क्या चचा आज कल बहुत चौड़िया रहे है, अमां बिल्कुल टोपा हो का.....
सोकॉल्ड प्रोफेशनल उर्फ कॉरपोरेटी पत्रकारिता आदमी के नेचुरल क्रिएटिवनेस को किल कर देती है. यह मेरा निष्कर्ष है...
पहले मैं यह बात साफ कर दूं कि किसानी और गांव से मेरा उतना ही वास्ता है, जितना नवाबों की नगरी लखनऊ के काकोरी की खेतीहर जमीन से ब्रांडेड किसान बिग बी का. या फिर दो हजार के नोट वाली चिप की खबर ब्रेक करने वाली पत्रकार से भेजे का. यह लहलहाती फसल किसी उम्दा पत्रकार के गाढ़े पसीनों और उम्मीदों की गमक से सराबोर है.
सोकॉल्ड प्रोफेशनल उर्फ कॉरपोरेटी पत्रकारिता आदमी के नेचुरल क्रिएटिवनेस को किल कर देती है. यह मेरा निष्कर्ष है. उसके पीछे अपनी लॉजिक भी है. लॉजिक भी अजीब टाइप का शब्द है. इन दिनों गाजर, मूली तक का मार्केट वैल्यू है, मगर लॉजिक फेसबुक की तरह फ्री है और आलवेज रहेगी. सपने बिरले ही अपने होते हैं. मगर हर दूसरे तीसरे दिन हेडिंग तो लगती ही है कि सच हुए सपने. गणित भि़ड़ाने से किसी को कौन रोक सकता है? मान लीजिए कोरोना वायरस की तरह वाकई किसी दिन अनाहूत अच्छे दिन टपक पडे तो?
कल्पना कीजिए शहर में एक भी एक्सीडेंट नहीं हुआ. कोई पॉकेटमारी तक नहीं हुई. लोग बाग गार्डेन गार्डेन हैं. हर गली हर नुक्कड़ पर ठहाके गूंज रहे हैं. बाबा नागार्जुन के मुहल्ले तक का कोई चूल्हा उदास नहीं है. हर चूल्हे के इर्द गिर्द लजीज पकवानों की स्मेल आ रही है. तो क्या अखबार नहीं निकलेगा? तो क्या टीवी स्टूडियो के शटर गिरा दिए जाएंगे? नहीं न?
भाई धंधा है तो शटर कैसे गिराया जा सकता है? आप रास्ता ही बंद कर देंगे तो लक्ष्मी माता को क्या पड़ी है कि वह छप्पर फाड़ने की जहमत मोल लें? यह काम तो वह सिर्फ खबरों की हेडिंग में करती हैं. दुनिया तो बाजार से चरण तक खरीद लाती है. विधिवत उसे पूजती है और अपने मुख्य द्वार पर एडहेसिब से सलीके से चिपकाती है. ताकि माता जी भूले भटके पड़ोसी के घर न दस्तक दे दें. सीधे चिपकाए गए चरण पर ही कदम रखें और वे चरण महीनों तक वहीं चिपके रहते हैं. मेरे दरवाजे पर तो बीते साल का अभी तक जस का तस है. यही बुनियादी फर्क है चरण और दिल में. काश दिल भी इतनी इत्मीनान से जुड़ जाता तो न जाने कितनी अतृप्त आत्माएं जुड़ा जाती.
अर्थात कोई घटना दुर्घटना नहीं होगी तो क्या दुकानों के शटर गिरा देंगे? फिर दर्शक पाठक की चेट ढीली कैसे होगी? धंधे में वही माई-बाप है. कानपुर बाई डिफाल्ट बिंदास महानगर माना जाता है, वह शब्दों का उम्दा बाजीगर और कारीगर भी है. वरना हटिया खुली बजाजा बंद, झाड़े रहो कलक्टरगंज सरीखी कहावतें ससुरी पैदा ही नहीं हो पाती.
तो चचा दीपावली की रात साक्षात लक्ष्मी आती हैं. इसी तर्क पर सेठ जी ने कहा कि अखबार तो छपेगा, लक्ष्मी आएंगी और शटर गिरा कर कैसे रख सकते हैं? अमूमन उस दिन खबरों का टोटा होता है. खबरनवीस भी सेलिब्रेशन मोड में होते हैं. तो छापेंगे क्या? जनता भी हफ्ते भर पहले से पूजन पाठ और जश्न की तैयारी में मशगूल रहती है? कौन पढ़ेगा या देखेगा? कुछौ छाप देंगे म्हाराज. कागद तो कारे करेंगे ही. उस रात लक्ष्मी का भी स्वागत करना है. भोर होते ही विज्ञापन घर घर तक पहुंचाएंगे. इसी तर्क पर यूपी के बाकी प्रतिद्वंद्वी अखबार दीपावली की रात भी छपने लगे.
