लखबीर सिंह हत्याकांड के अनछुए पहलू, जिन्हें आप जानना चाहेंगे
धनी किसान-कुलक आन्दोलन की ट्रॉली के पीछे घिसट रहे “यथार्थवादियों” और ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप के ट्रॉट-बुण्डवादियों और इसी प्रकार के अन्य तथाकथित मार्क्सवादियों के लिए ये प्रश्न एक पीड़ादायी दुस्वप्न के समान बने हुए हैं
'ट्रिब्यून' अखबार, जो कि शुरू से ही धनी किसान-कुलक आन्दोलन का समर्थक रहा है, व पंजाबी मीडिया का बड़ा हिस्सा यह ख़बर पेश कर रहा है कि निहंगों का एक पंथ जुलाई से ही धनी किसान आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए मोदी सरकार से बातचीत कर रहा था। जुलाई के बाद सीधे अब यह ख़बर सुर्खियों में आई है जब सिंघु बॉर्डर की घटना घट चुकी है।
ज्ञात हो कि निहंगों का यह पंथ ही नहीं बल्कि कई छोटे-मोटे ग्रुप व पंथ सरकार के साथ मिलते रहे हैं। इनमें से कुछ कोई बीच का रास्ता निकालते हुए सरकार और कुलक नेतृत्व के बीच कोई समझौता करवाने की कोशिश करते रहे हैं तो कुछ अन्य मोदी सरकार के इशारों पर भी खेलते रहे हैं। ये सारे तथ्य जगज़ाहिर हैं। लेकिन अभी अचानक 'ट्रिब्यून' जैसे अखबार में जुलाई में हुई इस बैठक के आधार पर इस प्रकार की ख़बर क्यों आई? क्या इसका मक़सद यह है कि दलित मज़दूर की बर्बर हत्या की दर्दनाक प्रक्रिया को महज़ एक साज़िश बता दिया जाए?
अगर यह किसी निहंग पंथ द्वारा की गयी साज़िश भी होती तो भी धनी किसान-कुलक आंदोलन का वर्ग चरित्र और उसके नेतृत्व की मौक़ापरस्ती तो खुलकर सामने आयी ही है। तब भी निम्न प्रश्नों का कोई जवाब धनी किसान-कुलक आन्दोलन के पिछलग्ग और दलाल नहीं दे सकते हैं:
1. पहला सवाल: जब उक्त दलित मज़दूर की हत्या की गई तो उसे पहले हाथ-पांव काटकर पूरे प्रदर्शन स्थल पर घुमाया गया। इस पूरी प्रक्रिया में केवल एक बूढ़े किसान ने आपत्ति करते हुए कहा कि अब बस करो उसे अपने किये की सज़ा मिल चुकी है! आपत्ति करने वाले किसान के हिसाब से भी एक निर्जीव पुस्तक की कथित बेअदबी के लिए एक जीवित मनुष्य के हाथ-पांव काट देना वाजिब सज़ा थी। इस तरह की बर्बर घटना पर ऐसी मौन सहमति और दलित मज़दूरों के प्रति रवैया क्या मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन के वर्ग चरित्र के बारे में कुछ बताता है या नहीं?
2. दूसरा सवाल: अगर यह हत्या साज़िश भी हाती तो भी इसके बाद धनी किसान-कुलक आन्दोलन के नेतृत्व ने जो मौक़ापरस्ती अपनाई वह भी अक्षम्य है। उसने दलित मज़दूर की हत्या पर भी "अफ़सोस" जताया और साथ में यह भी कहा कि धर्म ग्रन्थ का अपमान करना ग़लत था! इसका अधिक से अधिक उदारता से मतलब निकाला जाए तो यह मतलब ही निकलता है कि उस दलित मज़दूर ने ग़लती तो की थी लेकिन उसे उचित दण्ड से ज़्यादा बड़ा दण्ड मिल गया जिसपर कुलक नेताओं को ''अफ़सोस'' है! अब फ़र्ज़ कीजिए: किसी हिन्दू धर्म ग्रन्थ का अपमान करने पर किसी मुसलमान की मॉब लिंचिंग पर या फिर हज़रत मौहम्मद का कार्टून बनाने पर किसी ग़ैर-मुसलमान की हत्या पर हिन्दू कट्टरपन्थियों और इस्लामिक कट्टरपन्थियों को किन शब्दों में लानत-मलामत भेजी जाएगी? क्या सभी कट्टरपन्थी ठीक यही ''धार्मिक भावनाओं के आहत होने'' का तर्क देकर अपने जघन्यतम अपराधों को सही नहीं ठहराते? और क्या सभी प्रकार के मौक़ापरस्त और लिबरल जमात ''अफ़सोस'' ज़ाहिर करते हुए इसी तर्क के सामने घुटने नहीं टेकते? संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व द्वारा इस प्रकार का ढुलमुल बयान और आन्दोलन के भीतर से धार्मिक कट्टरपन्थी और धुर दक्षिणपन्थी ताक़तों को बाहर न करना और उनकी मौजूदगी के प्रति सहिष्णुता बनाए रखना क्या उनके चरित्र के बारे में कुछ बताता है या नहीं?
3. तीसरा सवाल: इस घटना के पहले भी धनी किसानों-कुलकों द्वारा पंजाब के गांवों में मते डालकर दलित मज़दूर समेत समस्त खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी पर सीलिंग फिक्स की गई थी। सिंघू व टीकरी बॉर्डरों पर प्रदर्शन में न जाने पर दलित मज़दूरों के घरों पर हज़ारों रुपये के जुर्माने ठोंके जा रहे थे और उनका सामाजिक बहिष्कार तक किया जा रहा था। क्या इन घटनाओं से पूरे आन्दोलन के वर्ग चरित्र पर गम्भीर प्रश्न नहीं खड़े हो जाते?
धनी किसान-कुलक आन्दोलन की ट्रॉली के पीछे घिसट रहे "यथार्थवादियों" और 'ललकार-प्रतिबद्ध' ग्रुप के ट्रॉट-बुण्डवादियों और इसी प्रकार के अन्य तथाकथित मार्क्सवादियों के लिए ये प्रश्न एक पीड़ादायी दुस्वप्न के समान बने हुए हैं। न तो इन्होंने इस दलित मज़दूर की हत्या पर एक शब्द ही बोला है और न ही धनी किसान-कुलक आन्दोलन के फिर से ज़ाहिर हुए चरित्र पर एक शब्द बोला है? यह इस प्रकार के "बौद्धिक" जोकरों के मज़दूर-विरोधी, दलित-विरोधी तथा बेईमान और मौक़ापरस्त चरित्र को साफ़ तौर पर ज़ाहिर करता है, अपनी मूर्खता की नुमाईश तो खैर ये पहले ही कर चुके हैं।
(कॉमरेड सन्नी कुमार की वाल से)