जब दारा शिकोह का सिर काट कर पेश किया गया था शाहजहाँ के सामने

Update: 2022-03-20 09:11 GMT

मुग़ल सल्तनत के बारे में मशहूर है कि वहाँ हमेशा एक फ़ारसी कहावत का बोलबाला रहा है 'या तख़्त या ताबूत' यानी या तो सिंहासन या फिर क़ब्र.अगर हम मुग़ल इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि शाहजहाँ ने न सिर्फ़ अपने दो भाइयों ख़ुसरो और शहरयार की मौत का आदेश दिया बल्कि 1628 में गद्दी सँभालने पर अपने दो भतीजों और चचेरे भाइयों को भी मरवाया. यहाँ तक कि शाहजहाँ के पिता जहाँगीर भी अपने छोटे भाई दान्याल की मौत के ज़िम्मेदार बने.ये परंपरा शाहजहाँ के बाद भी जारी रही और उनके बेटे औरंगज़ेब ने अपने बड़े भाई दारा शिकोह का सिर क़लम करवा कर भारत के सिंहासन पर अपना अधिकार जमाया.

कैसी शख़्सियत थी शाहजहाँ के सबसे प्रिय और सबसे बड़े बेटे दारा शिकोह की?

मैंने यही सवाल रखा हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'दारा शुकोह, द मैन हू वुड बी किंग' के लेखक अवीक चंदा के सामने. अवीक का कहना था, "दारा शिकोह का एक बहुत बहुआयामी और जटिल व्यक्तित्व था. एक तरफ़ वो बहुत गर्मजोश शख़्स, विचारक, प्रतिभाशाली कवि, अध्येता, उच्च कोटि के धर्मशास्त्री, सूफ़ी और ललित कलाओं का ज्ञान रखने वाले शहज़ादे थे, लेकिन दूसरी तरफ़ प्रशासन और सैन्य मामलों में उनकी कोई रुचि नहीं थी. वो स्वभाव से वहमी थे और लोगों को पहचानने की उनकी समझ बहुत संकुचित थी."

शाहजहाँ ने रखा सैन्य अभियानों से दूर

शाहजहाँ को दारा इतने प्रिय थे कि वो अपने वलीअहद को सैन्य अभियानों में भेजने से हमेशा कतराते रहे और उन्हें हमेशा अपनी आँखों के सामने अपने दरबार में रखा. अवीक चंदा कहते हैं, "शाहजहाँ को जहाँ औरंगज़ेब को सैन्य अभियानों पर भेजने में कोई संकोच नहीं था, जबकि उस समय उनकी उम्र मात्र सोलह साल की रही होगी. वो दक्षिण में एक बड़े सैन्य अभियान का नेतृत्व करते हैं. इसी तरह मुराद बख़्श को भेजा जाता है गुजरात और शाहशुजा को भेजा जाता है बंगाल की तरफ़. लेकिन उनके सबसे अज़ीज़ बेटे दारा शाहजहाँ के दरबार में ही रहते हैं. वो उन्हें अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देते. नतीजा ये होता है कि उन्हें न तो जंग का तजुरबा हो रहा है और न ही सियासत का. वो दारा को अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए इतने तत्पर थे कि उन्होंने उसके लिए अपने दरबार में एक ख़ास आयोजन किया. अपने पास तख़्त पर बैठाया और उन्हें 'शाहे बुलंद इक़बाल' का ख़िताब दिया और ऐलान किया कि उनके बाद वो ही हिंदुस्तान की गद्दी पर बैठेंगे."

शहज़ादे के रूप में दारा को शाही ख़ज़ाने से दो लाख रुपये एक मुश्त दिए गए. उन्हें रोज़ एक हज़ार रुपये का दैनिक भत्ता दिया जाता था.

