वित्तमंत्री के रूप में एक बजट पेश किया राजीव ने, वित्त वर्ष 1987-88 का और वो देश का अनोखा बजट था, जानिए कैसे

मगर मैं इसे अलग नजर से देखता हूँ। यह कि श्रीपेम्बुदुर मे जो खून बहा था, उसमे व्यापार नही था...

Update: 2023-10-15 05:59 GMT

मनीष सिंह 

इट्स आल अबाउट इकॉनमी, स्टुपिड।  क्लिंटन ने इलेक्शन कैंपेन में ये टैगलाइन बनाई थी। पर उसके 15 साल पहले, राजीव यह दिखा गए, कि गवर्नेस का मलतब- इकॉनमी है।

वित्तमंत्री के रूप में एक बजट पेश किया राजीव ने, वित्त वर्ष 1987-88 का। और वो देश का अनोखा बजट था - शून्य आधारित बजट।

हार्ड वर्क वाले इसे नही जानते। हार्वर्ड वाले, या किसी भी पढ़े लिखे को पता है कि ये एक मैनेजमेंट टूल है, बजट कन्ट्रोल का..

पारंपरिक बजट में, होता ये है, की पिछले साल जो खर्च अनुमत था, इस साल भी सही मान लिया जाता है। बहस सिर्फ कुछ घट बढ़ की होती है।

इसका नुकसान यह है कि 1987 तक पुलिस वालों को 15 रुपये घोड़ा-चना एलाउंस मिलता है। बगैर जस्टिफिकेशन, पुराने साल की परंपरा के आधार पर अरबों का बजट निकाल देना, करप्शन में वृद्धि और जवाबदेही से बचने का रास्ता होता है।

मगर जीरो बेस्ड बजट हर खर्च पर सवाल करता है। इस पर खर्च शून्य क्यो नही होना चाहिये?? क्या इसकी आज भी जरूरत है।

जीरो बेस्ड बजटिंग फेजेस में आने वाले तीन साल में पूर्णतया लागू की जानी थी। सरकारी खर्चे में ईमानदारी लाने का यह प्रयास एक विडंबना का शिकार हुआ।

राजीव पर भ्रस्टाचार का आरोप लगाने वाले वीपी सिंह ने,अगले पीएम बने। ईमानदारी के उस पुतले ने इस प्रक्रिया को बन्द कर दिया।

राजीव का आर्थिक योगदान उनके फैन्स भी नहीं जानते। वे गद्दी पर आए, तो 4.5% की ग्रोथ थी। पंजाब में आतंक था, उत्तर पूर्व अशान्त था। चीन और पाकिस्तान इस नए बछड़े को दबा देने का कॉन्फिडेंस पाल चुके थे।

पांच साल बाद पाकिस्तान को "ऑपरेशन राजीव" और चीन "ऑपरेशन फाल्कन" के जख्म सहला रहा था । उत्तर पूर्व में शांति थी। सार्क, अखण्ड भारत बन रहा था।

मालदीव और लंका की सरकारे राजीव की अहसानमंद थी। और इकॉनमी, उसने भारत के इतिहास में पहली, और अकेली बार 10% ग्रोथ छुई।

राजीव सरकार का पहला बजट ही नई दिशा की ओर कदम था। 1985 में टैक्स की दरें घटी, ताकि ग्रोथ का वातावरण बने। लाइसेंस राज के खात्मे और निजी क्षेत्र में स्पर्धा की शुरआत, दरअसल 1986 के बजट से हुई।

टैक्स स्लैब और एरियावाईज टैक्स का अंतर खत्म करने की शुरआत,राजीव ने की। इसे GST की शुरआत कहिये। तकनीक, और मशीनों के आयात आसान हुए। इसे इकॉनमी खोलना कहें।

असल मे वे मीनारें जिसके शीर्ष पर मनमोहन, यशवंत सिन्हा और प्रणव बैठे हैं, राजीव उसकी नींव डाल चुके थे।

पर एक गलती कर गए।

1988 में वित्तमंत्री राजीव ने कार्पोरेट टैक्स पर निगाह डाली। उसकी दरें घटाई, लेकिन टैक्स चुराना कठिन किया। नतीजा दोतरफा आया।

कारपोरेट टैक्स से सरकार की आय बढ़ी। देश आगे बढ़ा। पर छापे भी पड़े। और मुम्बई क्लब के धन्नासेठ जो लाइसेंस राज में मजबूती से सिस्टम में मलाई काट रहे थे, भारी दिक्कत में आ गए।

इनमे एक रामनाथ गोयनका थे। मीडिया मुगल भी थे।उनका नामी अखबार था, इंडियन एक्सप्रेस। गोयनका ग्रुप के वित्तीय सलाहकार थे -एस गुरुमूर्ति। अखबार ने सरकार की बदनामी का अभियान छेड़ दिया। सम्पादक सुमन दुबे को यह जर्नलिस्टिक एथिक्स के खिलाफ लगा। तो उनसे इस्तीफा ले लिया गया। नया सम्पादक आया - अरुण शौरी

अब इंडियन एक्सप्रेस में रोज एक स्टोरी होती, भ्रस्टाचार के नए नए आरोप। कुछ आरोप अमिताभ बच्चन के भाई अजिताभ के विदेशी खातों के थे। अमिताभ, तब राजीव के दोस्त और कांग्रेस सांसद थे, तो यह राजीव पर अप्रत्यक्ष हमला था। वित्तमंत्री और फिर रक्षामंत्री रहे वीपी भी तमाम कानाफूसी उपलब्ध कराते रहे। ये आरोप, आने वाले वक्त में कभी भी किसी कोर्ट या जांच में साबित नही होने वाले थे।

मगर वीपी सहित राजीव के कुछ साथी दगा देकर, खिलाफ खड़े हो गए। बोफोर्स का हंगामा खड़ा किया। सड़क से सन्सद तक हुआं हुआं शुरू हो गयी। इस शोरगुल को जनता ने सही मान लिया, राजीव चुनाव हार गए। जिस बछड़े को पाकिस्तान और चीन हरा न पाए, अपनो ने धराशायी कर दिया। क्या ये महज राजनीति थी???

इट वाज इकॉनमी स्टुपिड !!!

इतना सारा किस्सा आपको नही पता होगा। पर ये तो याद होंगे कि अरुण शौरी कालांतर में अटल के मंत्री बनें। कश्मीरी पंडित भगाने के विशेषज्ञ जगमोहन भी उसी सरकार में थे, याद है? स्वदेशी जागरण मंच और RSS विचारक गुरुमूर्ति को इनाम जरा देर से मिला। मोदी सरकार आने पर, उन्हें रिजर्व बैंक के बोर्ड में बिठाया गया है।

कारपोरेट प्रिय पार्टी, कारपोरेट की किरकिरी राजीव की वजह से बनी। कारपोरेट ताकतों से अनावश्यक उलझने व्यक्ति, अनुभवहीन, कच्चा और पप्पू माना जा सकता है। मगर मैं इसे अलग नजर से देखता हूँ। यह कि श्रीपेम्बुदुर मे जो खून बहा था, उसमे व्यापार नही था...

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