ब्रह्मा सरस्वती अंतर्संबंध वैदिक व पौराणिक दृष्टिकोण
ब्रह्मा और सरस्वती का प्रसंग वास्तव में माया और ज्ञान के द्वंद का रुपक है..!!
डॉ अभिलाषा द्विवेदी
हिन्दू पंचांग के अनुसार माघ शुक्ल पंचमी को वसंतपंचमी उत्सव मनाया जाता है। यह दिन सरस्वती की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। सरस्वती को विद्या, संगीत आदि कलाओं की देवी माना जाता है। वसंतोत्सव पर सरस्वती पूजा का आधार क्या है? दरअसल प्रकृति में ठंडे शुष्क मौसम के बाद रस का संचार होता है। इसे ही वसंत ऋतु कहते हैं। सूर्य के प्रकाश में गर्माहट बढ़ने के साथ ही धरती पर खेतों में पीली सरसों के फूल बिखरे होते हैं। आम पर फल आने की प्रक्रिया का आरंभ होता है, इसके बाद ही आम पर बौर लगना आरंभ हो जाता है। कुल मिला कर प्रकृति में रस का संचार होने लगता है। सरस्वती का विग्रह सरस+वती है। सुन्दर रस युक्त। रस ही हमारे मनोभावों का आधार हैं। इसीलिए लालित्य की देवी, संगीत आदि कलाओं की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का जन्मोत्सव वसंत पंचमी ही माना जाता है।
किन्तु हमारे सृष्टि विज्ञान की व्याख्याओं नज़र अंदाज कर पौराणिक कथाओं को गलत रूप में प्रचारित किया जाता है। ऐसी ही भ्रामक व्याख्यायें समय - समय पर सरस्वती के विषय में भी की जाती हैं। आज जब सनातन धर्म के अनुयायी सरस्वती पूजा मना रहे हैं, इस विषय पर समग्र चर्चा महत्वपूर्ण है।
प्रचलित समाज में यह धारणा फैली है कि ब्रह्मा ने उनकी पुत्री सरस्वती के साथ विवाह किया था इसलिए उन्हें नहीं पूजा जाता। पुराणों में एक जगह उल्लेख मिलता है कि ब्रह्मा की पत्नी विद्या की देवी सरस्वती उनकी पुत्री नहीं थीं। उनकी एक पुत्री का नाम भी सरस्वती था जिसके चलते यह भ्रम उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा और सरस्वती का प्रसंग वास्तव में माया और ज्ञान के द्वंद का रुपक है।ऋग्वेद में देवी सरस्वती का वर्णन दो रूपों में मिलता है। एक महान नदीतमा के रूप में जिसकी हमारे पूर्वज उपासना करते थे, दूसरा वाग्देवी के रूप में।
प्राचीन भारतीय समाज में अध्ययन को सहज बनाने और फैक्ट को सर्वसुलभ करने के लिए उसका मानवीकरण कर कथा रूप दिया जाता था। स्थूल दृश्यमान, सचर, ऊर्जा, शक्ति, तत्व, पिण्ड आदि को चरित्र, पात्र के रूपक में कल्पित किया जाता है। अर्थात जब वैदिक ज्ञान- विज्ञान को सर्वसुलभ किया गया तो आख्यान में रूपाकार में यथा- 'त्रिधाबद्धो वृषभो' तब अल्पश्रुतों के लिए पौराणिक भाषा बनी। जिसे डिकोर्ड करने से गहन अर्थ निकलता है। इसीलिए नियम यह है कि पहले पुराण पढ़िए फिर वेदार्थ में आइए। सीधे वैदिक प्रज्ञान में प्रवेश नहीं कराया जाता। आख्यान कॉग्निटिव मेमोरी अर्थात्में संज्ञानात्मक स्मृति में बस जाते हैं। अतः कथानक के माध्यम से विषय प्रवेश कराने का नियम बना।
तंत्रिकाविज्ञान तथा मनोविज्ञान भी इस अध्ययन क्षेत्र का समर्थन करता है। स्मृति तंत्र तीन प्रकार के होते हैं: संवेदी स्मृति (sensory memory), अल्पकालिक स्मृति (short-term memory) एवं दीर्घकालिक स्मृति (long- term memory)। जिसमें बच्चों द्वारा सूचना प्रसंस्करण, भाषा सीखने, तथा मस्तिष्क के विकास के अन्य पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। जानकारी को इस तरह से प्रस्तुत करना जो कार्यशील मेमोरी पर भार को कम करता है, दीर्घकालिक मेमोरी में एन्कोडिंग से इसका बोध होता है। पौराणिक कथा ज्ञान के संज्ञानात्मक स्मृति बोध का आधार है। तत्व और ऊर्जा के रुपक व्यक्ति की तरह सामाजिक नियम और वर्जनाओं में बंधे नहीं होते।