हाथियों की लड़ाई में औरंगज़ेब की बहादुरी

28 मई 1633 को एक बहुत ही नाटकीय घटना हुई जिसका असर कई सालों बाद दिखाई दिया. शाहजहाँ को हाथियों की लड़ाई देखने का बहुत शौक़ था. दो हाथियों सुधाकर और सूरत-सुंदर की लड़ाई देखने के लिए वो बालकनी से उतर कर नीचे आ गए.लड़ाई में सूरत-सुंदर हाथी मैदान छोड़ कर भागने लगा तो सुधाकर गुस्से में उसके पीछे दौड़ा. तमाशा देख रहे लोग घबरा कर इधर-उधर भागने लगे. हाथी ने औरंगज़ेब पर हमला किया. घोड़े पर सवार 14 साल के औरंगज़ेब ने अपने घोड़े को भागने से रोका और जैसे ही हाथी उनके नज़दीक आया, उन्होंने अपने भाले से उसके माथे पर वार किया. इस बीच कुछ सैनिक दौड़ कर वहाँ पहुंच गए और उन्होंने शाहजहाँ के चारों तरफ़ अपना घेरा बना लिया. हाथी को डराने के लिए पटाख़े छोड़े गए लेकिन हाथी ने अपनी सूँड़ के ज़ोर से औरंगज़ेब के घोड़े को नीचे गिरा दिया.

उसके गिरने से पहले औरंगज़ेब उस पर से नीचे कूद गए और हाथी से लड़ने के लिए अपनी तलवार निकाल ली. तभी शहज़ादे शुज़ा ने पीछे से आ कर हाथी पर वार किया. हाथी ने उनके घोड़े पर इतनी ज़ोर से सिर मारा कि शुजा भी घोड़े से नीचे गिर गए. तभी वहाँ मौजूद राजा जसवंत सिंह और कई शाही सैनिक अपने घोड़ों पर वहाँ पहुंच गए. चारों तरफ़ शोर मचने पर सुधाकर वहाँ से भाग गया. बाद में औरंगज़ेब को बादशाह के सामने लाया गया. उन्होंने अपने बेटे को गले लगा लिया.

अवीक चंदा बताते हैं कि बाद में एक जलसा कराया गया जिसमें औरंगज़ेब को बहादुर का ख़िताब दिया गया. उन्हें सोने में तौलवाया गया और वो सोना उनको उपहार में दे दिया गया. इस पूरे प्रकरण के दौरान दारा वहीँ खड़े थे, लेकिन उन्होंने हाथियों पर नियंत्रण करने की कोई कोशिश नहीं की. ये घटना एक तरह से प्रारंभिक संकेत था कि बाद में हिंदुस्तान की गद्दी कौन संभालेगा. एक और इतिहासकार राना सफ़वी बताती हैं, "दारा घटनास्थल से थोड़े दूर थे. वो चाह कर भी वहाँ तुरंत नहीं पहुंच सकते थे. ये कहना ग़लत होगा कि वो जानबूझ कर पीछे हट गए जिससे औरंगज़ेब को वाहवाही पाने का मौका मिल गया."

मुग़ल इतिहास की सबसे मँहगी शादी

नादिरा बानो से दारा शिकोह की शादी को मुग़ल इतिहास की सबसे मँहगी शादी कहा जाता है. उस समय इंग्लैंड से भारत भ्रमण पर आए पीटर मैंडी ने अपने एक लेख में लिखा कि उस शादी में उस ज़माने में 32 लाख रुपये ख़र्च हुए थे जिसमें से 16 लाख रुपये दारा की बड़ी बहन जहाँआरा बेगम ने दिए थे.

अवीक चंदा बताते हैं, "दारा सबके प्रिय थे बादशाह के भी और अपनी बड़ी बहन जहाँआरा के भी. उस समय उनकी माँ मुमताज़ महल गुज़र चुकी थीं और जहाँआरा बेगम बादशाह बेगम बन गई थीं अपनी पत्नी की मौत के बाद शाहजहाँ पहली बार किसी सार्वजनिक समारोह में भाग ले रहे थे. ये शादी 1 फ़रवरी , 1633 को हुई थी और 8 फ़रवरी तक दावतों का सिलसिला जारी रहा. इस दौरान रात में इतने पटाख़े छोड़े गए और इतनी रोशनी की गई कि ऐसा लगा कि रात में दिन हो गया हो. कहा जाता है कि शादी के दिन पहने गए दुल्हन के जोड़े की ही क़ीमत आठ लाख रुपए थी."

