कॉमन सिविल कोड : न कॉमन की चाहत है, ना इरादा ही सिविल है
Common Civil Code: Neither the desire for the common nor the intention is civil
बादल सरोज
🔵 14 जून को अचानक भाजपा नीत केंद्र सरकार की प्रज्ञा जाग्रत हुयी और अपने विधि विभाग की ओर से उसने समान नागरिक संहिता - कॉमन सिविल कोड - पर एक बार फिर देश भर से सुझाव, सलाहें और प्रस्ताव मांगने की अधिसूचना जारी कर दी। इसमें 30 दिन के भीतर सुझाव देने की बात कही गयी है, ताकि उन पर विचार करने के बाद 22वां विधि आयोग इस बारे में क़ानून बनाने की दिशा में बढ़ सकें ।
🔵 इस घोषणा में न कॉमन की चाहत है, ना कोई सिविल इरादा है। यह ध्रुवीकरण से, ध्रुवीकरण की, ध्रुवीकरण के लिए बनी मोदी सरकार का ध्रुवीकरण बढाने के लिए उठाया गया एक अन-सिविल कदम है। पांवों के नीचे खिसकती जमीन पर खुद के धराशायी होने से बचाने और संभालने के लिए साम्प्रदायिक माहौल को गरमाने की नयी चाल है।
🔵 इस घोषणा के समय पर ध्यान दीजिये -- इस इरादे का सार्वजनिक इजहार 14 जून को किया गया । ठीक एक दिन पहले 13 जून को कर्नाटक विधानसभा चुनावों के परिणाम आये थे। इस अब तक के सबसे जबर उन्मादी प्रचार अभियान में चुनावी सभा की शुरुआत "जय बजरंग बली" के नाद से करते हुए ईवीएम मशीन का बटन दबाने से पहले बजरंग बली हनुमान का ध्यान लगाने के सरासर असंवैधानिक आव्हान खुद स्टार, बल्कि सेवन स्टार प्रचारक मोदी जी ने खुद अपने श्रीमुख से किये थे। इसके बाद भी उनकी पार्टी का सूपड़ा साफ़ हो ही गया था। 13 जून की रात दिखे सपनों में 2023 के आखिर में होने वाली विधानसभाओं और अगली साल होने वाले लोकसभा के आम चुनाव में होने वाली गत दीवार पर बड़े-बड़े हरूफों में लिखी नजर आने लगी थी ; सो कॉमन सिविल कोड की याद आ गयी।
🔵 अभी 5 साल पहले ही तो इसी मोदी सरकार के, इसी विधि आयोग ने, ठीक इसी मुद्दे पर विचार किया था। नवम्बर 2016 में विधि आयोग ने इसी तरह पूरे देश से राय माँगी थी। कोई 75378 व्यक्तियों, संस्थाओं ने अपनी रायें भेजी थी। इन पर पूरी तसल्ली और विस्तार से विचार करने के बाद वर्ष 2018 में दी अपनी रिपोर्ट में विधि आयोग ने कहा था कि ; "इस वक़्त सभी समुदायों के अलग-अलग पारिवारिक कानूनों के स्थान पर एक संहिता बनाना न तो जरूरी है, न वांछित।" विधि आयोग के निष्कर्ष में लिखे "इस वक़्त" और "न तो जरूरी है न वांछित" शब्दों पर ध्यान दें। इन 5 वर्षों में वक़्त में ऐसा क्या बदलाव आया कि जो न जरूरी था, न वांछित ; वह एकदम तत्काल आवश्यक और वांछनीय हो गया? जाहिर है, यह कहीं पै निगाहें, कहीं पै ठिकाना वाला मामला है।
🔵 इसके पीछे, जो इसमें नहीं है, महिलाओं के सशक्तीकरण का मकसद ढूंढना अपने आपको धोखा देना होगा। इसलिए कि यह वही वैचारिक कुटुंब है, जिसने बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित हिन्दू कोड बिल के खिलाफ आकाश पाताल एक कर दिया था। करपात्री महाराज की अगुआई में आरएसएस और हिन्दू महासभा जैसे संगठनों ने इन सुधारों को "हिन्दू धर्म पर एटम बम" बताया था। महिलाओं को समानता, स्त्रियों को संपत्ति में अधिकार और तलाक के लिए महिलाओं को सशक्त करने के प्रावधानों को "हिन्दू विचारधारा से विद्रोह जैसा" बताया था। इस क़ानून को लाने की "हिमाकत" करने वाले बाबा साहब अम्बेडकर के प्रति जाति सूचक अपशब्दों का गरल प्रवाहित करते हुए उन्हें याद दिलाया था कि "यह काम किसी शूद्र का नहीं, शास्त्रों में दर्ज उच्चकुलीन ब्राह्मणों का है।"
🔵 क्या अब यह विचार-कुटुंब सुधर गया है? क्या उसने अपनी इन स्त्री और मनुष्यता विरोधी धारणाओं को त्याग दिया है? नहीं - बल्कि केंद्र और अनेक राज्यों में सत्ता पाने के बाद इसने उन्हें व्यवहार में लाने की निर्लज्ज से निर्लज्ज कोशिश की है ; 28 मई को नए संसद भवन के उदघाटन में राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू की अनुपस्थिति और जंतर मंतर पर सत्ता पार्टी के सांसद के यौनाचारों की शिकार महिला खिलाड़ियों की भयावह स्थिति इसकी ताज़ी गवाही है।
🔵 भारत के समाज में अभी बहुत कुछ सुधरना है - महिलाओं के लिए तो बहुत कुछ किया जाना शेष है। सारे प्रचलित रीति रिवाजों में, कोड्स में रिफार्म और महिलाओं को समानता के संवैधानिक हक देने और उन्हें यथार्थ में उतारने के लिए काफी कुछ किया जाना है ; यह जरूरी भी है, वांछित भी। मगर विधि आयोग का इरादा ऐसा नहीं है - इसकी मंशा ठीक उलट है। असल में तो यह विधि आयोग का इरादा है भी नहीं, उसे जो कहना था वह 5 साल पहले अपनी सिफारिश में कह चुका है।
🔵 यह सीधी-सीधी राजनीतिक इरादों से सुलगाई गयी तीली है, इससे विभाजन के अलाव सुलगाये जायेंगे, ताकि उनकी गर्माहट में चुनावी रोटियाँ सेंकी जा सकें। मजेदार बात यह है कि यह सब करने के लिए भारत के संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तों - डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स - की दुहाई दी जा रही है। ऐसे कहा जा रहा है जैसे संपत्ति के विकेंद्रीकरण के निर्देश, संपदा के केन्द्रीकरण के निषेध और आमदनी में 1 और 10 के अनुपात की गारंटी आदि आदि अमल में लाये जा चुके हैं, अब बस केवल यही बचा है।
लेखक साप्ताहिक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।