जब राजा मोहन राय ने अंग्रेज कलक्टर को झुकने पर किया मजबूर: (पुण्य तिथि 27 सितम्बर पर विशेष)

Update: 2021-09-27 10:55 GMT

कुमार कृष्णन

सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ सामाजिक चेतना जगाने वाले महान समाज सुधारक और भारतीय नवजागरण के अग्रदुत , देश को राजनीतिक स्वतंत्रता का संदेश देने वाले व सती-प्रथा के उन्मूलन के नायक राजा राममोहन राय भागलपुर में 1809 में कलक्टर कार्यालय में कार्यालय अधीक्षक के पद पर कार्यरत थे।उन दिनों जब किसी अंग्रेज के सामने सिर उठाकर बात तक करना गुनाह समझा जाता था, राजा राममोहन राय ने अपने साथ अंग्रेज कलक्टर द्वारा की गई बदसलूकी के कारण कलक्टर को झुकने पर मजबूर कर दिया था।

1808-09 में भागलपुर में तैनाती के समय उन्होंने गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो से भागलपुर के अंग्रेज कलेक्टर सर फ्रेडरिक हैमिल्टन द्वारा अपने साथ की गयी बदतमीजी की शिकायत की।वे तभी माने थे जब गवर्नर जनरल ने कलेक्टर को कड़ी फटकार लगाकर उनके किये की माकूल सजा दी थी।

वाकया यों है कि एक दिन जब राममोहन पालकी में सवार होकर गंगाघाट से भागलपुर शहर की ओर जा रहे थे, तो घोड़े पर सैर के लिए निकले कलेक्टर सामने आ गये। पालकी में लगे परदे के कारण राममोहन उनको देख नहीं सके और यथोचित शिष्टाचार से चूक गये।उन दिनों किसी भी भारतीय को किसी अंग्रेज अधिकारी के आगे घोड़े या वाहन पर सवार होकर गुजरने की इजाजत नहीं थी।इस 'गुस्ताखी' पर कलेक्टर आग बबूला हो उठे।

राममोहन ने उन्हें यथासंभव सफाई दी।लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुए। राममोहन ने देखा कि विनम्रता काम नहीं आ रही तो हुज्जत पर आमादा कलक्टर के सामने ही फिर से पालकी पर चढ़े और आगे चले गये। कोई और होता तो वह इस मामले को भुला देने में ही भलाई समझता। कलेक्टर से पंगा लेने की हिम्मत तो आज के आजाद भारत में भी बिरले ही कर पाते हैं।

लेकिन राममोहन ने 12 अप्रैल, 1809 को गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो को कलेक्टर की करतूत का विस्तृत विवरण देकर लिखा कि किसी अंग्रेज अधिकारी द्वारा, उसकी नाराजगी का कारण जो भी हो, किसी देसी प्रतिष्ठित सज्जन को इस प्रकार बेइज्जत करना असहनीय यातना है।इस प्रकार का दुर्व्यवहार बेलगाम स्वेच्छाचार ही कहा जायेगा।

गवर्नर जनरल ने उनकी शिकायत को गंभीरता से लिया और कलेक्टर से रिपोर्ट तलब की। कलेक्टर ने अपनी रिपोर्ट में राममोहन की शिकायत को झूठी बताया।उस पर एतबार न करके अलग से जांच करायी, जिसके बाद न्यायिक सचिव की मार्फत कलेक्टर को फटकार लगाकर आगाह करवाया कि वे भविष्य में देसी लोगों से बेवजह के वाद-विवाद में न फंसें।

राजाराम मोहन राय एकेश्वरवाद के एक सशक्त समर्थक थे। उन्होंने रूढ़िवादी हिंदू अनुष्ठानों और मूर्ति पूजा को बचपन से ही त्याग दिया था। जबकि उनके पिता रामकंटो रॉय एक कट्टर हिंदू ब्राह्मण थे।

छोटी उम्र में ही राजा राम मोहन का अपने पिता से धर्म के नाम पर मतभेद होने लगा। ऐसे में कम उम्र में ही वे घर त्याग कर हिमालय और तिब्बत की यात्रा पर चले गए। जब वे वापस लौटे तो उनके माता-पिता ने उनमें बदलाव लाने के लिए उनका विवाह करा दिया। फिर भी राजा राम मोहन राय ने धर्म के नाम पर पाखंड को उजागर करने के लिए हिंदू धर्म की गहराईयों का अध्ययन करना जारी रखा।

22 मई 1772 को पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के राधानगर गांव में जन्में मात्र राजा राम राय को 15 साल की आयु तक उन्हें बंगाली, संस्कृत, अरबी तथा फारसी का ज्ञान हो गया था। किशोरावस्था में उन्होंने काफी भ्रमण किया। उन्होंने 1809-1814 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए भी काम किया। उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की तथा विदेश (इंग्लैण्ड तथा फ़्रांस) भ्रमण भी किया। उन्होंने उपनिषद और वेद को गहराई से पढ़ा।

इसके बाद उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 'तुहपत अल-मुवाहिद्दीन' लिखा जिसमें उन्होंने धर्म की वकालत की और उसके रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों का विरोध किया। वर्तमान समय में भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा नहीं मिल पाया है और आज भी वे इसके लिए लगातार संघर्ष कर रही है। लेकिन लगभग 200 साल पहले, जब "सती प्रथा" जैसी बुराइयों ने समाज को जकड़ रखा था तब राजा राम मोहन रॉय जैसे सामाजिक सुधारकों ने समाज में बदलाव लाने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने "सती प्रथा" का विरोध किया, जिसमें एक विधवा को अपने पति की चिता के साथ जल जाने के लिए मजबूर करता था। उन्होंने महिलाओं के लिए पुरूषों के समान अधिकारों के लिए प्रचार किया। जिसमें उन्होंने पुनर्विवाह का अधिकार और संपत्ति रखने का अधिकार की भी वकालत की।

राजाराम मोहन राय ने 1828 में "ब्रह्म समाज" की स्थापना की, जिसे भारतीय सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों में से एक माना जाता है। उनको भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोनों क्षेत्रों को गति प्रदान की। उनके आन्दोलनों ने जहां पत्रकारिता को चमक दी, वहीं उनकी पत्रकारिता ने आन्दोलनों को सही दिशा दिखाने का कार्य किया।

राममोहन राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़कर अपने आपको राष्ट्र सेवा में झोंक दिया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा वे दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे। दूसरी लड़ाई उनकी अपने ही देश के नागरिकों से थी। जो अंधविश्वास और कुरीतियों में जकड़े थे। राजा राममोहन राय ने उन्हें झकझोरने का काम किया। बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का उन्होंने भरपूर विरोध किया। धर्म प्रचार के क्षेत्र में अलेक्जेंडर डफ्फ ने उनकी काफी सहायता की। देवेंद्र नाथ टैगोर उनके सबसे प्रमुख अनुयायी थे। आधुनिक भारत के निर्माता, सबसे बड़ी सामाजिक - धार्मिक सुधार आंदोलनों के संस्थापक, ब्रह्म समाज, राजाराम मोहन राय सती प्रणाली जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

राजा राममोहन राय ने 'ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन', 'संवाद कौमुदी', मिरात-उल-अखबार ,(एकेश्वरवाद का उपहार) बंगदूत जैसे स्तरीय पत्रों का संपादन-प्रकाशन किया। बंगदूत एक अनोखा पत्र था। इसमें बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था।

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