कंधार पर चढ़ाई की थी दारा ने\

दारा शिकोह की सार्वजनिक छवि एक कमज़ोर योद्धा और अयोग्य प्रशासक की थी. लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्होंने कभी युद्ध में भाग नहीं लिया. कंधार के अभियान में वो खुद अपनी पहल पर लड़ने गए लेकिन वहाँ पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा.अवीक चंदा बताते हैं, "जब औरंगज़ेब कंधार से नाकामयाब हो कर वापस आ जाते हैं, तब दारा शिकोह ख़ुद पेशकश करते हैं कि इस अभियान का नेतृत्व करेंगे और शाहजहाँ इसके लिए राज़ी भी हो जाते हैं. लाहौर पहुंच कर दारा 70 हज़ार लोगों की सेना तैयार करते हैं जिसमें 110 मुस्लिम और 58 राजपूत सिपहसालार हैं. इस फ़ौज में 230 हाथी, 6000 ज़मीन खोदने वाले, 500 भिश्ती और बहुत से ताँत्रिक, जादूगर और हर तरह के मौलाना और साधू भी साथ चल रहे हैं. अपने सिपहसालारों से सलाह लेने के बजाए दारा इन तांत्रिकों और नजूमियों से सलाह ले कर हमले का दिन निर्धारित करते हैं. उनके ऊपर वो बहुत पैसा भी ख़र्च करते हैं. उधर फ़ारसी सैनिकों ने बहुत ही जानदार रक्षण योजना बनाई हुई है. कई दिनों तक घेरा डालने के बाद भी दारा को असफलता ही हाथ लगती है और उन्हें ख़ाली हाथ ही दिल्ली वापस लौटना पड़ता है."

औरंगज़ेब से उत्तराधिकार की लड़ाई हारे

शाहजहाँ की बीमारी के बाद उनके उत्तराधिकार के लिए हुई लड़ाई में औरंगज़ेब उन पर भारी पड़े. पाकिस्तान के नाटककार शाहिद नदीम की बात मानी जाए तो औरंगज़ेब के हाथों दारा की हार ने भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बीज बोए थे. इस लड़ाई में औरंगज़ेब एक बड़े हाथी पर सवार थे. उनके पीछे तीर कमानों से लैस 15000 सवार चल रहे थे. उनके दाहिनी तरफ़ उनके बेटे सुल्तान मोहम्मद और सौतेले भाई मीर बाबा थे. सुल्तान मोहम्मद के बगल में नजाबत ख़ाँ की टुकड़ी थी. इसके अलावा 15000 और सैनिक शहज़ादे मुराद बख़्श की कमान में थे. वो भी एक क़द्दावर हाथी पर बैठे हुए थे. उनके ठीक पीछे हौदे में उनका छोटा बेटा बैठा हुआ था.

अवीक चंदा कहते हैं, "शुरू में दोनों फ़ौजों के बीच बराबरी का मुकाबला था, बल्कि दारा थोड़े भारी पड़ रहे थे. लेकिन तभी औरंगज़ेब ने असली नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया. उन्होंने अपने हाथी के चारों पैर ज़ंजीर से बँधवा दिए ताकि वो न तो पीछे जा सके और न ही आगे. फिर वो चिल्ला कर बोले, 'मरदानी, दिलावराँ-ए-बहादुर! वक्त अस्त!' यानी बहादुरों यही समय है अपना जीवट दिखाने का. उन्होंने अपने हाथ ऊपर की तरफ़ उठाए और ऊँची आवाज़ में बोले, 'या ख़ुदा! या ख़ुदा! मेरा तुझमें अक़ीदा है! मैं हारने से बेहतर मर जाना पसंद करूँगा."

हाथी छोड़ना भारी पड़ा दारा को

अवीक चंदा आगे बताते हैं, "तभी ख़लीलउल्लाह ख़ाँ ने दारा से कहा आप जीत रहे हैं. लेकिन आप ऊँचे हाथी पर क्यों बैठे हुए हैं? आप अपनेआप को ख़तरे में क्यों डाल रहे हैं? अगर एक भी तीर या गोली आप के हौदे को चीरते हुए आपको लग गई, उस के बाद क्या होगा उसकी आप कल्पना कर सकते हैं. ख़ुदा के लिए आप हाथी से उतरिए और घोड़े पर सवार हो कर लड़ाई लड़िए. दारा ने वो सलाह मान ली. जब दारा के सैनिकों ने देखा कि उस हाथी का हौदा ख़ाली है जिस पर वो सवार थे तो हर तरफ़ अफवाहें फैलने लगीं. हौदा ख़ाली था और दारा कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे. उन्हें लगा कहीं दारा पकड़ तो नहीं लिए गए हैं या लड़ाई में उनकी मौत तो नहीं हो गई है. उससे उनके सैनिक इतने घबरा गए कि वो पीछे की तरफ़ जाने लगे और थोड़ी देर में ही औरंगज़ेब के सैनिकों ने दारा के सैनिकों को एक तरह से रौंद दिया."

