्य आदमी को आकर लगी और वो गिर पड़ा।
इस दिल दहला देने वाली घटना के बाद भी उन्होंने हौसला नहीं खोया, डाकुओं को सज्जन बनाने के लिए पूरे प्रयास किए। आखिरकार 1972 में महात्मा गांधी सेवा आश्रम में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की मौजूदगी में डाकुओं ने आत्मसमर्पण भी किया।अलग-अलग भागों में डाकुओं में युवा चेतना शिविर लगाकर बदलाव कर उन्हें आत्मसमर्पण के लिए राजी किया। कभी 50 तो कभी 20 लोगों का मन बदलता तो उनका सरकार के सामने आत्मसमर्पण करवा देते। आखिरी बार जब डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी उन्हें देखने के लिए पहुंची।
10 वर्ष की उम्र में ही गीता और उपनिषद् के भक्ति गीतों का गायन करने लगे। 9 अगस्त 1942 को ब्रिटिश विरोधी नारे लगाने पर गिरफ्तार हुए। उनकी संगठन कुशलता के तो प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी कायल थे। अब तक अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, कनाडा, सिंगापुर, इंडोनेशिया, श्रीलंका सहित अनेक देशों की यात्राएं की।
वे कार्यों के कारण जीवनकाल उपलब्धि पुरस्कार-2014,
अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए अणुव्रत अहिंसा पुरस्कार, महात्मा गांधी पुरस्कार-2008,
रचनात्मक कार्यों के लिए जमनालाल बजाज पुरस्कार-2006,
राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार 2003,
भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भावना पुरस्कार-2003,
विश्व मानवाधिकार प्रोत्साहन, पुरस्कार-2002 और
भारतीय एकता पुरस्कार
1997 में काशी विद्यापीठ वाराणसी की ओर से डी. लिट की मानद उपाधि से सम्मानित किए गए। उन्हे पद्ममूषण सम्मान से भी सम्मानित किया गया।
जब स्वतंत्र पत्रकारिता से जुड़ा तो उनसे मिलने का सिलसिला जारी रहा। राजगोपाल पीवी की जनसत्याग्रह यात्रा में लगातार मिले। पूरी तरह से वे अहंकारविहीन थे। जोश तो युवाओं जैसा था। उन्हें देश की लगभग सभी भाषाओं की समझ थी। इन भाषाओं में बोलने-समझने के साथ-साथ वह इन भाषाओं में गीत भी गा लेते थे। इस पर वे तर्क देते हैं कि गांधीवादी विचारों से लोगों को अवगत करवाने के लिए उन्हें देश के कोने-कोने में जाना होता है, इसलिए अलग-अलग प्रांत में अलग-अलग भाषा होने के कारण वहां के लोगों से बेहतर संवाद के लिए भाषा सीखनी जरूरी होती है।गर्मी हो या सर्दी खादी की कमीज और निकर ही सुब्बाराव की वेशभूषा थी।
वे कहते थे कि देश की असली दौलत नौजवान हैं। यही युवा पीढ़ी देश को भ्रष्टाचार, भुखमरी, गंदगी व नशे के जाल से बाहर निकाल भारत मां का गौरव बढ़ा सकती है। सुब्बाराव से मेरी अंतिम मुलाकात भीतिहरवा में हुई थी,उन्हें मुंगेर में होनेवाले आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र सम्मान के लिए न्योता दिया था। उन्होने कहा रामजी भाई को बुलाओं, अगली बार आएंगे।शायद यह मेरी अंतिम मुलाकात थी।