मिर्ज़ा ग़ालिब का फ़्रांसिसी शागिर्द
कैप्टन अलैक्जैन्डर हिडर्ली, जिनका कवि-नाम आज़ाद था, अलवर के राजा के दरबार में काम करते थे. वे एक अच्छे कवि थे जो जाने से पहले उर्दू शायरी का एक दीवान छोड़ गए
अशोक पाण्डे
झज्जर के आख़िरी नवाब अब्द अल-रहमान खान के दरबार में हो रहे मुशायरे की यह पेंटिंग 1852 में गुलाम अली खान नाम के चित्रकार ने बनाई थी. यह पेंटिंग सबसे पहले] ब्रिटिश लाइब्रेरी द्वारा 2012 में लगाई गयी प्रदर्शनी 'मुग़ल इंडिया: आर्ट, कल्चर एंड एम्पायर' में दिखाई गयी थी. बाद में इसे वॉलेस कलेक्शन के 'फॉरगॉटन मास्टर्स' में भी जगह मिली.
थोड़ा गौर से देखेंगे तो आपकी निगाह ने नवाब के ठीक बाएं फ़ौजियों वाला नीला कोट और हैट पहने बैठे युवा फिरंगी पर टिकना चाहिए. बैकग्राउंड में उसके सर के ऊपर फारसी लिपि में उसका नाम भी लिखा हुआ है. उसका परिचय थॉमस विलियम बील के जबरदस्त सन्दर्भ ग्रन्थ 'ओरिएंटल बायोग्राफी डिक्शनरी' में यूं मिलता है –
"कैप्टन अलैक्जैन्डर हिडर्ली, जिनका कवि-नाम आज़ाद था, अलवर के राजा के दरबार में काम करते थे. वे एक अच्छे कवि थे जो जाने से पहले उर्दू शायरी का एक दीवान छोड़ गए."
फरहतुल्ला बेग की किताब 'दिल्ली की आख़िरी शमा' में इस फिरंगी शायर का ज़िक्र उन चालीस शायरों में किया गया है जिन्हें बहादुर शाह ज़फर ने अपने आख़िरी मुशायरे में बुलाया था. लिखा है –
"आज़ाद फ्रांसीसी हैं लेकिन उनकी पैदाइश दिल्ली की है. दिल्ली में ही उनकी परवरिश हुई और बड़े होने पर उन्हें अलवर की फ़ौज में कप्तान की नौकरी मिली. उन्हें चिकित्साशास्त्र का भी थोड़ा बहुत ज्ञान है. उन्हें शायरी से बड़ा लगाव है और वे जनाब आरिफ़ के शागिर्द हैं. उन्हें जब भी किसी मुशायरे की भनक लगती सीधे दिल्ली पहुँच जाते हैं. फ़ौजी पोशाक पहनते हैं और इतनी नफ़ीस उर्दू बोलते हैं कि आप उन्हें ठेठ दिल्लीवाला समझेंगे. उनके शेर भी बुरे नहीं हैं."
इनके बाप जेम्स हिडर्ली थे जो ईस्ट इंडिया कम्पनी में एक छोटी-मोटी नौकरी करते हुए मेरठ की एक स्थानीय महिला के प्रेम में पड़े. उसी से ब्याह किया और कुल ग्यारह बच्चे पैदा किए.
तो इन्हीं ग्यारह बच्चों में से एक ये जनाब यानी अलैक्जैन्डर हिडर्ली उर्फ़ आज़ाद फ़्रांसीसी 1829 को पैदा हुए. बताते हैं उन्होंने 1857 के बाद इस्लाम क़बूल करके जान मुहम्मद नाम भी रख लिया था.
वह मिर्ज़ा ग़ालिब का ज़माना था. कोई हैरत नहीं आज़ाद फ़्रांसीसी ग़ालिब के बड़े प्रशंसक और शागिर्द थे. अपनी कविता को लेकर मिर्ज़ा ग़ालिब के साथ ख़तो-किताबत कर सलाह भी लिया करते थे. ग़ालिब का उन पर गहरा प्रभाव था और उन्हीं की ज़मीन में उन्होंने कई गज़लें लिखीं. ऐसी ही एक ग़ज़ल का मतला कुछ यूं है -
में ना वहशत में कभी सू-ए-बयाबां निकला
वां से दिलचस्प मिरा खाना-ए-वीरां निकला
एक और काबिल-ए-गौर शेर यूं है –
हम ने दिखा दिखा तिरी तस्वीर जा-ब-जा
हर इक को अपनी जान का दुश्मन बना लिया
7 जुलाई 1861 को कुल बत्तीस साल में हुई उनकी मौत के दो साल बाद अहमदनगर से उनका इकलौता दीवान प्रकाशित हुआ. एक सौ पिचहत्तर सफ़ों के इस दीवान में दो प्रस्तावनाएं लिखी गईं – फारसी में मुंशी शौकत अली ने लिखी जबकि उर्दू में आज़ाद फ्रांसीसी के सगे भाई थॉमस हिडर्ली ने. ध्यान रहे थॉमस हिडर्ली खुद भी उर्दू के अच्छे जानकार थे और उर्दू साहित्य के इतिहास की एकाधिक किताबों में उनका ज़िक्र आता है.
थॉमस ने ही अपने भाई की शायरी एक जगह इकठ्ठा की और उसे किताब की सूरत दी. अपनी भूमिका में उन्होंने लिखा –
"अशआर उस मरहूम के जो परेशां जा-ब-जा पड़े पाए गोया सोने में ज़मरुद और याक़ूत टिक पाए. ख़्याल आया कि इन जवाहर को बिखरा पड़ा ना रहने दीजिए और इन सब अशआर को रदीफ़ वार जमा करके दीवान मुरत्तिब कीजिए ताकि जो कोई देखे वो ये कहे कि अगरचे उस शख़्स की थोड़ी ज़िंदगी थी मगर वाह इस क़लील मुद्दत में क्या गुहर अफ़्शानी थी."
उसकी शायरी की एक और झलक -
नवेद-ए-दिल के रफ़्ता-रफ़्ता हो गया है इस का हिजाब आधा
हज़ार मुश्किल से बारे-रुख़ पर से उस ने उल्टा निक़ाब आधा
ख़ुदा की क़ुदरत है वर्ना 'आज़ाद' मेरा और इन बुतों का झगड़ा
ना होगा फ़ैसला तमाम दिन में मगर बरोज़ हिसाब आधा
आज़ाद फ़्रांसीसी को कोई ऐरा-गैरा मत समझ लेना! बल्ली मारान की गली कासिम जान वाले बड़े चचा का चेला था अपना भाई.