इस लड़ाई का बहुत बारीक वर्णन इटालियन इतिहासकार निकोलाओ मनूची ने अपनी किताब 'स्तोरिया दो मोगोर' में किया है.

मनूची लिखते हैं, "दारा की फ़ौज में पेशेवर सैनिक नहीं थे. उनमें से बहुत से लोग या तो नाई थे, या क़साई या साधारण मज़दूर. दारा ने धुएं के बादलों के बीच अपने घोड़े को आगे बढ़ाया. साहसी दिखने की कोशिश करते हुए उन्होंने हुक़्म दिया कि नगाड़े बजाने जारी रखे जाएं. उन्होंने देखा कि दुश्मन अभी भी कुछ दूरी पर है. उसकी तरफ़ से न तो कोई हमला हो रहा है और न ही गोली चल रही है. दारा अपने सैनिकों के साथ आगे बढ़ते ही चले गए. जैसे ही वो औरंगज़ेब के सैनिकों की पहुंच में आए, उन्होंने उन पर तोपों, बंदूकों और ऊँटों पर लगी घूमने वाली बंदूकों से हमला बोल दिया. इस अचानक और सटीक हमले के लिए दारा और उनके सैनिक तैयार नहीं थे."

मनूची आगे लिखते हैं, "जैसे-जैसे औरंगज़ेब की सेना के गोले दारा के सैनिकों के सिर और धड़ उड़ाने लगे, दारा ने आदेश दिया कि औरंगज़ेब की तोपों का जवाब देने के लिए उनकी तोपें भी आगे लाई जाएं. लेकिन ये जान कर उनके पैरों की ज़मीन निकल गई कि आगे बढ़ने के चक्कर में उनके सिपाही अपनी तोपों को पीछे ही छोड़ आए हैं."

चोरों की तरह आगरा के किले पहुंचे

इस लड़ाई में दारा की हार का बहुत करीबी वर्णन मशहूर इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने भी औरंगज़ेब की जीवनी में किया है. सरकार लिखते हैं, "घोड़े पर चार या पाँच मील भागने के बाद दारा शिकोह थोड़ा आराम करने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गए. हाँलाकि औरंगज़ेब के सैनिक उनका पीछा नहीं कर रहे थे, लेकिन जब भी दारा पीछे की तरफ़ अपना सिर मोड़ते, उन्हें औरंगज़ेब के सैनिकों के ढ़ोलों की आवाज़ सुनाई देती. एक समय वो अपने सिर पर लगे कवच को खोलना चाहते थे क्योंकि वो उनके माथे की खाल को काट रहा था. लेकिन उनके हाथ इतने थक चुके थे कि वो उन्हें अपने सिर तक ले ही नहीं जा पाए."

सरकार आगे लिखते हैं, "आख़िरकार रात के नौ बजे के आसपास दारा कुछ घुड़सवारों के साथ चोरों की तरह आगरा के किले के मुख्य द्वार पर पहुंचे. उनके घोड़े बुरी तरह से थके हुए थे और उनके सैनिकों के हाथों में कोई मशाल नहीं थी. पूरे शहर में सन्नाटा पसरा हुआ था मानो वो किसी बात का शोक मना रहा हो. बिना कोई शब्द कहे हुए दारा अपने घोड़े से उतरे और अपने घर के अंदर घुस कर उन्होंने उसका दरवाज़ा बंद कर दिया. दारा शिकोह मुग़ल बादशाहत की लड़ाई हार चुके थे."

मलिक जीवन ने छल से दारा को पकड़वाया

आगरा से भागने के बाद दारा पहले दिल्ली गए और फिर वहाँ से पहले पंजाब और फिर अफ़ग़ानिस्तान. वहाँ मलिक जीवन ने उन्हें छल से पकड़वा कर औरंगज़ेब के सरदारों के हवाले कर दिया. उन्हें दिल्ली लाया गया और बहुत बेइज़्ज़त करके दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया.

अवीक चंदा बताते हैं, "जिस तरह रोमन जनरल जिनको हरा कर आते थे, उनको ले कर कोलोज़ियम के चक्कर लगाते थे, औरंगज़ेब ने भी दारा शिकोह के साथ वही सब कुछ किया. दारा आगरा और दिल्ली की जनता के बीच बहुत लोकप्रिय थे. उनको इस तरह से ज़लील कर औरंगज़ेब बताना चाहते थे कि सिर्फ़ लोगों के प्यार के बदौलत वो भारत के बादशाह बनने का सपना नहीं देख सकते."

