लोकतंत्र का भरोसा और राजनेताओं का पाखंड

Update: 2021-10-30 03:33 GMT


आजकल जिस तरह से हमारी विशिष्टता और हमारे समाज के वैविध्य को नष्ट किया जा रहा है, उससे यह लगता है कि हम कहीं नकहीं अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त कर रहे हैं। ऐसी कई घटनाएँ हाल में घटी हैं, जिनमें धार्मिक कट्टरता, सामुदायिक हिंसाऔर परस्पर घृणा का पता चलता है। किसी आदमी का इसलिए क़त्ल कर देना कि उसने किसी पुस्तक या आकाशीय देवता केबाबत कुछ कह दिया है, हमारे भाईचारे या प्यार का प्रतीक नहीं बन सकता। उपनिषदों में कहा गया है कि "वादे-वादे जायतेतत्त्वबोध:" अर्थात् किसी सत्य को जानने के लिए बहस ज़रूरी है। लेकिन जब बहस के नाम से ही हत्या होने लगे तो क्या होगा! पिछले दिनों कुछ निहंगों ने एक व्यक्ति को इसलिए मार दिया क्योंकि अन निहंगों के अनुसार उसने ग़ुरु ग्रंथ साहिब का अपमानकिया था। एक ऐसा धर्म जिसका जन्म ही भारतीय समाज में समता, भाईचारा और पारस्परिक सहयोग के लिए हुआ था, उसमेंइतनी असहिष्णुता कैसे आई? यह विचारणीय है। इन सबके पीछे कहीं न कहीं राजनीतिकों का पाखंड दिखाई पड़ता है, जो अपनेवोट पुख़्ता करने के लिए समुदायों को असहिष्णु बनाते हैं। और यहीं से लोकतंत्र का क्षरण होता है।

लोकतंत्र को सदैव धार्मिक कट्टरता और उससे पनपी हिंसा से ख़तरा होता है। पिछले दिनों बांग्ला देश में बहुसंख्यक समाज केकट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यक समुदाय के पूजा पंडालों को ध्वस्त किया, इससे वहाँ के समाज में पनपती अलोकतांत्रिक भावना कापता चलता है। यह समाज के बीच पारस्परिक घृणा को बढ़ावा देती है। कोई भी समाज कहीं अल्पसंख्यक होता है तो किसी औरदेश में वह बहुसंख्यक। ऐसे में ये खबरें हर समुदाय को शंका के घेरे में रखती हैं। हालाँकि वहाँ की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना वाज़ेद नेहिंसा करने वालों से सख़्ती के साथ निपटने के निर्देश दिए हैं। किंतु यदि सख़्ती नहीं की गई तो अल्पसंख्यक समुदाय के बीच पैठ गएभय को वे नहीं दूर कर पाएँगी। और ये सब बातें वहाँ पर लोकतंत्र को चोट पहुँचाएँगी।

लोकतंत्र का अर्थ है विविधता में एकता। यानी राज्य विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द एवं एकता स्थापित करने के प्रयास करे।ध्यान रखें, राजनीति भरोसे से चलती है और लोकप्रियता पाखंड से। मगर लोकतंत्र चलता है निष्ठा, विश्वास, नैतिक मूल्यों औरमनुष्यता के प्रति ईमानदारी के बूते। समता, सौहार्द और देशप्रेम ऐसे मूल्य हैं जिनसे कोई भी लोकतंत्र मजबूत बनता है। यह हमारालोकतंत्र जो पिछले सात दशकों में इतनी ऊँच-नीच झेल चुका है कि हर बार लगता है कि अब लोकतंत्र खतरे में है पर लोकतंत्र पूरीमजबूती के साथ खड़ा रहता है और इसकी वजह है कि हमारे अपने देश की बहुरंगी एवं बहुलतावादी संस्कृति। कोई एक संस्कृति यासमुदाय यहां अपना एकाधिकार या अधिनायकत्व नहीं चला सकता। यही बहुलता इसकी ताकत है और यही इसके विवाद कीजड़। मगर यह नहीं होती तो भारत वह देश नहीं होता जो तमाम झंझावतों के बावजूद अपने लोकतंत्र को पूरी शिद्दत के साथ जिंदारखता। एक इतना बड़ा मुल्क जो आबादी के लिहाज से आज दुनिया में नंबर वन है वह अगर अपने लोकतंत्र को यथावत रखता है तोकिसी चमत्कार से कम नहीं। आज जबकि बीसवीं सदी में आजाद हुए सारे मुल्क एक-एक कर अपने लोकतंत्र को ध्वस्त करते गएऐसे में भारत में लोकतंत्र का बने रहना आश्चर्य-सा लगता है। इसीलिए अपनी बहुलतावादी संस्कृति को बनाए रखना और उसमेंऔर रंग भरना आज की जरूरत है। हर साल गणतंत्र दिवस पर हम यह शपथ लेते हैं और इसे यथावत रखने का प्रदर्शन भी करते हैंपर लोकप्रिय बने रहने की हमारे राजनेताओं की ललक इस शपथ को कहीं न कहीं तोड़ती रहती है।

