काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ स्वर्ण सुमन का हिंदी माध्यम के छात्रों के नाम खुला पत्र
अब बस भी करो पार्टी का झंडा उठाना, दरी बिछाना और नारा लगाना। उठो। आवाज बुलंद करो। हुक्मरानों से सवाल करो। आंदोलन करो। अपना हक मांगो कि सरकार जिस भाषा में शिक्षा प्रदान करती है उस भाषा के कारण किसी भी स्तर पर भेदभाव और वंचित न करने की गारंटी दे..
हिंदी माध्यम के छात्रों के नाम खुला पत्र
हिंदी पट्टी के छात्रों! तुम 'नौकर' बन कर रह जाओगे 'शाह' नहीं बन पाओगे क्योंकि भारतीय नौकरशाही अंग्रेजी में सोचती है, अंग्रेजी में काम करती है और अंग्रेजी के दम पर तुम पर हुकूमत करती है। क्या तुमने कभी सोचा है कि जिस मातृभाषा के सम्मान में तुमने अपना करियर दांव पर लगा दिया है उस भाषा में तुम्हारा भविष्य सुरक्षित है?
तुम बहुत भोले हो। इतने भोले कि देश के सबसे ज्यादा सांसद और प्रधानमंत्री हिंदी पट्टी से आते हैं और तुम उनसे ये सवाल तक नहीं पूछ पाते कि जिस भाषा में सरकार तुम्हें शिक्षा देती है उस भाषा में रोजगार क्यों नहीं देती? आखिर तुम्हारी प्रतिभा को हमेशा अंग्रेजी से क्यों हारना पड़ता है?
तुम तो इतने निरीह हो कि कई परीक्षाओं में बैठ तक नहीं पाते हो। नीट, जी मेन, एनडीए, सीडीएस, ज्यूडिशियल सर्विस, कैट, बैंकिंग सभी की परीक्षा इंग्लिश में होती है। थक हारकर तुम ग्रेड ए बी को छोड़ ग्रेड सी और डी की तैयारी करने लगते हो। बाबू और पैकेज वाली नौकरी तुम्हारे औकात के बाहर है।
तुम दिन-रात आईएस बनने का ख्वाब देखते हो। खूब मेहनत करते हो। कोचिंग भी जॉइन कर लेते हो। बाद में तुम्हें होश आता है कि हिंदी माध्यम में स्तरीय मटेरियल जैसे नोट्स, बुक्स, न्यूजपेपर्स, वेबसाइट्स नहीं है। फिर भी तुम अपने माननीय से ये सवाल नहीं पूछते कि जब रिसर्च और शैक्षणिक गुणवत्तापूर्ण सारी सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध है और हिंदी अनुवाद की स्थिति बहुत खराब है तो हिंदी माध्यम में शिक्षा देने का आखिर औचित्य क्या है?
अंग्रेजी की प्रभुत्वशाली संरचना में तुम कितने हाशिये पर हो ये नौकरशाह बनाने वाली यूपीएससी के रिजल्ट में देखो। गौर से देखो शीर्ष नौकरशाही में हिंदी माध्यम का कितना प्रतिनिधित्व है? यूपीएससी परीक्षा 2020 में 761 उम्मीदवार पास हुए हैं जिनमें हिंदी माध्यम से पास हुए छात्रों की संख्यां केवल 10 (अभी तक ज्ञात संख्यां) है यानि लगभग 1 से 2 प्रतिशत। 2019 में यह संख्यां 9 और 2018 में यह 8 थी। हरेक साल हिंदी माध्यम के टॉपरों की रैंक भी बहुत पीछे रहती है। तुम चाहे कितनी हाड़तोड़ मेहनत क्यों न कर लो चंद अंग्रेजीदां लोग और सिस्टम तुम्हें कभी नौकरशाह नहीं बनने देगा।
तुम्हें एहसास हो या न हो। ये सिस्टम तुम्हें बेवकूफ बना रहा है जिसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं। अगर तुम्हें बचपन में यह पता होता कि सिस्टम तुम्हें जिस भाषा में शिक्षा दे रहा है उस कारण तुमसे कदम-कदम पर भेदभाव करेगा तो तुम उस भाषा को कभी न चुनते। शायद परिवार की आर्थिक और ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण भी तुम मजबूर रहे होगे।