छोटी हथिनी पर बैठा कर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया

दारा के इस सार्वजनिक अपमान का बहुत ही लोमहर्षक वर्णन फ़्रेंच इतिहासकार फ़्राँसुआ बर्नियर ने अपनी किताब 'ट्रेवल्स इन द मुग़ल इंडिया' में किया है.

बर्नियर लिखते हैं, "दारा को एक छोटी हथिनी की पीठ पर बिना ढ़के हुए हौदे पर बैठाया गया. उनके पीछे एक दूसरे हाथी पर उनका 14 साल का बेटा सिफ़िर शिकोह सवार था. उनके ठीक पीछे नंगी तलवार लिए औरंगज़ेब का गुलाम नज़रबेग चल रहा था. उसको आदेश थे कि अगर दारा भागने की कोशिश करें या उन्हें बचाने की कोशिश हो तो तुरंत उनका सिर धड़ से अलग कर दिया जाए. दुनिया के सबसे अमीर राज परिवार का वारिस फटे- हाल कपड़ों में अपनी ही जनता के सामने बेइज़्ज़त हो रहा था. उसके सिर पर एक बदरंग साफ़ा बंधा हुआ था और उसकी गर्दन में न तो कोई आभूषण थे और न ही कोई जवाहरात."

बर्नियर आगे लिखते हैं, "दारा के पैर ज़ंजीरों में बंधे हुए थे, लेकिन उनके हाथ आज़ाद थे. अगस्त की चिलचिलाती धूप में उसे इस वेष में दिल्ली की उन सड़कों पर घुमाया गया जहाँ कभी उसकी तूती बोला करती थी. इस दौरान उसने एक क्षण के लिए भी अपनी आँखें ऊपर नहीं उठाईं और कुचली हुई पेड़ की टहनी की तरह बैठा रहा. उसकी इस हालत को देख कर दोनों तरफ़ खड़े लोगों की आँखें भर आईं."औरंगज़ेब अपने पिता शाहजहाँ को बंदी बनाकर आगरा जेल ले गए

भिखारी की तरफ़ शाल फेंकी

जब दारा को इस तरह घुमाया जा रहा था तो उन्हें एक भिखारी की आवाज़ सुनाई पड़ी.

अवीक चंदा बताते हैं, "भिखारी ज़ोर ज़ोर से कह रहा था, ऐ दारा. एक ज़माने में तुम इस धरती के मालिक हुआ करते थे. जब तुम इस सड़क से गुज़रते थे तो मुझे कुछ न कुछ दे कर जाते थे. आज तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है. ये सुनते ही दारा ने अपने कंधों की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाया और उस पर रखा शाल उठा कर उस भिखारी की तरफ़ फेंक दिया. इस घटना के चश्मदीदों ने ये कहानी बादशाह औरंगज़ेब तक पहुंचाई. परेड ख़त्म होते ही दारा और उसके बेटे सिफ़िर को ख़िज़राबाद के जेलरों के हवाले कर दिया गया."

सिर धड़ से अलग

उसी के एक दिन बाद औरंगज़ेब के दरबार में ये तय किया गया कि दारा शिकोह को मौत के घाट उतार दिया जाए. उन पर इस्लाम का विरोध करने का आरोप लगाया गया. औरंगज़ेब ने 4000 घुड़सवारों को दिल्ली से बाहर जाने का आदेश दिया और जानबूझ कर इस तरह की अफवाहें फैलाई गईं कि दारा को ग्वालियर की जेल में ले जाया जा रहा है. उसी शाम औरंगज़ेब ने नज़र बेग को बुला कर कहा कि वो दारा शिकोह का कटा हुआ सिर देखना चाहते हैं.

अवीक चंदा बताते हैं, "नज़र बेग और उनके मुलाज़िम मक़बूला, महरम, मशहूर, फ़राद और फ़तह बहादुर चाकू छूरी ले कर ख़िजराबाद के महल में जाते हैं. वहाँ दारा और उनका बेटा अपने हाथों से रात के खाने के लिए दाल पका रहे हैं, क्योंकि उन्हें अंदेशा है कि उनके खाने में ज़हर मिला दिया जाएगा. नज़र बेग आते ही ऐलान करता है कि वो उनके बेटे सिफ़िर को लेने आया है. सिफ़िर रोने लगता है और दारा अपने बेटे को अपने सीने से चिपका लेते हैं. नज़र बेग और उनके साथी सिफ़िर को ज़बरदस्ती दारा से छुड़ा कर दूसरे कमरे में ले जाते हैं."

