जाने-माने अधिवक्ता और राज्य सभा सदस्य कपिल सिब्बल ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट में 'सवंदेनशील' मामले अब निरपवाद रूप से कुछ चुने हुए जजों को दिये जाते हैं और इस क्षेत्र के लोगों को आम तौर पर मालूम होता है कि फैसला क्या होगा। पूर्व केंद्रीय विधि मंत्री ने शनिवार को कांस्टीट्यूशनल क्लब में "नागरिक अधिकारों की न्यायिक वापसी" पर आयोजित पीपुल्स ट्रिब्यूनल (जनता पंचाट) में कहा, "यह गलतफहमी है कि सुप्रीम कोर्ट में आपको समाधान मिलता है। मुझे इस संस्थान से कोई उम्मीद नहीं है - जहां जजों को मामले सौंपे जाते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश तय करते हैं कि कौन सा मामला किसके पास जाएगा, कब सुनवाई होगी। ऐसी अदालतें स्वतंत्र नहीं हो सकती हैं समस्या वाले संवेदनशील मामले निरपवाद रूप से कुछ चुने हुए जजों के पास जाते हैं। हम जानते हैं कि फैसले क्या होंगे।" द टेलीग्राफ ने आज इस खबर को लीड बनाया है और मुख्य शीर्षक है, अंतिम उम्मीद ने भी निराश किया।
इस खबर को हिन्दी में ढूंढ़ने के लिए मैंने, 'जनता पंचाट में सिबल' और 'कांस्टीट्यूशन क्लब में कपिल सिबल' गूगल किया तो शुरू की खबरों में यह खबर नहीं मिली। सिबल से संबंधित पुरानी खबरें जरूर थीं। इसके बाद मैंने गूगल किया, 'मुझे इस संस्थान से कोई उम्मीद नहीं'। तब हिन्दीडॉट लाइवलॉ डॉट इन की खबर मिली। पूरे मामले को समझना चाहें तो हिन्दी में खबर का लिंक कमेंट बॉक्स में है। द टेलीग्राफ ने अपनी इस खबर के साथ पत्रकार सिद्दीक कप्पन, नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाली तीस्ता सेतलवाड और गुजरात दंगों में मारे गए (पूर्व) कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफारी के मामलों का उल्लेख किया है। सिद्दीक कप्पन के मामले में उन्होंने पूछा है, एक बलात्कार के मामले की रिपोर्ट करने वह कार से हाथरस जा रहा था। उसके खिलाफ आपके पास क्या सबूत है?
इसी तरह, तीस्ता सेतलवाड के मामले में उन्होंने बताया है, कोई बहस नहीं हुई। असल में मुझसे कहा गया था, आप मत पड़िये। जकिया जाफरी के मामले में कपिल सिबल के हवाले से अखबार ने लिखा है, एसआईटी ने जो किया वह कानून का छात्र भी जानता है कि नहीं किया जाना चाहिए और वह है आरोपी का कहा स्वीकार कर लेने जैसी विचित्र बात। अपनी इस खबर के साथ अखबार ने याद दिलाया है कि सिबल की यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के चार साल बाद आई है। तब भी उस समय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा द्वारा मामलों के आवंटन के संबंध में शिकायत थी गई थी। तब चार जजों ने कहा था कि इस संस्थान का संरक्षण नहीं किया गया तो देश में लोकतंत्र नहीं रहेगा। जो जानते हैं वो कहते हैं कि स्थिति खराब ही हुई है। दिलचस्प यह है कि खबरें भी नहीं छपती हैं।
दूसरी ओर, कई अन्य ने भी ये मामले उठाए हैं। सिबल ने गए महीने कहा था कि न्यायपालिका के कुछ सदस्यों ने हमें निराश किया है। मेरा सिर शर्म से झुक गया है। राहुल गांधी ने भी शुक्रवार को कहा था कि आरएसएस ने सभी संस्थानों पर कब्जा कर लिया है। एक भी नहीं बचा। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब बाकायदा, विधिवत होता रहा है, हम देख रहे हैं। विरोध से बेअसर लंबी चुप्पी के साथ। क्यों और कैसे हुआ यह भी समझ रहे हैं। उसपर किताबें हैं पर स्थिति नहीं सुधर रही है। उल्टे, कपिल सिबल ने कहा है, लोगों को सड़कों पर आना होगा। अगर आप सुप्रीम कोर्ट से राहत का इंतजार करेंगे तो गलतफहमी में हैं। अखबार ने द हिन्दू के हवाले से लिखा है, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर ने चेन्नई में कहा कि अगर लोग अपने अधिकारों का ख्याल नहीं रखेंगे, अपनी आजादी की परवाह नहीं करेंगे, इसके लिए नहीं लड़ेंगे तो कोई संविधान उनकी जान और आजादी की रक्षा नहीं कर सकता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट की जो हालत आज दिख रही है वैसी पहले कभी नहीं रही। मीडिया गोदी में नहीं था तब भी। तब खबरें छपती थीं, फिर भी देश की न्याय व्यवस्था पर कई किताबें हैं। न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने जिस किताब का लोकार्पण किया वह है, "कांस्टीट्यूटशनल कंसर्न्स : राइटिंग्स ऑन लॉ एंड लाइफ" (संवैधानिक चिन्ताएं : कानून और जीवन पर लेखन)। इसे सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता कलीश्वरम राज ने लिखा है। मशहूर अधिवक्ता फली एस नरीमन की एक किताब (2018) का तो नाम ही है, गॉड सेव दि ऑनरेबल सुप्रीम कोर्ट (माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भगवान बचाए) अरुण शौरी की किताब, अनीता गेट्स बेल में अदालतों की हालत का चित्रण है। अवमानना कानून के दुरुपयोग और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के भ्रष्टाचार की कहानी बताने वाली पुस्तक पत्रकार विनीत नारायण ने लिखी हैं। इसी तरह, अधिवक्ता वाईपी भगत की पुस्तक, द ट्रुथ ऑफ इंडियन ज्यूडिसियरी (भारतीय न्यायपालिका की सच्चाई, 2005, फिर 2011 में अद्यतन किया गया) का विषय वस्तु इसके नाम से ही स्पष्ट है।
ये वो किताबें हैं जो मेरे पास हैं, मैंने पढ़ी हैं और अभी याद हैं। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता है कि न्यायपालिका को सुधारने की जरूरत के बारे में संबंधित लोगों को पता नहीं है या बताया नहीं गया है। हालत फिर भी खराब हो रही है तो एक कारण यह संभव है कि शायद वही लक्ष्य है। जहां तक मीडिया की बात है उसकी अब अपनी दुनिया है। हिन्दी अखबार मैं नहीं देखता हूं। उसकी कहानी गूगल से बता दी और जहां तक अंग्रेजी अखबारों की बात है, दिल्ली के इस आयोजन की खबर जो चार अखबार मैं देखता हूं उनमें नहीं हैं। द टेलीग्राफ कोलकाता से छपता है और उसमें यह लीड है।