लब्बोलुआब यह है कि कुछ नहीं है तो भी 'रि'रिया तो सकते हैं न? अब इसे क्रिएट करना तो नहीं कहेंगे. क्योंकि क्रिएशन के लिए भेजा एप्लाई करना पड़ता है, जेनरेट सही शब्द रहेगा. क्यों? हर हाल में घुंघरू की तरह बजना ही है.
यह तस्वीर मेरे पत्रकार मित्र अरविंद कटियार के खेतों की है. नजर न लगे, इसलिए खांटी पूरबिया टोटका अपनाते हैं. सूई डोरा.... सूई डोरा. अरविंद जी उम्दा खबरनवीस हैं, कॉपी के मामले में बेजोड़. मेरी उनकी पहली मुलाकात दो दशक पहले बनारस में ही हुई थी. मैं पंजाब रिटर्न था. और वे अपने शहर कानपुर से आए थे नया अखबार लांच करवाने. अर्थात हम दोनों एक ही संस्थान के मुलाजिम थे, अलग अलग शहरों से बनारस में मिले. हम दोनों डेस्क पर एक दूसरे के आमने सामने बैठते थे, मगर बीच में एक दीवार थी, छोटी ही सही, चांदी की तो कत्तई नहीं थी. अरविंद जी में एक खासियत तभी मैं नोट किया था. वे गप्पे लड़ाने में पीछे नहीं रहते, मगर एक बार अपनी डेस्क पर बैठ गए तो एडिशन छोड़ने के बाद ही सर उठाते. तब वे जौनपुर के 'राजा' हुआ करते थे. मजाल की कोई डिस्टर्ब कर दे, उनके ठीक बगल में संजय मिश्र जी बैठते, उसी मुद्रा में, उसी तेवर के साथ.
बाद में अरविंद जी और हम कानपुर में फिर टकराए. इस बार वे कलीग ही नहीं, मकान मालिक और पड़ोसी भी थे. संबंध ज्यादा करीबी रहा. खबरों की एडिटिंग में उनका कोई जवाब नहीं रहा. डेडिकेशन इतना कि एडिशन छोड़कर आधी रात गए घर लौटने के बाद अगर शंका हो जाए कि कोई चूक हो गई, तो सुबह के अखबार का इंतजार करते. फिर अखबार देखकर बिस्तर पकड़ते. अचानक उन्होंने पत्रकारिता से वास्ता तोड़ दिया. वैसे उनके इस कदम को अचानक कहना ज्यादती होगी. उनका मूड पहले भी कई बार उखड़ चुका था. मगर कभी मेरे और कभी दूसरे मित्रों के दबाव में उन्होंने फैसला बदल दिया. दो बार तो मेरे सामने उन्हें अपना फैसला बदलने के लिए खुद संपादकों ने दबाव बनाया. और वे वापस दफ्तर लौट आए. मगर इस बार वे अंगद की तरह न लौटने की जिद्द पर अडे रहे.
नौकरी छोडने के बाद वे कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहने लगे. फिर मैं भी बनारस लौट आया. एक दूसरे के यहां आना जाना या फोन से संपर्क बना रहा. यह तो मैं जानता था कि अरविंद जी ठीक ठाक खेती वाले किसान हैं, मगर खुद जुट गए हैं. यह जानकारी अब हुई. वह भी नौकरी छोड़कर न सिर्फ वे खेती कर रहे हैं, बल्कि किसी मल्टीनेशनल कंपनी की नौटंकी से आजिज उनका इंजीनियर कजिन भी अपना हंड्रेड परसेंट अब अपने खेतों को कंट्रीब्यूट कर रहा है. नतीजों की तस्दीक ये तस्वीरें कर रही है. अरविंद जी की उम्र 50 के आसपास होगी. अर्थात मूड़ मुड़ाइ भये संन्यासियों की नजर में रिजेक्टेड आइटम या रिटायरमेंट की उम्र. मगर डेडिकेशन और विजन उम्र की मोहताज नहीं होती.
अरविंद जी की फसल में वही परफेक्शन झलक रहा है, जो उनके द्वारा निकाले गए अखबार में दिखता रहा है. अभी अरविंद जी के बच्चे पढ़ ही रहे हैं. अर्थात 30 साल की उम्र वालों से ज्यादा आर्थिक मजबूती की जरूरत इस उम्र को होती है. क्योंकि बेटा अभी बहुत छोटा है. विलम्ब से हो रही शादियां वानप्रस्थ आश्रम के लिए निर्धारित उम्र में भी इजाफे की मांग कर रही हैं. इस उम्र के आदमी पर कई जिम्मेदारियां होती हैं. जरूरी नहीं कि सबके पास खेत या अन्य संबल हो. इसलिए इस उम्र में नौकरी छूटना मतलब मुंह के बल गिरना ही माना जाना चाहिए. वह भी तब जब बच्चे भी बेरोजगार हो.
