ये क्रांतिकारी नहीं, स्टंट पत्रकारिता है

अब जब आप नौकरी से पैदल हो गए तो ट्विटर पर पर “पत्रकारिता के भगत सिंह” बन रहे हैं। यह क्रांतिकारी पत्रकारिता नहीं, बल्कि स्टंट पत्रकारिता ही है।

Update: 2021-02-28 06:18 GMT

एबीपी न्यूज के सीनियर रिपोर्टर रक्षित सिंह के किसान आंदोलन के मंच से इस्तीफे का वीडियो देखा। सच कहूं तो मुझे उनका एलान-ए-अंदाज फिलहाल तो महज एक स्टंट लगा। इस तरह के स्टंट का जो इतिहास रहा है वह यह कि क्रांतिकारी की छवि बनाकर लोकप्रियता और जनता की सिम्पैथी हासिल करना। फिर इसे सीढ़ी बनाकर अपनी राजनीति की राह आसान बनाना। आजकल यह पहचान यू-ट्यूब से पैसा कमाने का जरिया भी बन रहा है। जैसे ही आपकी एक खास विचारधारा की छवि बनती है, उसके लाखों समर्थक रातो-रात आपके यू-ट्यूब चैनल के सब्सक्राइबर बन जाते हैं। हो सकता मैं गलत होऊं और रक्षित वाकई एक आदर्शवादी पत्रकार हों। कुछ समय बाद यह पता चल ही जाएगा कि वह एक आदर्शवादी पत्रकार हैं या फिर स्टंटिया।

पूर्व में कई पत्रकारों को रक्षित जैसा स्टंट करते देखा है, जो बाद में राजनीति में गए। या फिर अपनी लोकप्रियता का किसी राजनीतिक दल के लिए मोटा माल लेकर इस्तेमाल करते रहे। दिल्ली के कई पत्रकारों का स्टंट याद कर लीजिए। एक पत्रकार भाई ने तो प्रेस कांफ्रेंस में ही तब के गृह मंत्री पर जूता चला दिया था और वे एक खास समुदाय में पलभर में ही इतने लोकप्रिय हो गए कि आम आदमी पार्टी से विधायक बन गए।

यह सच है कि अब की पत्रकारिता का स्तर बहुत गिर गया है। मीडिया संस्थानों के मालिक सामचारो का कारोबार जूते के कारोबार की तरह ही करते हैं। विचारधारा के आधार पर मीडिया बुरी तरह बंट गया है। पत्रकार का जितना उंचा पद, उसे उतने ही समझौते करने पड़ते हैं। यह सच्चाई है। मेनस्ट्रीम के जो अच्छे पत्रकार हैं उन पर ऐसा दबाव रहता ही है। वे कई बार इस्तीफा भी देते हैं। दरबदर की ठोकर भी खाते हैं। कई साथियों ने तो अभाव में जान भी गंवाई है। लेकिन, उन लोगों ने रक्षित की तरह किसी जनसभा के मंच पर स्टंट करते हुए अपना इस्तीफा नहीं दिया।

मेरा जो अनुभव है वह यह है कि मीडिया में जो अच्छे पत्रकार हैं, उनमें से कुछ पत्रकार बीच का रास्ता निकालते हैं और जितना मन मुताबिक कर पाते हैं, करने की कोशिश करते हैं। कुछ मन मुताबिक न कर पाने पर नौकरी छोड़, बेहतर जगह और पत्रकारिता के हिसाब से अच्छे माहौल की तलाश करते हैं। ऐसे कई आदर्शवादी मित्रों को जानता हूं जो मोटी तनख्वाह के लालच में टीवी में गए और वहां की टीआरपी टाइप पत्रकारिता में खुद को असहज महसूस करते रहे। बाद में वे टीवी छोड़ पर कम पैसे पर प्रिंट में आ गए। वे अब थोड़ा बहुत पत्रकारिता कर पाते हैं। किताबे लिखते हैं। स्टंट वही करते हैं जिनकी राजनीतिक और वैचारिक महत्वाकांक्षा होती है।

रक्षित सिंह की तरह ही कुछ बड़े और नामी पत्रकार भी आजकल सोशल मीडिया पर "आदर्शवाद का स्टंट" कर रहे हैं। बेरोजगारी में उनके आदर्शवाद के तेवर "गणेश शंकर विद्यार्थी" जैसे दिख रहे हैं। जबकि सच यह है कि ये जो आज "सच" बोलने का दम भर रहे हैं, वे कभी "झूठ" का कारोबार करते थे। इनके आदर्श तब कहां थे, जब ये किसी चिटफंडिया और बिल्डरों के चैनल में लाखों का पैकेज लेकर खबरों की मां-बहन करते थे। भूत-प्रेत की लव स्टोरी दिखाते थे। सेक्स सीडी की आड़ में खबरों के नाम पर ब्लू फिल्म दिखाते थे। नौकरी बचाने के लिए अपने मालिकों लिए दलाली करते थे। भाजपाई चैनल में जब आप मोटी रकम पर संपादक थे तो क्या वाकई सच ही दिखाते थे? अब जब आप नौकरी से पैदल हो गए तो ट्विटर पर पर "पत्रकारिता के भगत सिंह" बन रहे हैं। यह क्रांतिकारी पत्रकारिता नहीं, बल्कि स्टंट पत्रकारिता ही है।

(वरिष्ठ पत्रकार अनिल पांडेय दिल्ली पत्रकार संघ के अध्यक्ष रहे हैं)



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