माना जाता है कि ब्रह्माजी की 5 पत्नियां थीं- सावित्री, गायत्री, श्रद्धा, मेधा और सरस्वती। इसमें सावित्री और सरस्वती का उल्लेख अधिकतर जगहों पर मिलता है। यह भी मान्यता है कि पुष्कर में यज्ञ के दौरान सावित्री के अनुपस्थित होने की स्थित में ब्रह्मा ने वेदों की ज्ञाता गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया था। इससे सावित्री ने रुष्ट होकर ब्रह्मा को जगत में नहीं पूजे जाने का शाप दे दिया था।
ब्रह्मा यानी सृष्टि की रचनाकार शक्ति और ब्रह्म ज्ञान यानी सृष्टि संरचना का ज्ञान। सभी वेद श्रुति हैं। श्रुतियां दीर्घकालिक स्मृति में रहें इसीलिए उन्हें रुपक के माध्यम से याद रखा जाता है, बाद में एनकोडिंग से व्याख्यायित किया जाता है।
ब्रह्म यानी सृष्टि के मूल से ज्ञान धाराएं निकली हैं। यानी उनका जन्म हुआ है। और सावित्री, गायत्री, श्रद्धा, मेधा और सरस्वती। ज्ञान की 5 धाराएं ब्रह्म में मिल जाती हैं, जो ब्रह्म यानी ईश्वर (परम ज्ञान) में मिलने का मार्ग हैं। इसलिए पत्नी कही गई हैं। पत्नी का अर्थ बहुत सारगर्भित है। यहां भाषा विज्ञान की समझ होनी आवश्यक है। जिन्हें इसका ज्ञान नहीं या जानबूझकर सनातन ज्ञान को, आराध्य देवों को बदनाम करने के लिए या अनजाने में इन चार श्लोकों का गलत अर्थ मध्यकाल से ही निकाला जाता रहा है।
ऋग्वेद, अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण और श्रीमद्भागवत से 1 - 1 श्लोक लेकर बिना सन्दर्भ उसकी मनमानी व्याख्या कर ब्रह्मा और सरस्वती पर चारित्रिक दोष लगाने का नैरेटिव फैलाया जाता है।
श्रीमदभागवत् का श्लोक -
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयंभूर्हतीं मन:।
अकामां चकमे क्षत्त्: सकाम् इति न: श्रुतम् ॥
ऋगवेद का श्लोक -
पिता यस्त्वां दुहितरमधिष्केन् क्ष्मया रेतः संजग्मानो निषिंचन् ।
स्वाध्योऽजनयन् ब्रह्म देवा वास्तोष्पतिं व्रतपां निरतक्षन् ॥
ऐतरेय ब्राह्मण का श्लोक -
प्रजापतिवै स्वां दुहितरमभ्यधावत्
दिवमित्यन्य आहुरुषसमितन्ये
तां रिश्यो भूत्वा रोहितं भूतामभ्यैत्
तं देवा अपश्यन्
"अकृतं वै प्रजापतिः करोति" इति
ते तमैच्छन् य एनमारिष्यति
तेषां या घोरतमास्तन्व् आस्ता एकधा समभरन्
ताः संभृता एष् देवोभवत्
तं देवा अबृवन्
अयं वै प्रजापतिः अकृतं अकः
इमं विध्य इति स् तथेत्यब्रवीत्
तं अभ्यायत्य् अविध्यत्
स विद्ध् ऊर्ध्व् उदप्रपतत् ॥
अथर्ववेद का श्लोक-
सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितौ संविदाने।
येना संगच्छा उप मा स शिक्षात् चारु वदानि पितर: संगतेषु।
यहां यह जानना जरूरी है कि वैदिक काल में राजा को प्रजापति कहा जाता था। सभा और समिति को प्रजापति की दुहिता यानि बेटियों जैसा माना जाता था। ब्रह्मा को प्रजापति भी कहा जाता है इस कारण भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई। ब्रह्मा की पुत्री सरस्वती का वर्ण श्वेत है, लाल वर्ण नहीं।
पुराणों में सरस्वती के बारे में भिन्न भिन्न मत मिलते हैं। एक मान्यता अनुसार ब्रह्मा ने उन्हें अपने मुख से प्रकट किया था। एक अन्य पौराणिक उल्लेख अनुसार देवी महालक्ष्मी (लक्ष्मी नहीं) से जो उनका सत्व प्रधान रूप उत्पन्न हुआ, देवी का वही रूप सरस्वती कहलाया। देवी सरस्वती का वर्ण श्वेत है। सरस्वती देवी को शारदा, शतरूपा, वाणी, वाग्देवी, वागेश्वरी और भारती भी कहा जाता है। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण वह संगीत की देवी भी हैं। वसंत पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं।
