बुर्का, महिलाओं के लिए कैदखाना : शारिक रब्बानी
भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित पहनावा बुर्का एक ऐसा लिबास है जो एक तरह से मुस्लिम महिलाओं को कैदखाने में रखने और उनहे मौलिक अधिकारो से वचित रखने का साधन है और इसी की आड़ में मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा स्वतंत्रता और तरक्की से दूर रखा जाता है।
...मुस्लिम समाज मे बुर्का एक ऐसा पहनावा है जो अब विवाद के दायरे मे है।साथ ही इस पहनावे को रूढिवादी मुसलमानों और मौलवियों ने और विवादित कर दिया है।
'परदे'का शाब्दिक अर्थ होता है ढकना और इसी कारण समाज मे बुर्का का चलन हुआ जबकि यह पहनावा इस्लाम में अनिवार्य नही है क्योंकि इस पहनावे को लोगों नै खुद ईजाद किया है। विश्व के विभिन्न देशों मे परदे का इस्तेमाल विभिन्न तरीकों से होता है।
अधिकाश देशों मे मुस्लिम महिलाएं चादर या ओढनी का इसतेमाल करती हैं या सर पर सकाफ्र लगाती हैं ।तथा मात्र ऐसा लिबास पहनती है जिससे शरीर पूरी तरह ढका रहे। इस तरह का पहनाव हमारे देश मे पजाबी सनातन धर्म की बहने और अन्य समाज की महिलाएं भी धारण करती हैं।
परंतु भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित पहनावा बुर्का एक ऐसा लिबास है जो एक तरह से मुस्लिम महिलाओं को कैदखाने में रखने और उनहे मौलिक अधिकारो से वचित रखने का साधन है और इसी की आड़ में मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा स्वतंत्रता और तरक्की से दूर रखा जाता है।
साथ ही मुस्लिम महिलाएं घरेलू कामकाज तथा पुरूषों की कामवासना और भोग विलास की पूर्ति तक ही महदूद रहती है।यही कारण है कि प्रगतिशील सोच रखने वाली महिलाएं इसका बराबर विरोध कर रही है।
अच्छा होता कि मुस्लिम समाज के लोग के इसपर खुले जहन से विचार करते और मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा ,स्वतंत्रता उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा पर विशेष ध्यान देते।
मैं मुस्लिम समाज और सनातन व अन्य समाज की तमाम महिलाओं की सराहना करता हू जो अपनी शिक्षा और परिश्रम से उच्च पदों पर आसीन हो चुकी हैैं। साथ ही मुस्लिम महिलाओं को भी समाज की मुख्य धारा में लाने व उनके मौलिक अधिकारों के लिए प्रयासरत रहती हैं।
-- शारिक रब्बानी, वरिष्ठ उर्दू साहित्यकार
नानपारा, बहराईच ( उत्तर प्रदेश )