देश में मेडिकल शिक्षा का सच- प्रैक्टिस करने के इच्छुक विदेशी एमबीबीएस डिग्री वाले भारतीयों की संख्या 5 साल में 3 गुना बढ़ी
पिछले पांच वर्षों में विदेशी चिकित्सा स्नातक परीक्षा (एफएमजीई) देने वाले उम्मीदवारों की संख्या में तीन गुना वृद्धि हुई हैं - भारत में मेडिकल प्रैक्टिस के लिए लाइसेंस चाहने वाले विदेशी एमबीबीएस डिग्री वाले भारतीय छात्रों के लिए यह अनिवार्य परीक्षा है
यूक्रेन में युद्ध और वहां भारतीय मेडिकल छात्रों की दुर्दशा ने विदेशों में उनकी बढ़ती उपस्थिति पर ध्यान केंद्रित किया है। सरकारी बयानों और प्रचारकों की कोशिस से अलग इंडियन एक्सप्रेस की यह खबर बताती है कि वास्तविक स्थिति क्या है।
एफएमजीई आयोजित करने वाले नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन (एनबीई) के अनुसार, परीक्षा देने वाले मेडिकल ग्रेजुएट्स की संख्या 2015 में 12,116 से बढ़कर 2020 में 35,774 हो गई। यह, स्थिति तब है जब भारत ने इसी अवधि के दौरान लगभग 30,000 नई सीटें जोड़ीं हैं।
एफएमजीई साल में दो बार एनबीई द्वारा आयोजित की जाती है और विदेशी डिग्री वाले स्नातकों को इसे पास करने के लिए कुल तीन प्रयासों की अनुमति है। एफएमजीई में बैठने वाले अधिकांश स्नातकों ने चीन, रूस, यूक्रेन, किर्गिस्तान, फिलीपींस और कजाकिस्तान में अध्ययन किया होता है। 2020 में, चीनी विश्वविद्यालयों के 12,680 स्नातक परीक्षा में बैठे। इसके बाद रूस से 4,313 स्नातक, यूक्रेन से 4,258, किर्गिस्तान से 4,156, फिलीपींस से 3,142 और कजाकिस्तान से 2,311 स्नातक थे।
पिछले पांच वर्षों में, एफएमजीई परीक्षा का औसत उत्तीर्ण प्रतिशत 15.82% रहा है, और यूक्रेन से स्नातकों के लिए उत्तीर्ण संख्या 17.22% रही है। फिर भी, शीर्ष देशों में भी, कुछ ने अन्य की तुलना में चिकित्सा का अध्ययन करने वाले भारतीयों में अधिक वृद्धि देखी है।
उदाहरण के लिए, फिलीपींस से डिग्री हासिल करने वाले भारतीय मेडिकल स्नातकों की संख्या 2015 के बाद से लगभग दस गुना बढ़ गई है। एक वरिष्ठ डॉक्टर, जो पहले एनबीई के साथ काम कर चुके हैं, ने फिलीपींस के स्नातकों को लाइसेंस परीक्षा में अन्य देशों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन का श्रेय लोकप्रियता का दिया। उदाहरण के लिए, 2020 में, फिलीपींस के 33.7% उम्मीदवारों ने एफएमजीई क्लीयर किया जबकि 2019 में ऐसे उम्मीदवार और 50.2% थे।
पूर्व स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव ने कहा: "यह बाजार की ताकत है। बढ़ती आबादी और बीमारी के दोहरे बोझ के तहत संचारी और गैर-संचारी बीमारियों के लिए चिकित्सा देखभाल की बढ़ती मांग। भारत में, हमने अग्रिम योजना बनाकर बहुत तेजी से विस्तार नहीं किया और नीति, कुल मिलाकर, बढ़ती मांग के प्रति प्रतिक्रियाशील रही है।"
देश भर में उपलब्ध 83,000 से अधिक एमबीबीएस सीटों के लिए 2021 में एनईईटी-यूजी के लिए 16 लाख से अधिक छात्र परीक्षा में बैठे। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सुझाए गए डॉक्टर रोगी अनुपात 1:1000 के अनुसार, भारत को 1.38 मिलियन डॉक्टरों की आवश्यकता है । राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल 2021 में कहा गया है कि देश में 1.2 मिलियन पंजीकृत चिकित्सक हैं।
इंडियन एक्सप्रेस ने सोमवार को बताया कि देश में सरकारी मेडिकल कॉलेजों में सीट नहीं पाने वाले कई छात्र भारत के निजी कॉलेजों की तुलना में शिक्षा की कम लागत के कारण इन एशियाई और पूर्वी यूरोपीय देशों में पढ़ना पसंद करते हैं। यह खबर इंडियनएक्सप्रेस डॉट कॉम से ली गई है जो आज शाम 5:56:13 बजे अद्यतन की गई बताई गई है।
इसके अनुसार, युद्धग्रस्त यूक्रेन में चिकित्सा स्नातक होने की लागत छह साल की पूरी अवधि के लिए लगभग 15 से 20 लाख रुपये है। भारत में निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस 4.5 साल के कोर्स के लिए 50 लाख रुपये से 1.5 करोड़ रुपये के बीच हो सकती है। भारत में सरकारी मेडिकल कॉलेजों की फीस पूरे कोर्स के लिए कुछ हज़ार से लेकर अधिकतम एक-दो लाख तक होती है।
नेशनल मेडिकल कमीशन के अंडर ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन बोर्ड की प्रेसिडेंट अरुणा वाणीकर का तर्क है कि रूस, चीन और यूक्रेन जैसे देशों में अध्ययन करने जाने वाले छात्रों के लिए नुकसान की स्थिति है, उनके 20% से कम स्नातक एफएमजीई पास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, चीन के केवल 13% मेडिकल स्नातकों ने 2020 में परीक्षा उत्तीर्ण की और 16% यूक्रेनी मेडिकल कॉलेजों से उत्तीर्ण हुए।
उनका कहना है कि एक उपाय यह है कि चिकित्सा शिक्षा की लागत को नियंत्रित किया जाए। उन्होंने कहा कि "केंद्र और राज्य सरकारों, संस्थानों, परोपकारी और हितधारकों के समर्थन से सभी कॉलेजों / संस्थानों में फीस की कैपिंग की आवश्यकता है, ताकि मेडिकल ग्रेजुएशन को अधिक मानवीय और आगे बढ़ने के योग्य बनाया जा सके।"
इससे पहले की स्थिति टाइम्स ऑफ इंडिया में 13 अगस्त 2013 को छपी थी। इसमें कहा गया था कि सरकार तीन दशक से मेडिकल शिक्षा की उपेक्षा कर रही है। इसका नतीजा है कि देश में मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र ने बड़े पैमाने पर कदम रखा है और इसका मतलब हुआ है लागत में भारी वृद्धि। 2013 की इस खबर में कहा गया था कि मेडिकल शिक्षा के लिए उपलब्ध सीटों में लगभग आधी (47%) 2000 के बाद बनी है। हालांकि, 1972 से जो सीटें बढ़ी हैं उनमें से 72% निजी क्षेत्र में हैं। अखबार ने तभी लिखा था कि स्थिति चिन्ताजनक है। आठ साल में सरकार ने क्या किया और क्या कहा आप बेहतर जानते है।