शास्त्रीय गुरुओं के अनुसार 'सरस्वती' का शब्द का प्रयोग उस ऊर्जा शक्ति के लिए किया जाता है, जो ज्ञान की अधिष्ठात्री हो, विद्या की अधिष्ठात्री हो और साकार रूप में विद्यमान हो। शास्त्रों के अनुसार जिस तरह ज्ञान या विद्याएं दो हैं उसी तरह सरस्वती भी दो हैं। विद्या में अपरा और परा विद्या है। अपरा विद्या की सृष्टि ब्रह्माजी से हुई लेकिन परा विद्या की सृष्टि ब्रह्म ज्ञान की धारा से हुई मानी जाती है।
अपरा विद्या का ज्ञान जो धारण करती है, वह ब्रह्माजी की पुत्री है जिनका विवाह विष्णुजी से हुआ है। ब्रह्माजी की पत्नी जो सरस्वती है, वे परा विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं। वे मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करने वाली देवी हैं और वे महालक्ष्मी की पुत्री हैं।
शाक्त परंपरा में तीन रहस्यों का वर्णन है- प्राधानिक, वैकृतिक और मुक्ति। इस प्रश्न का, इस रहस्य का वर्णन प्राधानिक रहस्य में है। इस रहस्य के अनुसार महालक्ष्मी के द्वारा विष्णु और सरस्वती की उत्पत्ति हुई। अपरा विद्या की देवी सरस्वती और विष्णु का सम्बंध बहन और भाई का कहा गया है। विष्णु की बहन सरस्वती का विवाह ब्रह्माजी से हुआ।
ब्रह्माजी की एक पुत्री का भी नाम सरस्वती कहा गया है, उनका विवाह विष्णुजी से हुआ है।
विष्णु की एक पत्नी 'लक्ष्मी' को कहा गया है, वे भृगु ऋषि की पुत्री थीं।
ये दोनों ही ऊर्जा समान गुण धर्म वाली किन्तु धारा में अलग हैं। इस कारण ये जहां से उत्पन्न होती हैं उन्हें पिता और जहां जाकर मिलती हैं उस ऊर्जा की पत्नी कहा गया।
मध्य और अंग्रेजी शासन काल में पुराणों के साथ बहुत छेड़छाड़ की गई। हिन्दू धर्म के दो ग्रंथों 'सरस्वती पुराण' और 'मत्स्य पुराण' में सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का सरस्वती से विवाह करने का प्रसंग है जिसके फलस्वरूप इस धरती के प्रथम मानव 'मनु' का जन्म हुआ। लेकिन पुराणों की व्याख्या करने वाले सरस्वती के जन्म की कथा को उस सरस्वती से जोड़ देते हैं जो ब्रह्मा की पत्नी हैं जिसके चलते सब कुछ गड्ड - मड्ड हो चला है। इस पर शोध कर इस भ्रम को स्पष्ट किए जाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? यह सनातन धर्म के प्रति दुराग्रही ताकतों के कुचक्र को स्पष्ट करता है।
आर्यावर्त में सरस्वती ज्ञान की धारा को कहा जाता रहा है। वेदों की रचना भी सरस्वती नदी के किनारे हुई। उसके रचनाकार सारस्वत ब्राह्मण कहलाये।
ब्राह्मण का अर्थ होता है - ब्रह्म को जानने वाला। ब्राह्मण ग्रंथ भी हैं और उन ग्रंथों के ज्ञाता, उनका अध्ययन - अध्यापन करने वाले व्यक्ति भी ब्राह्मण हुए।
हिन्दू दर्शनशास्त्र की परम सत्य की आध्यात्मिक संकल्पना ब्रह्मन् से अलग हैं। ब्रह्मन् लिंगहीन हैं परन्तु ब्रह्मा पुलिंग हैं। प्राचीन ग्रंथों में इनका सम्मान किया जाता है। भारत और थाईलैण्ड में इन पर समर्पित मंदिर हैं। राजस्थान के पुष्कर का ब्रह्मा मंदिर और बैंकॉक का इरावन मंदिर इसके उदाहरण हैं।
सनातन धर्म में देवी - देवताओं का मानवीकरण कर सृष्टि विज्ञान और ब्रह्म ज्ञान को दीर्घकालिक स्मृति में संजोने का प्रयास किया गया। जो न्यूरोलॉजिकल और सायकोलॉजिकल दृष्टिकोण से पूर्णतः वैज्ञानिक प्रविधि है। परंतु पौराणिक कथाओं का महत्व मात्र इतना है कि उनके आधार पर वैदिक ज्ञान की सुस्पष्ट व्याख्या की जाए। इसके क्रमबद्ध बने रहने के लिए उसे घटनाओं के कथा क्रम में वृत्तांत में पिरोया गया। मूल रूप में यह कॉग्निटिव लर्निंग के टूल हैं. किसी व्यक्ति या घटना का इतिहास नहीं।