मैं वो भयावह रात कभी भूल ही नहीं पाती जब उसने मुझसे पूछा, "तेरे साथ कौन है छोरी?"
मैंने रुआंसे स्वर में जवाब दिया, "कोई नहीं है आंटी!"
तीन स्टेशन तय करने हुआ करते थे , मुझे अपना बीएससी कॉलेज अटेंड करने के लिए। हमारा कॉलेज कोई ज्यादा प्रतिष्ठित कॉलेज नहीं था जिले का। सच पूछो तो मैंने दाखिला भी इसीलिए लिया कि नियमित ना जाना पड़े। लेकिन अब बात प्रैक्टिकल की आ गई थी इसलिए लगातार जाना ही था कुछ दिनों के लिए।
मुझे लोकल ट्रेन का सफ़र बिल्कुल पसंद नहीं है। एक तो उसमें हर तरह के लोग चढ़ते हैं। दूसरे ट्रेनों का समय इधर उधर होता रहता है तीसरे अचानक वो एक प्लेटफार्म पर न आकार दूसरे प्लेटफार्म पर आ जाती हैं।
उन दिनों अपने जिले की ट्रेनों में तो !!खासकर लड़कियों का सफर करना, एक चुनौती ही होता था।
मैं वो भयावह रात कभी भूल ही नहीं पाती। शनिवार का दिन था । खुश थी कि अगले दिन कॉलेज नहीं आना होगा। रेलवे स्टेशन पहुंचकर पता चला कि सारी ट्रेनें रुकी हुई हैं । उस ट्रैक पर कोई एक्सीडेंट हो गया है। मैंने दो चार लोगों से पूछा तो किसी ने कहा आज तो मुश्किल ही पहुंच पाओगी घर, किसी ने कहा अभी खुल जायेगा रास्ता थोड़ा इंतजार कर लो।
मुझे एक पुलिस वाला सबसे भरोसेमंद लगा। मैंने उससे पूछा तो उसने कहा - दूसरी वाली गाड़ी में बैठ जाओ ये पहुँचा देगी।
मैं किसी और ट्रेन में बैठ गई। धीरे धीरे रात होने लगी लेकिन ट्रेन ..टस से मस ना हुई।
उन दिनों फोन की भी सुविधा नहीं थी जो किसी को बता भी देती कि मैं कहां हूं।
बिजली सी गिर गई जब किसी ने कहा - "इस ट्रेन में क्यों बैठ गई हो ये तो सुपरफास्ट है। ये चल पड़ी तो सीधा दिल्ली जाकर रुकेगी।"
हलक में डर की हवा सी भर गई। गाड़ी दो स्टेशनों के बीच वीराने में खड़ी थी जिसके डिब्बे में हर नजर बस मुझे ही घूर रही थी।
मां ने हिदायत दे रखी थी कि बाहर कभी अपनी घबराहट मत दिखाना क्या पता कब कोई घबराहट का फायदा उठा ले! उसकी सीख की वजह से तटस्थ सी बनी मैं सीट पर जमकर बैठी रही।
गाड़ी चली तो होश उड़ गए कि अब तो पता नहीं कहां जाकर रुकूंगी। जान में जान तब आई जब वो सुपरफास्ट अगले स्टेशन पर फिर रुक गई।
मौका देखकर मैं ट्रेन से उतर गई।
स्टेशन पर भीड़ लगी थी। सभी यात्री परेशान थे । हमें तीन घंटे से भी ज्यादा हो गए थे बीस किलोमीटर की दूरी तय करने में। मेरा कस्बा मात्र एक स्टेशन दूर था लेकिन घरवालों को मेरी कोई खबर नहीं थी ।
रात के ग्यारह बज चुके थे। छोटा प्लेटफार्म था इसलिए एक दो बल्ब लगे थे बस।प्लेटफार्म पर मवाली से लड़के मुझे देख देखकर उल्टी सीधी बातें कर रहे थे। अंदर ही अंदर कंपकंपाती मैं अंतरात्मा से भगवान को याद कर रही थी। तभी एक बुजुर्ग महिला मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसने मुझसे पूछा, "तेरे साथ कौन है छोरी?"
मैंने रुआंसे स्वर में जवाब दिया, "कोई नहीं है आंटी!"
बड़े ही ममता भरे स्वर में बोली , " किसी के सामने कहने की जरूरत ना है तू अकेली है, मेरे साथ ही रहियो।"
बातों बातों में पता चला कि उन्हें भी मेरे ही पास वाले कस्बे में जाना था। मैं बता नहीं सकती कि मुझे उस महिला का सानिध्य कितना सुरक्षित लगा । उस गहरी रात में वह महिला मुझे आशा के दीपक की भांति मिल गई थी।
अथक प्रतीक्षा के बाद हमारी ट्रेन पीछे से आई। उस महिला ने मुझे बेहद सुरक्षित तरीके से ट्रेन में चढ़ाया नहीं तो वे मनचले मुझे इधर उधर स्पर्श करने की पूरी फिराक में थे।
ट्रेन में बैठने के बाद भी वे उस वृद्ध महिला से मेरे बारे में उल्टे सीधे सवाल कर रहे थे जैसे -
अम्मा कौन है ये ?
तेरी बेटी है क्या?
तू पहले तो नहीं थी इसके साथ? आदि
लेकिन वह महिला दृढ़ता से मेरे साथ बैठकर उनकी बातों का यथोचित उत्तर देती रही।
रात के डेढ़ बज चुके थे जब ट्रेन मेरे स्टेशन पर पहुंची। सामने पापा और भईया को मेरी प्रतीक्षा करते पाया.. तो मेरी जान में जान आई। असल में उस दिन समझ आया परिवार क्या होता है! क्या होती है पारिवारिक सुरक्षा!
अपनों से नजर हटी तो वापस उन आंटी की ओर ध्यान गया। आंटी वहां नहीं थीं।
वो मनचले अब भी मुझे घूर रहे थे। लेकिन आंटी पता नहीं कहां चली गईं।
आज मैं अपने जीवन में परिपक्व और अनुभवी हो चुकी हूं। जब भी किसी लड़की को अपनी जैसी स्तिथि में देखती हूं उस वृद्ध महिला की तरह उसे पूरी सुरक्षा देने का प्रयास करती हूं। मैं जीवन भर इसी रूप में उस वृद्धा का धन्यवाद करती रहूँगी।
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