अशोक कुमार पाण्डेय
सोशल मीडिया में अकसर ऐसी पोस्ट्स दिख जाती हैं जिसमें शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की हत्या के लिए जवाहरलाल नेहरू पर आरोप लगाया जाता है। आइए देखते हैं कि हक़ीक़त क्या है।
चंद्रशेखर आज़ाद भारतीय मुक्ति संग्राम के समझौताहीन वीर योद्धाओं में से अद्वितीय हैं। हिंदुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर के रूप में उन्होंने न केवल अदम्य साहस का प्रदर्शन किया था बल्कि समाजवाद के सिद्धांत को अपनाया भी था। जाति और धर्म के भेदभावों से ऊपर उठकर एक बराबरी पर आधारित देश की स्थापना के वह भगत सिंह जैसे अपने साथियों के स्वप्न में साझेदार थे।
आज़ादी के आंदोलन की दो प्रमुख धाराएं इन स्वपनों में साझेदार तो थीं, लेकिन जहाँ कांग्रेस अहिंसा की राह से यह हासिल करना चाहती थी वहीं आज़ाद और उनके साथी सशस्त्र क्रांति की राह पर भरोसा करते थे, इसीलिए परस्पर सम्मान के बावजूद असहमतियाँ तो थीं हीं।
नेहरू और आज़ाद
आज़ाद के साथी रहे यशपाल लिखते हैं :
1931 के आरंभ में आज़ाद गोलमेज समझौते की आशाओं और आशंकाओं के सम्बन्ध में पंडित जवाहरलाल नेहरू से बात करने आनंद भवन गए। मोतीलाल जी का कुछ दिन पहले देहांत हुआ था/ आज़ाद पहले मोतीलाल जी से मिलने आनंद भवन जा चुके थे। मोतीलाल जी से मुलाक़ात का कोई राजनैतिक प्रयोजन नहीं था।
मोतीलाल जी बहुत जिंदादिल आदमी थे। स्वयं कांग्रेस के कार्यक्रम को अपनाकर भी क्रांतिकारियों की सहायता करना अनैतिक नहीं समझते थे। काकोरी षड्यन्त्र के मुक़दमे में क्रांतिकारियों को क़ानूनी सहायता पहुँचाने के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया था। हो सकता है आज़ाद का संदेश पाकर उन्होंने खुद उन्हें मिलने के लिए बुलाया लिया हो। उस मुलाक़ात के समय जवाहरलाल की छोटी बहन कृष्णा भी थीं और आज़ाद ने वहाँ भोजन किया था।
पंडित नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है :
आज़ाद मुझसे मिलने के लिए इसलिए तैयार हुए क्योंकि हमारे जेल से छूटने के बाद आमतौर से आशाएं बँधने लगी थीं कि सरकार और कांग्रेस में कोई समझौता होने वाला है। वह जानना चाहते थे कि अगर कोई समझौता हो तो उनके दल के लोगों को कुछ शांति मिलेगी या नहीं। उन्होंने कहा कि खुद मेरा तथा दूसरे साथियों का यह विश्वास हो चुका है आतंकवादी तरीके बिल्कुल बेकार हैं, उसमें कोई लाभ नहीं है। हाँ, वह यह मानने को तैयार नहीं थे कि शांतिमय साधनों से ही हिंदुस्तान को आज़ादी मिल सकती है। उन्होंने कहा कि आगे कभी सशस्त्र लड़ाई का मौक़ा या सकता है लेकिन वह आतंकवाद न होगा।' शायद यह बातचीत थोड़ी तल्ख रही होगी क्योंकि लौटकर आज़ाद थोड़े नाराज़ थे कि नेहरू ने उनके संगठन को फासिस्ट कहा था।
लेकिन फिर उन्होंने यशपाल को नेहरू से दुबारा मिलने के लिए कहा। फरवरी के दूसरे हफ्ते में यशपाल उनसे मिले और सशस्त्र संघर्ष तथा रूस जाने के लिए कुछ मदद की बात की। मोतीलाल जी की मृत्यु के बाद आर्थिक स्थिति बेहतर न होने के बावजूद नेहरू सशस्त्र योजनाओं के लिए तो नहीं लेकिन रूस जाने के लिए पैसे देने को तैयार हो गए। तीसरे दिन उन्होंने शिवमूर्ति सिंह के माध्यम से डेढ़ हजार रूपये भिजवाए। हज़ार रूपये यशपाल के पास थे और पाँच सौ का एक नोट आज़ाद के पास।
आज़ाद की शहादत :
27 फरवरी को आज़ाद अल्फ्रेड पार्क के लिए निकले। उस दिन वह सुखदेव राज से मिलने गए थे।
सुखदेव राज ने अपने संस्मरण में लिखा है :
27 फरवरी को प्रातः जलपान करने के बाद जब मैं साइकल से चला तो भैया (आज़ाद) रास्ते में निश्चित कार्यक्रम के अनुसार मिले। उस दिन उनके साथ दो आदमी और थे। जब मैं भैया की ओर बढ़ा तो उनके आदेश पर वे दोनों आदमी वहाँ से चले गए। बाद में भैया ने मुझे बताया कि वे यशपाल और सुरेन्द्र पांडे थे।
जिस समय भैया से यह चर्चा हो रही थी उसी समय थॉर्नहिल रोड पर मयोर कॉलेज के सामने एक व्यक्ति जाता हुआ दिखाई दिया। बातचीत का क्रम रोककर भैया ने कहा – वह वीरभद्र जा रहा है। शायद उसने हमें देखा नहीं। मैंने गर्दन घुमाकर देखा तो वह आदमी आगे बढ़ चुका था। मैंने वीरभद्र को कभी नहीं देखा था।
बातचीत करते-करते हमने पार्क का पूरा चक्कर लगा डाला था। पार्क के अंदर जब हम घुसे तो एक आदमी पुलिया के ऊपर बैठा हुआ दातून कर रहा था। उसने बड़े ध्यान से भैया की ओर देखा। मैंने भी उसे घूरा और भैया से उसके बारे में शंका प्रकट की। मैं एकबार फिर उसे देखने गया तब वह दूसरी ओर देख रहा था।
अभी भैया से बातें हो रही थीं कि एक एक मोटर सामने सड़क पर रुकी जिसमें से एक अंग्रेज अफ़सर और दो कांस्टेबल सादे कपड़ों में उतरे। हम लोगों का माथा ठनका। गोरा अफ़सर हाथ में पिस्तौल लिए हमारी तरफ़ आया और पिस्तौल दिखाकर हम लोगों से पूछा – तुम लोग कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?
