कर लिया पाप जो अब न करपाएगा,
ये गुनाहों की है रात भी आखरी।
बांध डाली जुबानें खुलेगी सभी,
बेजुबानों की है रात भी आखिरी।।
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ना रहेंगे किसी की पनाहों में हम,
काट डाले हैं बंधन के बंधन सभी।
सांस लेंगे खुली अब हवाओं में हम,
ये पनाहों की है रात भी आखरी।।
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हक का जब भास्कर पंख फैलाएगा, गिड़गिड़ाना पड़ेगा न फिर से कभी।
रोशनी में न तम कर सितम पाएगा,
ये कराहों की है रात भी आखरी।।
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हो गया है भरोसा के जीतेंगे हम,
लोग देखेंगे मौला का मेरे करम।
बादशाहत रहेगी न कल देखना,
बादशाहो की है रात भी आखरी।।
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बेड़ियाँ सारी कट जाएंगी पांव की,
हाथसे हथकड़ी भी निकल जाएगी।
कल नई जिंदगी फिर मिलेगी यहां,
वेदनाओं की है रात भी आखरी।।
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सत्यके जलमें जो ढ़ोंग धुल जाएगा,
कुछ छिपेगा नहीं कुछ दबेगा नहीं।
दाग मुँह पर उभर आएंगे दागियों,
पारसाओंं की है रात भी आखरी।।
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रंग लाएंगी अपनी यही तूलिका,
जैलमें जायगेंअब शिकारी"अनन्त"।
दुश्मनाने अमन गर्क होंगे सभी,
गर्म आहों की है रात भी आखरी।।
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अख्तर अली शाह "अनंत" नीमच