वसीम अकरम त्यागी
एनडीए के सत्तासीन होने के बाद देश में जिस उग्र हिंदुत्व का उभार हुआ है, उसने हिंदू समाज की सहिष्णुता के परखच्चे उड़ा दिये हैं। इसने एक बड़े वर्ग को विवेकहीन बना दिया है। यह वर्ग हर उस पाखंडी में 'नायक' देखता है जिसने किसी मुसलमान को नुक़सान पहुंचाया है। आज ट्विटर पर नरसिंहानंद के समर्थन में ट्रेंड चलाया जा रहा है। इस्लामिक धर्मगुरु मौलाना वली रहमानी के निधन पर ठहाका लगाने वाले भी इसी वर्ग से हैं। यह समाज बहुत तेज़ी के साथ नैतिक पतन की ओर बढ़ रहा है।
हिंदू राष्ट्रवाद के नशे ने इस समाज के बहुत बड़े वर्ग को मनोरोगी बना दिया है। इसके लिये नफरत की सियासत ज़िम्मेदार है। जब ज़हरवाणी उगलने वाले बाबाओं को विधायक, सांसद, मंत्री बनाया गया तो ऐसे बहुत सारे बाबा रातों रात पैदा हो गए जिन्होंने संवैधानिक पद हासिल करने के लिये मुसलमानों के ख़िलाफ ज़हर उगलना कर दिया, फिर क्या था वे नेता बनते चले गए। कुंठित गिरोह के लिये वे 'रॉल मॉडल' बन गए। और सद्धभाव की बात करने वाले संत हाशिये पर डाल दिये गए।
ज़हरवाणी उगलने वालों को सत्ता, और सियासत ने भी मायूस नहीं किया। देश की 14 प्रतिशत आबादी के आराध्य के ख़िलाफ अमर्यादित टिप्पणी करने वाले नरसिंहानंद जैसे पाखंडी बाबा को अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया। इसी से भारतीय लोकतंत्र को होने वाली बहुसंख्यकवाद नाम की घातक बीमारी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। नफरत की इस सियासत की क़ीमत इस न सिर्फ समाज को बल्कि देश को भी चुकानी है। नरसिंहानंद जैसे ज़हरीले बाबा जिस गिरोह को तैयार कर रहे हैं वह उसे हिंसा के रास्ते पर ले जा रहा है।
इसके लिये कोई और नहीं बल्कि शासन एंव प्रशासन का दोगले रवैय्या ज़िम्मेदार है। लेकिन अब सवाल उससे आगे कहा है, जब-जब यति नरसिंहानंद जैसे तथाकथित बाबा खुद को हिंदुओं का हितैषी के रूप में स्थापित कर रहे होते हैं तब शंकराचार्य क्या कर रहे होते हैं। क्या उन्हें आगे आकर इन ज़हरीले बाबाओं के ख़िलाफ अभियान नहीं चलाना चाहिए? ऐसे दर्जनों साधू संत हैं, जिन्हें मुसलमानों के मंचों पर सम्मान एंव प्रेम मिलता है लेकिन वे भी ऐसे पाखंडियों की ज़हरवाणी के ख़िलाफ बोलने का साहस नहीं दिखा पाते। क्या यह डर है? या उन्होनें अपनी सहिष्णुता को इन हिंसक प्रवृत्ति के पाखंडियों के चरणों में गिरवी रख दिया है?
लेखक के अपने निजी विचार है.