भैया का हाथ अपनी पिस्तौल पर गया और मेरा अपनी। गोरे ने जैसे ही बातें शुरू कीं हम दोनों ने पिस्तौल खींच ली और गोली से उत्तर दिया। मगर गोरे अफ़सर की पिस्तौल पहले छूटी। गोली भैया की जांघ में लगी। आज़ाद की गोली गोरे के कंधे में लगी। गोरे की गोली से भैया की जांघ की हड्डी चूर-चूर हो गई। एक गोली उनकी दाहिनी भुजा में लगी। फिर भी उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। उनका बायाँ हाँथ ही बिजली बनकर कौंध उठाया था। उनकी पिस्तौल गरजी और नॉट बावर की कलाई टूट गई। पिस्तौल उसके हाथ से गिर पड़ी। उसने मोटर से भागने की कोशिश की लेकिन इसके पहले ही भैया की गोली से उसका टायर बेकाम हो चुका था।
नॉट बावर आगे की कहानी लिखता है :
मेरी भुजा पर चोट थी इस कारण मैं गोली नहीं चला सकता था किन्तु आज़ाद बराबर गोली दागते रहे। अंत में आज़ाद चित्त लेट गए.. मुझे यह संदेह था कि आज़ाद पुलिसवाले को धोखा दे रहे हैं। इसी समय एक पुलिस कांस्टेबल पीछे से या पहुंचा। मैंने उसे गोली मारने के लिए कहा और उसने ऐसा ही किया। मुझे जब पक्का विश्वास हो गया कि आज़ाद मर गए हैं तब मैं उनके पास गया..
उनके एक और साथी सुरेन्द्र शर्मा बताते हैं :
आज़ाद का शव पुलिस के अधिकारियों ने हम लोगों के मांगने पर भी नहीं दिया। उनके एक संबंधी द्वारा पुलिस की देखरेख में गंगा किनारे अंतिम संस्कार कराया गया। इसके कुछ दिन बाद कांग्रेसी नेता पुरुषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में जो सभा हुई उसमें जवाहरलाल नेहरू ने उनके अपूर्व शौर्य और देशभक्ति की सराहना करते हुए कहा – इस लड़के की कुर्बानी से आज इलाहाबादवालों का सर फिर से ऊंचा हो गया है।
यहाँ यह बात देना जरूरी होगा कि हिन्दू महासभा या आर एस एस द्वारा शहीद चंद्रशेखर आज़ाद को श्रद्धांजलि दिए जाने का कहीं जिक्र नहीं मिलता और सावरकर या गोलवलकर के लेखन में कहीं उनका जिक्र नहीं आता।
कौन था आज़ाद की मौत का ज़िम्मेदार?
सुखदेव राज सहित आज़ाद के अधिकतर साथियों ने वीरभद्र तिवारी का नाम लिया है जो आज़ाद की पार्टी का सदस्य था लेकिन नॉट बावर के प्रभाव में मुखबिर बन गया था।
इनमें से किसी ने कभी जवाहरलाल नेहरू का इस संदर्भ में जिक्र भी नहीं किया है। इसके अलावा आज़ाद की नेहरू से इस दौरान न कोई मुलाक़ात हुई थी न बात। उनसे फरवरी में मिलने आज़ाद नहीं बल्कि यशपाल गए थे।
पहले भी भगत सिंह की फाँसी हो या दूसरे क्रांतिकारियों की हत्या और गिरफ़्तारी, अक्सर उसके पीछे उनकी ही पार्टी के गद्दारों का हाथ होता था क्योंकि अक्सर ठिकाने बदलने के कारण दल के सदस्यों के अलावा किसी और के पास उनके कार्यक्रमों की कोई जानकारी नहीं होती थी।
आज कुछ लोग निहित स्वार्थ से नेहरू को बदनाम करते हुए यह तथ्य छिपा देना चाहते हैं कि मोतीलाल जी और जवाहरलाल नेहरू, दोनों ने ही हिंसा के विरुद्ध होने के बावजूद क्रांतिकारियों की अक्सर सहायता की थी। आज देशभक्ति का दावा करने वाले तो तब अंग्रेजों के साझेदार थे।
साफ़ है कि इस बारे में सोशल मीडिया पर प्रसारित आरोप आधारहीन हैं।