इसीलिए तो संविधान ही हमारे लोकतंत्र की मूल भावना है। अगर हमने संविधान की भावना के अनुरूप अपने देशवासियों को उनकीमूल जरूरतें भी पूरी नहीं कीं तो उसकी जवाबदेही भी तय करनी होगी। राष्ट्रपति भले ही देश के कार्यपालक अधिकारी न हों परसंविधान के अनुरूप वे हमारे इस राष्ट्र की तीनों संवैधानिक इकाईयों के प्रमुख हैं। विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका उनके अधीन रहकर काम करती है इसलिए उन्हें उन सब गतिविधियों पर नजर रखनी होगी जो संविधान की मूल भावना के विरुद्घ जारही हों। एक सक्षम राष्ट्र में राष्ट्राध्यक्ष को तय करना होता है कि संविधान की एक-एक धारा पर यथावत अमल करने की आजादीदेशवासियों को मिले। तथा इसके साथ ही विधायिका व कार्यपालिका को भी तय करना होगा कि वे हर देश वासी के दुख को दूरकर सकें। उन्हें निर्भय रहकर जीने की आजादी प्रदान करें। जिस दिन इस देश के हर एक आदमी की आंख का आंसू दूर हो जाएगाउसी दिन सही मायनों में हम गणतंत्र की अपनी अवधारणा पर खरे उतरेंगे।

आजादी का मतलब अपनी जिम्मेदारियां समझते हुए अपने गणतंत्र की मर्यादा सुरक्षित बनाए रखने होता है। लेकिन यह न समझतेहुए हमारे मुल्क में आजादी का दुरुपयोग ज्यादा होता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जब पूरे दो साल लगाकर संविधान बनाया थातब यह तय किया गया था कि हर भारत वासी को उसके मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु सरकार काम करेगी। मगर ऐसा हुआ नहींसरकारें और आम जन दोनों ने ही संविधान की मर्यादा को तार-तार किया है। आज के दिन कम से कम यह विचार किया जानाचाहिए कि संविधान की गरिमा का विचार कर ही हम अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं। संविधान की रक्षा हरदेशवासी का दायित्व है वह संविधान की मर्यादा को बनाए रखने में सन्नद्घ होगा तो संविधान भी उसे वह अधिकार देगा जिसकाप्रयोग कर वह निर्भय व निष्पक्ष होकर अपनी अभिव्यक्ति का प्रदर्शन कर सकने में सक्षम होगा।

इसलिए न सिर्फ़ राजनेताओं को बल्कि जनता को भी ध्यान रखना होगा कि हमारी आज़ादी तब ही क़ायम रहेगी जब हम संविधानका सम्मान करें। अर्थात् धार्मिक कट्टरता और हिंसा का सहारा न लें। क्योंकि लोकतंत्र को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी जनता कीअधिक होती है। आख़िर वही तो अपने वोट से एक सक्षम सरकार का गठन करता है। अगर वह खुद ही जाति, समुदाय और धर्म कीभावना को प्रमुखता देगा तो उसे अपने नेता भी वैसे ही मिलेंगे। फिर वह कैसे उम्मीद करेगा कि ये राजनेता हमारे लोकतंत्र को बचाकर रखें।

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