आज एक महिला पत्रकार ने मित्र और सहकर्मी स्वर्गीय आलोक तोमर पर तथ्यात्मक रूप से गलत आरोप लगाया है। आरोप पुराना तो है ही दो घटनाओं को जोड़ दिया गया है जो गलत है। यह पत्रकारिता का गलत इतिहास है और इरादतन भले न हो, लेखिका की अज्ञानता का परिचायक तो है ही। इससे उनकी गंभीरता का भी पता चलता है क्योंकि इसकी पुष्टि उन दिनों जनसत्ता में रहे किसी भी साथी से फोन करके की जा सकती थी।
आलोक के निधन के कई साल बाद ऐसे आरोप का कोई मतलब नहीं है जबकि आरोप में ही कहा गया है कि चार्ज शीट नहीं हुई थी। अगर पत्रकारों पर पद के दुरुपयोग का मामला है तो किसपर नहीं है? जो मामले ज्ञात और सार्वजनिक हैं उनकी ही संख्या कम नहीं है। पर लिखना हो तो उनपर लिखा जाना चाहिए जो कम चर्चित हैं। और पत्रकार किसी मृत पत्रकार के बारे में लिखे, नेता के बारे में नहीं तो आप क्या कहेंगे। मुझे उन्हीं दिनों का एक मामला याद आता है। इसकी चर्चा पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरामन ने अपनी किताब, माई प्रेसिडेंशियल ईयर्स में की थी। पेश है उस अंश का हिन्दी अनुवाद, पुस्तक के हिन्दी संस्करण, "जब मैं राष्ट्रपति था" में जैसा है।
".... अक्तूबर के शुरू में मेरे पास एक और फाइल आई जिसमें रुखसाना सुब्रमण्यम स्वामी को दिल्ली हाईकोर्ट का अतिरिक्त जज बनाने की सिफारिश थी। इस फाइल पर सभी सांविधानिक अधिकारियों की सिफारिश दर्ज थी। श्रीमती स्वामी ने बार में दस साल चार माह पूरे कर लिए थे। यह समय संविधान द्वारा तय न्यूनतम अहर्ता से कुछ ही महीने ज्यादा है। 1989-1990 के दौरान उनकी आय 20,000 रुपए प्रतिमाह बताई गई थी।
दिल्ली हाईकोर्ट में कई और महिलाएं प्रैक्टिस कर रही थीं जो ज्यादा बेहतर थीं और जिनकी आय भी ज्यादा थी। उन सभी को नजरअंदाज करके श्रीमती स्वामी जैसी महिला की नियुक्ति बार का निरादर करना था। इसलिए मैंने पुनर्विचार के लिए वह फाइल प्रधानमंत्री को लौटा दी। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने संसद के केंद्रीय कक्ष में और बाहर मेरे खिलाफ अभियान छेड़ दिया। जिसे मैंने नजरअंदाज किया। मुझे अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करने के लिए कभी दबाया या मनाया नहीं गया था।"
काश! कुछ पत्रकारों को नेताओं का इतिहास और राजनीति पर भी लिखने का शौक होता।