मजबूरी के बावजूद तुम्हारे साथ दिक्कत ये है कि तुम धर्म, संस्कृति और राष्ट्रवाद की कोडिंग में प्रोग्राम्ड कर दिए गए हो। जिस कारण तुम बात-बात में गर्व और बात-बात में नफरत करने लगते हो। व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर पर चीन, पाकिस्तान, हिंदू मुस्लिम और बुद्धिजीवियों को गाली देने वाले पोस्ट करके देशभक्त होने का सुखद एहसास पाते हो। पर इन सबके बीच तुम्हें इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि सिस्टम ने राष्ट्रवाद के नाम पर तुम्हारा ही मीम बना डाला जहां राष्ट्रवादी सरकार ही राष्ट्रवादियों से यह कहती है कि- "इफ यू डोंट नो इंग्लिश देन यू आर नॉट एलिजिबल फॉर दिस पोस्ट/एग्जाम।"
मेरे प्रिय हिंदी माध्यम के छात्रों। मातृभाषा के प्रेम में फंस कर तुम्हारी स्थिति एक तरफा प्यार में हारे हुए आशिक के जैसी है जहां तुम्हारी प्रेमिका 'स्टील प्लांट' की जगह 'स्टील का पौधा' लगाकर चली जाती है और तुम बस देखते रह जाते हो। इस बेवफाई के बावजूद नई शिक्षा नीति के जरिये सिस्टम तुम्हें दिलासा देता है कि दुखी मत हो तुम्हारे ही कंधों पर भारत को विश्वगुरु बनाने का दायित्व है। सोचो जब तुम खुद शीर्ष नौकरी के योग्य नहीं समझे जाते हो तो विश्वगुरु कैसे बनाओगे? तुम केवल बेरोजगार बनोगे। एक बेबस बेरोजगार। क्योंकि बेरोजगारों की फ़ौज ही असली राजनीतिक कार्यकर्ता है।
विश्वगुरु प्रोजेक्ट के साइंटिस्ट तुम्हें ये तर्क देते मिल जाएंगे कि हिंदी और अन्य मातृभाषा का बचा रहना जरूरी है। जरूर बचाया जाना चाहिए। मैं इससे सहमत हूँ पर उनसे पूछो कि इसकी कीमत क्या होनी चाहिए? बचाये जाने वालों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए कि बेज्जत? पेट और भाषा रक्षा में तुम किसे चुनोगे?
प्रगतिशील लोग तुम्हें ये तर्क देते मिल जाएंगे कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल सकता। ये औपनिवेशिक सोच है। इस तर्क में बिल्कुल दम नहीं है। तुम राष्ट्रवाद के नशे में भले चीन को दम भर गालियां दे लो पर देखो उसी चीन ने अंग्रेजी के भाषायी साम्राज्य में अपनी भाषा का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया है। ऐसा लोहा कि तुम्हें हिंदी पढ़ने से अपने ही देश में रोजगार मिले न मिले लेकिन चाईनिज पढ़ने से जरूर मिल जाएगा।
अब बस भी करो पार्टी का झंडा उठाना, दरी बिछाना और नारा लगाना। उठो। आवाज बुलंद करो। हुक्मरानों से सवाल करो। आंदोलन करो। अपना हक मांगो कि सरकार जिस भाषा में शिक्षा प्रदान करती है उस भाषा के कारण किसी भी स्तर पर भेदभाव और वंचित न करने की गारंटी दे। वह गारंटी जो तुम्हें शिक्षा से लेकर प्राइवेट-सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी के समकक्ष खड़ा कर सके। अगर गारंटी नहीं दे सकती तो वो भाषा पढ़ाई ही न जाए जो रोजगार में बाधक बने। क्या तुम ऐसा कर पाओगे?
- डॉ स्वर्ण सुमन
असिस्टेंट प्रोफेसर, काशी हिंदू विश्वविद्यालय