इसी एज ग्रुप के मेरे एक और मित्र हैं, जो फिलहाल तो एक नामी गिरामी मीडिया हाउस की नौकरी बजा रहे हैं, मगर उनकी हरकतें वक्त वेवक्त तस्दीक करती रहती हैं कि वे उम्दा शेफ भी हो सकते थे. यही नहीं, वे बागवानी जैसे मेहनत वाले काम में भी वे हाथ आजमा चुके हैं और बखूबी सफल भी रहे हैं. और कुछ नहीं तो मेट्रोपॉलिटिन सिटी में अपने खेत की सब्जी तो वे रोज अब खा ही रहे हैं.
कल वरिष्ठ पत्रकार और मेरे अग्रज कृष्णदेव नारायण राय जी डिजिटल प्लेटफॉर्म पर किसी बहस में भागीदारी कर रहे थे. मुद्दा यही था. उन्होंने बड़ी शिद्दत से इस उम्र के लोगों की पीड़ा को रखा. मामला सिर्फ पत्रकारों का नहीं है, क्योंकि पत्रकार तो बेरोजगार होने के लिए अभिशप्त प्रोफेशन है. कमोबेश आम लोगों की यह दिक्कत है. अचानक कह दिया जाए कि आपकी नौकरी गई तो वह मुंह के बल गिरने के विवश हो जाता है. कम से कम बच्चों के अपने पांव में खड़े होने तक को मोहलत होनी ही चाहिए.
आलीशान वैभव का चरम सुख ले रहा 70 साल का बुजुर्ग बता रहा है कि 50+ वाले काहिल और अनुपयोगी है. शायद यह सदी का सबसे बड़ा मजाक है. बहरहाल कॉस्ट कटिंग के फंडे पर चलते हुए BSNL के 20 हजार कर्मचारियों को बेरोजगार करने की पूरी तैयारी है. PTI की रिपोर्ट्स के मुताबिक BSNL यूनियन ने यह भी दावा किया है कि कंपनी के 30 हजार कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों को पहले ही बाहर किया जा चुका है. पिछले 14 महीने से भुगतान नहीं होने की वजह से 13 ठेका श्रमिक आत्महत्या भी कर चुके हैं. इस बात पर भी गौर कीजिएगा कि BSNL और MTNL के कर्मचारियों को केंद्र सरकार ने VRS ऑफर की थी, तो आधे से ज़्यादा कर्मचारियों ने VRS ले चुके हैं. BSNL में कुल 1 लाख 53 हज़ार कर्मचारियों में से 78,569 VRS ले चुके हैं. MTNL के 18,000 कर्मचारियों में से 80 प्रतिशत लोगों ने VRS ले लिया है. बीते साल 4 नवंबर को VRS ऑफर किया गया, आवेदन की आखिरी तिथि 31 जनवरी थी. भारत में पहला कोरोना संक्रमित 30 जनवरी को मिला था. अर्थात यह आइडिया कोरोना संक्रमित नहीं है. मूड और नीति पहले ही बनाई जा चुकी थी. BSNL और MTNL सैम्पल मात्र हैं.
जब बात रोजी रोटी की हो तो इस देश के भाग्य विधाताओं को भी नहीं भूलना चाहिए. मौजूदा लोकसभा में आधे से ज्यादा सांसद 50 साल से ज्यादा उम्र के हैं. यंग सांसदों की बात करें तो इनकी संख्या सिर्फ 8 है, जो 30 साल से कम उम्र के हैं. जबकि, लगभग एक-तिहाई यानी 177 सांसद 60 साल से भी ज्यादा उम्र के हैं. वहीं, 31 से 40 साल के बीच के 57, 41 से 50 साल के 129 सांसद भी इस बार लोकसभा में पहुंचे हैं. ये हाल तब है जब 303 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने पिछली लोकसभा में अपने 75 साल ज्यादा उम्र वाले सांसदों का टिकट काट दिया था. गौर कीजिएगा लोकसभा में 25 से 45 साल के सांसद एक तिहाई घटे हैं, जबकि बुजुर्ग 10 गुना बढ़े हैं. तो क्यों नहीं 50+ वाले सांसद और विधायक स्वयं त्याग की नजीर पहले पेश करें?
मोरक्को ने अपनी संसद में युवाओं के लिए सीटें रिजर्व कर रखी है. वहां 30 सीटें युवा सांसदों के लिए रिजर्व रहती हैं. स्वीडन की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने तो 25% सीटें युवाओं के लिए रिजर्व कर रखी हैं. इन सीटों पर सिर्फ 25 साल से कम उम्र वालों को ही चुना जाता है. मगर विश्व का सर्वाधिक युवा आबादी वाले देश में घंटा इनके हिस्से में आता है. उल्टे रिटायर अफसर भी बुढापे में मलाई मारने संसद पहुंचते हैं अपने देश में भी यह फार्मूला सख्ती से लागू किया जाना चाहिए. ताकि वे इस उम्र की जरूरतों को शिद्दत से महसूस कर सकें और कारगर योजनाएं बना या बनवा सकें. ताकि कम से कम नए चेहरे नए आइडिया तो आए. आखिर यह बुढ़उओं की फौज वहां पहुंच कर करती क्या है, सिवाय मूंगफली तोड़ने और मलाई मारने के.
- अज्ञात