अवीक चंदा आगे बताते हैं, "दारा ने पहले से ही एक छोटा चाकू अपने तकिए में छिपा कर रखा हुआ है. वो चाकू निकाल कर नज़र बेग के एक साथी पर पूरी ताकत से प्रहार करते हैं. लेकिन हत्यारे उनके दोनों हाथों को पकड़ा लेते हैं और उन्हें ज़बरदस्ती घुटनों के बल बैठा कर उनका सिर ज़मीन से लगा दिया जाता है और नज़र बेग अपनी तलवार से दारा का सिर धड़ से अलग कर देता है."

औरंगज़ेब के सामने कटा हुआ सिर पेश

दारा शिकोह के कटे हुए सिर को औरंगज़ेब के सामने पेश किया जाता है. उस समय वो अपने किले के बगीचे में बैठे हुए हैं. सिर देखने के बाद औरंगज़ेब हुक्म देते हैं कि सिर में लगे ख़ून को धो कर उनके सामने एक सेनी में पेश किया जाए.

अवीक चंदा बताते हैं, "वहाँ तुरंत मशालें और लालटेनें लाई जाती हैं ताकि औरंगज़ेब अपनी आँखों से तस्दीक कर सकें कि ये सिर उनके भाई का ही है. औरंगज़ेब इतने पर ही नहीं रुकते हैं. अगले दिन यानी 31 अगस्त 1659 को वो आदेश देते हैं कि दारा के सिर से अलग हुए धड़ को हाथी पर रख कर एक बार फिर दिल्ली के उन्हीं रास्तों पर घुमाया जाए जहाँ उनकी पहली बार परेड कराई गई थी. दिल्ली के लोग जैसे ही ये दृश्य देखते हैं वो दाँतो तले उंगली दबा लेते हैं और औरते घर के अंदर जा कर रोने लगती हैं. दारा के इस कटे हुए धड़ को हुमायूँ के मकबरे के प्रांगण में दफ़ना दिया जाता है."

औरंगज़ेब ने शाहजहाँ का दिल तोड़ा

औरंगज़ेब ने इसके बाद आगरा के किले में क़ैद अपने पिता शाहजहाँ को एक तोहफ़ा भिजवाया.

इटालियन इतिहासकार निकोलाओ मनूची ने अपनी किताब स्टोरिया दो मोगोर में लिखा, "आलमगीर ने अपने लिए काम करने वाले एतबार ख़ाँ को शाहजहाँ को पत्र भेजने की ज़िम्मेदारी दी. उस पत्र के लिफ़ाफ़े पर लिखा हुआ था कि औरंगज़ेब, आपका बेटा, आपकी ख़िदमत में इस तश्तरी को भेज रहा है, जिसे देख कर उसे आप कभी नहीं भूल पाएंगे. उस पत्र को पा कर तब तक बूढ़े हो चले शाहजहाँ बोले, भला हो ख़ुदा का कि मेरा बेटा भी तक मुझे याद करता है. उसी वक्त उनके सामने एक ढ़की हुई तश्तरी पेश की गई. जब शाहजहाँ ने उसका ढक्कन हटाया तो उनकी चीख़ निकल गई, क्योंकि तश्तरी में उनके सबसे बड़े बेटे दारा का कटा हुआ सिर रखा हुआ था."

क्रूरता की इंतहा

मनूची आगे लिखते हैं, "ये दृश्य देख कर वहाँ मौजूद औरतें ज़ोर ज़ोर से विलाप करने लगीं. उन्होंने अपने सीने पीटने शुरू कर दिए और अपने ज़ेवर उतार कर फेंक दिए. शाहजहाँ को इतना ज़बर्दस्त दौरा पड़ा कि उन्हें वहाँ से दूसरी जगह ले जाना पड़ा. दारा का बाकी का धड़ तो हुमायूँ के मकबरे में दफ़नाया गया लेकिन औरंगज़ेब के हुक्म पर दारा के सिर को ताज महल के प्राँगड़ में गाड़ा गया. उनका मानना था कि जब भी शाहजहाँ की नज़र अपनी बेगम के मक़बरे पर जाएंगी, उन्हें ख़्याल आएगा कि उनके सबसे बड़े बेटे का सिर भी वहाँ सड़ रहा है."

(ये लेख मूल रूप से जनवरी 2020 में बीबीसी मे प्रकाशित हुआ था)

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